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Thursday 5 May 2011

Wednesday 20 April 2011

बुन्देलखण्ड का अज्ञात सूफी कवि: हाजी वली शाह

डा. लखन लाल खरे

बुन्देलखण्ड का अज्ञात सूफी कवि: हाजी वली शाह

बुन्देलखण्ड के तमाम अंचल अब भी ऐसे हैं जहाँ अनेक स्वनामधन्य कवियों की प्राचीन पाण्डुलिपियाँ यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। इतना ही नहीं, अनेक पोथियाँ ऐसी हैं जो बस्तों में बन्द दीमकों का आहार बन रहीं हैं। वर्तमान उच्च प्रौद्योगिकी के समय में, जब साहित्य से आज के युवा की दूरी बढ़ती जा रही है, प्राचीन ग्रंथों के लक्षण का विषय चिन्तनीय है। ऐसा ही कुछ मध्यकाल के सूफी कवि हाजी वली शाह के साथ है।
मध्यप्रदेष के षिवपुरी जिले की कोलारस तहसील में ‘रन्नौद’ नामक कसबा स्थित है। यह अत्यन्त प्राचीन स्थल है और किसी समय बहुत बड़ा नगर रहा है। इसका प्राचीन नाम अरणिपद्र है जो परिवर्तित होत-होते रन्नौद हो गया। मध्ययुग में रन्नौद शैवधर्म का एक शक्ति केन्द्र था। शैवों का बनवाया हुआ एक मठ अब भी अच्छी हालत में यहाँ विद्यमान है जो ‘खोखई मठ’ के नाम से जाना जाता है। मोहम्मद गौरी,, अलाउद्दीन खिलजी,, बाबर व औरंगजेब आदि जब आगरा और दिल्ली से मालवा, गुजरात तथा दक्षिणी प्रदेषों में आते-जाते थे, तब उनका इस नगर में पड़ाव होता था। रन्नौद में पहले अनेक मसजिदें रही होंगी परन्तु आज उनके भग्नावषेष ही हैं। इसी नगर में एक सूफी संत शेख हसन साहब का निवास था।
जनश्रुति है कि शेख हसन साहब जन्म से ही चमत्कारी थे। इनकी कीर्ति चंदेरी के प्रसिद्ध संत हाजी वली शाह तक पहुँची और ये हसन साहब से मिलने रन्नौद आ गये। घर पर पता चला कि हसन साहब खेलने गये हैं तो हाजी वली शाह ने कहा कि शेख हसन जब घर लौटें तो उनसे कहना कि उन्होंने खेलने के लिए जन्म नहीं लिया है। हसन साहब जब खेलकर लौटे तो माँ से सारा वृतान्त जाना। वृतान्त जानते ही उन्होंने अपने घर के आँगन की दीवार पर बैठकर उसे चलने के लिए कहा। वह चल पड़ी और शेख हसन साहब को लेकर चंदेरी के पास ‘ओर’ नदी के किनारे तक गयी। हाजी वली शाह जब नदी के तट पर पहुँचे तो उन्होंने दीवार पर एक बालक को बैठे देखा। कौतूहल के कारण वली साहब ने उस बालक से बातें की और इतने प्रभावित हुए कि उसे अपना गुरू बनाने की मंषा जाहिर कर दी। कम उम्र होने के कारण हसन ने वली साहब का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, किन्तु वली साहब को यषस्वी होने का वरदान अवष्य दिया। वली साहब रन्नौद आ गये और यहीं बस गये।
आज भी रन्नौद में शेख हसन साहब की दालान, कोठरी, कुआँ और वह स्थल, जहाँ वे बैठकर नमाज पढ़ते थे; बना हुआ है। यहीं पर शेख हसन साहब की दरगाह है और इस दरगाह के पास हाजी वली शाह की दरगाह है। दोनों दरगाहों पर हजारों की संख्या में हिन्दू-मुसलमान आज भी जाते हैं।
हाजी वली शाह का जीवन परिचय अज्ञात है। तमाम प्रयास करने पर भी मुझे सफलता प्राप्त नहीं हुई। इनका लिखा हुआ एक ही ग्रंथ है- ‘प्रेमनामा’, परन्तु इस ग्रंथ में भी परिचय नहीं दिया गया है। ग्रंथ की प्रतिलिपि किन्हीं जनाब न्यामत खाँ ने सम्वत् 1931 (सन् 1874) में की थी। इस प्रतिलिपि की प्रति अधिक पुरानी नहीं है। रन्नौद निवासी सेवानिवृत्त षिक्षक ज़नाब तब्बार अहमद, जिनके सहयोग से मुझे उक्त प्रति प्राप्त हुई, हाजी वली शाह और उनके ‘प्रेमनामा’ का अनुमानित समय चार-साढ़े चार सौ वर्ष बतलाते हैं।
स्व. श्री गौरीषंकर द्विवेदी ‘षंकर’ ने अपने ग्रंथ ‘बुन्देल वैभव’ में जिन ‘हाजी’ का कवि के रूप में उल्लेख किया है, वे यही हाजी वली शाह हैं, क्योंकि द्विवेदी जी ने हाजी कवि की कविता के जो कतिपय उदाहरण दिये हैं वे हाजी वली शाहकृत ‘प्रेमनामा’ में हैं। द्विवेदीजी लिखते हैं- ‘‘हाजी कवि बुन्देखण्डी का जन्म और कविताकाल अनुमानतः क्रमषः विक्रम संवत् 1720 (सन् 1663) और संवत् 1760 (सन् 1703) माना जाता है। आप कहां के निवासी थे, कौन थे, इत्यादि बातें अधिक अनुसंधान करने पर भी नहीं मिल सकीं, किन्तु आपकी रचनाओं को देखने से तथा आपकी रचनाओं का बुन्देलखण्ड में अधिक प्रचार होने के कारण यह निष्चय है कि आप बुन्देलखण्ड ही के निवासी थे। आपकी स्फुट रचनाएँ भी यत्र-तत्र मैंने सुनी हैं। आपने (1) नायिका भेद पर अच्छा ग्रंथ लिखा है, कविता साधारण है।’’
मैंने इनके अन्य ग्रंथों की खोज की ; परन्तु मुझे ‘प्रेमनामा’ के अतिरिक्त और कोई दूसरा ग्रंथ नहीं मिला। द्विवेदी जी ने हाजी कवि के जो उदाहरण दिये हैं, वे सब ‘प्रेमनामा’ के हैं। नायिका भेद पर इन्होंने कौन सा ग्रंथ लिखा है, द्विवेदीजी ने न तो उसका शाीर्षक दिया है और न ही उक्त ग्रंथ में से कोई उदाहरण दिया है। एक और विसंगति द्विवेदीजी के शोध में परिलक्षित होती है। एक ओर तो जीवन परिचय के नाम पर वे लिखते हैं- अधिक अनुसंधान करने पर भी नहीं मिली ; दूसरी ओर जन्म और रचना काल के अनुमानित समय का उल्लेख करते हैं। इस अनुमान का आधार क्या है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया।

काव्य वैभव एवं प्रदेय

‘प्रेमनामा’ में प्रयुक्त ठेठ बुन्देली के शब्द वली शाह को बुन्देलखण्ड का कवि सिद्ध करते हैं- यह निर्विवाद है। ‘प्रेमनामा’ का प्रारम्भ जिस रीति से हुआ है, उससे पता चलता है कि इस ग्रंथ में सूफी सिद्धातों का प्रतिपादन किया गया है-
आद अलख अलख नसिका वो है यौं कैसा ।
रूप न रेख न सर न सबद न बरन न भैसा ।।
आया माया लोव धन तो कछू न लागे ।
हँसे न रोवै न मारे न सोवै न जागे ।।
हाज़ी खूबी हुष्न की कर परदा दूूजा ा
आपही देखा आप में तब आपई सूजा ।।

अल्लाह की स्तुति के पश्चात् हाजी, हजरत मोहम्मद साहब और उनके चार यार (चारों खलीफ़ा) की प्रषंसा करते हैं। उस समय की परिपाटी के अनुसार हाजी अपने पीर हसन मोहम्मद का शुक्रिया अदा करते हैंः-
हसन मोहम्मद बूंसईद सा पीर हमारा ।
धनपत गुनपत प्रेमपत दोऊ जग उजयारा ।।

एक स्थल पर हाजी ने जो संकेत दिया है, उससे यह तो निष्चित है कि ये चन्देरी के निवासी थे, जो बुन्देलखण्डान्तर्गत है। भले ही उन दिनों राजनीतिक दृष्टि से वह मालवा सूबे के अन्तर्गत हो-
हाजी सूबा मालवा सरकार चन्देरी ।
दिना चार रन्नौद में भई बैठक मेरी ।।

ग्रंथ पंथों में विभक्त है। ये पंथ हैं- पंथ जोगन का, पंथ सन्यासी का, पंथ पांचों दरसन का, पंथ विरहामन (ब्राह्मण) का, पंथ सूफी का, पंथ वैरागी का, पंथ बनिया का, पंथ किसान का, पंथ माली का, पंथ बरई का, पंथ कल्हार का, पंथ कलावत का, पंथ भट का, पंथ लोहार का, पंथ बढ़ई का, पंथ नाऊ का, पंथ कुम्हार का, पंथ धोबी का, पंथ चमार का, पंथ तुर्क का, पंथ सौदागर का और पंथ मोमिन का। इन पंथों के पथिकों के माध्यम से कवि ने प्रेम के महत्व को प्रतिपादित किया है। ‘पंथ नाऊ का’ में नाई के कार्मिक उपकरणों को प्रतीक बनाकर कवि कहता है-

प्रेम छुरा बनाय कें पथरी पर फेरा ।
हाजी कोरा मूंड़कर करन निहोरा ।।
जोग कतरनी जुगत की सिर सूधे हाथ चलाय ।
कागहीं गियान विचार के और के सुर साय ।।
हाजी ने प्रेम-निरूपण बड़ी विलक्षण रीति से किया है। लौकिक प्रेम-व्यंजनों में दो विपरीत लिंगी होने की अनिवार्यता है। हाजी ने पंथ में दर्षित जातियों के लिए प्रिय-प्रिया, नाई-नाइन, धोबी-धोबिन आदि को प्रेम-पंथ पर चलने के लिए सजग किया है। यही लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम में परिवर्तित होगा। शर्त यह है कि भावना पावन हो:

गंगाजी, सोंरों, हरिद्वार, जगन्नाथ दोऊ हैली ।
सपरत खोरत नित फिरीं पर मैली की मैली ।।

और जब कवि प्रेम-केवल प्रेम का संदेष दे रहा है तो इसमें हिन्दू-मुसलमान जैसे विभेद रहते ही नहीं । ग्रंथ का समापन करता हुआ कवि बड़ी मार्मिक उक्ति कथन करता है:

दाहिने हाथ कुरान धर बाँएं हाथ पुरान ।
बीच-बीच बनाय के हाजी बना निदान ।।

-स्पष्ट है कि कवि का व्यापक दृष्टिकोण है और वह मानवता की स्थापना के लिए सचेष्ट दिखाई देता है।
हाजी वली शाह के अन्य ग्रंथ यद्यपि उपलब्ध नहीं है, परन्तु प्रेमनामा में सूफी दर्षन को सामाजिक बनाने का स्तुत्य प्रयास किया गया है और सम्भवतः यह अपने आप में अनोखा तथा मौलिक कवि कर्म है। कवि ने ग्रंथ में न तो किसी की बुराई की है और न ही किसी को श्रेष्ठ बताया है। तत्समय में प्रचलित जातियों के कर्मो को आधार बनाकर प्रेम और भाईचारे का संदेष देना कवि की नूतन दृष्टि का परिचायक है।
हाजी वली शाह के कृतित्व पर साहित्य के अध्येताओं का ध्यान आकृष्ट होना ही चाहिए।


-विभागाध्यक्ष हिन्दी
शासकीय एस.एम.एस. महाविद्यालय
कोलारस जिला षिवपुरी

Tuesday 19 April 2011

ana qasmi ki gazlin


मौलाना हारून 'अना' क़ासमी

संक्षिप्त परिचय
नाम ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी

जन्म : 28 फरवरी 1966
जन्म स्थान : छतरपुर (म.प्र.)
पिता का नाम : हाजी मुहम्मद जमील निज़ामी
माता का नाम : मरियम खातून
शिक्षा : फाज़िल (दारूल-उलूम देवबन्द)
लेखन विधाएं : ग़ज़ल एवं नज़्म
उपलब्धियां : ग़ज़ल संग्रह 'हवाओं के साज़ पर प्रकाशित
देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएं
प्रकाशित ।
विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
सम्पर्क : हेल्प लाइन कम्प्यूटर एसेसिरीज,
आकाशवाणी तिराहा, छतरपुर (म.प्र.) पिन-471001
मोबाइल नम्बर : 9826506125

मौलाना हारून अना क़ासमी ऐसे नौजवान ग़ज़ल के शायर हैं जिनके फिक्रोफ़न में इनकी सच्ची रियाज़त वसीअ मुतालआ शायराना सदाकत है ।
इनके अच्छे शेरों में ग़ज़ल की सदियों कबी परम्पराएं अपने ज़माने से बड़े प्यार
से गले मिल रही हैं । इन रिवायतों में नया लबो-लहज़ा इनकी अपनी पहचान बनाने में पूरी तरह कामयाब हो रहा है । इनके कुछ अच्छे शेर सुब्ह की धूप में
मुस्कुराते फूलों की तरह उजले उजले हैं ।
मुझे यकीन है कि हमारे हिन्दी के नौजवान दोस्त भी इस मजमूए को ज़रूर पसन्द करेंगे ।

-डा. बशीर बद्र
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1 ग़ज़ल
कभी हाँ कुछ, मेरे भी शेर पैकर1 में रहते हैं
वही जो रंग, तितली के सुनहरे पर में रहते हैं|

निकल पड़ते हैं जब बाहर, तो कितना ख़ौफ़ लगता है,
वही कीड़े, जो अक्सर आदमी के सर में रहते हैं|

यही तो एक दुनिया है, ख़्यालों की या ख़्वाबों की,
हैं जितने भी ग़ज़ल वाले, इसी चक्कर में रहते हैं|

जिधर देखो वहीं नफ़रत के आसेबां2 का साया है,
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब कहाँ किस घर में रहते हैं|

वो जिस दम भर के उसने आह, मुझको थामना चाहा,
यक़ीं उस दम हुआ, के दिल भी कुछ पत्थर में रहते हैं|

1 साचाँ 2 भूत



2 ग़ज़ल
माने जो कोई बात, तो इक बात बहुत है,
सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है|

दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर इक बात,
ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है|

महिने में किसी रोज, कहीं चाय के दो कप,
इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है|

रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी,
इस दौर में अब इतनी मदारात1 बहुत है|

दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम,
कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है|

फिर तुमको पुकारूंगा कभी कोहे 'अना'2 से,
अय दोस्त अभी गर्मी-ए- हालात बहुत है|

1.हमदर्दी 2. स्वाभिमान

3 ग़ज़ल
बहुत वीरान लगता है, तिरी चिलमन का सन्नाटा,
नया हंगामा माँगे है, ये शहरे-फ़न का सन्नाटा|

कोई पूछे तो इस सूखे हुए तुलसी के पौधे से,
कि उस पर किस तरह बीता खुले आँगन का सन्नाटा|

तिरी महफ़िल की रूदादें बहुत सी सुन रखीं हैं पर,
तिरी आँखों में देखा है, अधूरेपन का सन्नाटा|

सयानी मुफ़लिसी फुटपाथ पर बेख़ौफ़ बिखरी है,
कि दस तालों में रहता है बिचारे धन का सन्नाटा|

ख़ुदाया इस ज़मीं पर तो तिरे बंदांे का क़ब्ज़ा है,
तू इन तारों से पुर कर दे मिरे दामन का सन्नाटा |

मिरी उससे कई दिन से लडा़ई भी नहीं फिर भी,
अ़जब ख़श्बू बिखेरे है, ये अपनेपन का सन्नाटा |

तुम्हें ये नींद कुछ यूँ ही नहीं आती 'अना ' साहिब,
दिलों को लोरियाँ देता है हर धड़कन का सन्नाटा |

4 ग़ज़ल
ये फ़ासले भी, सात समन्दर से कम नहीं,
उसका ख़ुदा नहीं है, हमारा सनम नहीं |

कलियाँ थिरक रहीं हैं, हवाओं के साज़ पर,
अफ़सोस मेरे हाथ में काग़ज़ क़लम नहीं |

पी कर तो देख इसमें ही कुल कायनात है,
जामे-सिफ़ाल1 गरचे मिरा जामे-जम2 नहीं |

तुमको अगर नहीं है शऊरे-वफ़ा तो क्या,
हम भी कोई मुसाफ़िरे-दश्ते-अलम3 नहीं |

टूटे तो ये सुकूत4 का अ़ालम किसी तरह,
गर हाँ नहीं, तो कह दो ख़ुदा की क़सम,नहीं |

इक तू, कि लाज़वाल5 तिरी ज़ाते-बेमिसाल,
इक मैं के जिसका कोई वजूदो-अ़दम6 नहीं|

1. मिट्टी का प्याला 2. जमशेद बादशाह का,
वो प्याला जिसमें वो सारा संसार देखता था |
3. मुसीबतों के जंगल का राही 4. ख़ामोशी
5. अमिट 6. अस्तित्व एवं नश्वरता

5 ग़ज़ल
कभी वो शोख़ मेरे दिल की अंजुमन तक आये
मेरे ख़्याल से गुज़रे मेरे सुख़न1 तक आये

जो आफ़ताब थे ऐसा हुआ तेरे आगे
तमाम नूर समेटा तो इक किरन तक आये

कहे हैं लोग कि मेरी ग़ज़ल के पैकर2 से
कभी कभार तेरी ख़ुशबू-ए-बदन तक आये

जो तू नहीं तो बता क्या हुआ है रात गये
मेरी रगों में तेरे लम्स3 की चुभन तक आये

अब अश्क पोंछ ले जाकर कहो ये नरगिस4 को
अगर तलाशे-नज़र है मेरे चमन तक आये

तमाम रिश्ते भुलाकर मैं काट लंूगा इन्हें
अगर ये हाथ कभी मादरे-वतन तक आये

जो इश्क़ रूठ के बैठे तो इस तरह हो 'अना'
कि हुस्न आये मनाने तो सौ जतन तक आये

1 कवित्व 2 सांचा 3 स्पर्श 4 घने जगंल में खिलने वाला फूल


6 ग़ज़ल
ख़बर है दोनों को दोनों से दिल लगाऊँ मैं
किसे फ़रेब दूँ किस से फ़रेब खाऊँ मैं

नहीं है छत न सही आसमाँ तो अपना है
कहो तो चाँद के पहलू में लेट जाऊँ मैं

यही वो शय है कहीं भी किसी भी काम में लो
उजाला कम हो तो बोलो कि दिल जलाऊॅं मैं

नहीं नहीं ये तिरी ज़िद नहीं है चलने की
अभी अभी तो वो सोया है फिर जगाऊँ मैं

बिछड़ के उससे दुआ कर रहा हूँ अय मौला
कभी किसी की मुहब्बत न आज़माऊँ मैं

हर एक लम्हा नयापन हमारी फ़ितरत है
जो तुम कहो तो पुरानी ग़ज़ल सुनाऊँ मैं

7 ग़ज़ल
यूँ इस दिले नादाँ से रिश्तों का भरम टूटा
हो झूठी क़सम टूटी या झूठा सनम टूटा

सागर से उठीं आहें, आकाश पे जा पहुँचीं
बादल सा ये ग़म आख़िर बा दीदा-ए-नम टूटा

ये टूटे खंडहर देखे तो दिल ने कहा मुझसे
मसनूई1 ख़ुदाओं के अबरू का है ख़म टूटा

बाक़ी ही बचा क्या था लिखने के लिए उसको
ख़त फाड़ के भेजा है, अलफ़ाज़ का ग़म टूटा

उस शोख़ के आगे थे सब रंगे धनक फीके
वो शाख़े बदन लचकी तो मेरा क़लम टूटा

बेचोगे 'अना' अपनी बेकार की शय2लेकर
किस काम में आयेगा जमशेद3 का जम4टूटा

1 झूठे 2 चीज़ 3 एक बादशाह 4 उसका मशहूर प्याला

8 ग़ज़ल
ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र है
मैं डूबता सूरज हूं तू बहता समन्दर है

सोने का सनम था वो, सबने उसे पूजा है
उसने जिसे चाहा है वो रेत का पैकर है

जो दूर से चमके हैं वो रेत के ज़र्रे हैं
जो अस्ल में मोती है वो सीप के अन्दर है

दिल और भी लेता चल पहलू में जो मुमकिन हो
उस शोख के रस्ते में एक और सितमगर है

दो दोस्त मयस्सर हैं इस प्यार के रस्ते में
इक मील का पत्थर है, इक राह का पत्थर है

सब भूल गया आख़िर पैराक हुनर अपने
अब झील सी अंाखों में मरना ही मुक़द्दर है

अब कौन उठाएगा इस बोझ को किश्ती पर
किश्ती के मुसाफ़िर की अंाखों में समन्दर है

9 ग़ज़ल

दिल की हर धड़कन है बत्तिस मील में
हम ज़िले में और वो तहसील में

उसकी आराइश1 की क़ीमत कैसे दूँ
दिल को तोला नाक की इक कील में

कुछ रहीने मय2 नहीं मस्ते ख़राम
सब नशा है सैण्डिल की हील में

यक-ब-यक लहरों में दम सी आ गई
लड़कियों ने पाँव डाले झील में

उम्र अदाकारी में सारी कट गई
इक ज़रा से झूठ की तावील3 में

आप कहकर देखियेगा तो हुज़ूर
सर है ह़ाज़िर हुक्म की तामील में

सैकड़ों ग़ज़लें मुकम्मल हो गईं
इक अधूरे शेर की तकमील4 में

1 श्रंगार 2 शराब की अहसानमंद 3 बात घुमाना 4 पूरा करने की कोशिश

10. ग़ज़ल

खैंची लबों ने आह कि सीने पे आया हाथ
बस पर सवार दूर से उसने हिलाया हाथ

महफ़िल में यूँ भी बारहा उसने मिलाया हाथ
लहजा था ना-शनास1 मगर मुस्कुराया हाथ

फूलों में उसकी साँस की आहट सुनाई दी
बादे सबा2 ने चुपके से आकर दबाया हाथ

यूँ ज़िन्दगी से मेरे मरासिम3 हैं आज कल
हाथों में जैसे थाम ले कोई पराया हाथ

मैं था ख़मोश जब तो ज़बाँ सबके पास थी
अब सब हैं लाजवाब तो मैंने उठाया हाथ

1 अपरिचित 2 सुबह की खुश्बूदार हवा 3 तअल्लुक़ात
ana qasmi ki gazlin

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’



वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

कवि-शायर वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का परिचय
Kavi shayar virendra Khare Akela ka parichya
जन्म ः 18 अगस्त 1968 को छतरपुर
(म.प्र.) के किशनगढ़ ग्राम में
पिता ः स्व. श्री पुरूषोत्तम दास खरे
माता ः श्रीमती कमला देवी खरे
पत्नी ः श्रीमती प्रेमलता खरेjavascript:void(0)
शिक्षा ः एम.ए. (इतिहास), बी.एड.
लेखन विधा ः ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-
लेख, कहानी, समीक्षा आलेख
प्रकाशित ः 1. शेष बची चौथाई रात 1999
कृतियाँ (ग़ज़ल संग्रह)
2. सुबह की दस्तक 2006
(ग़ज़ल-गीत-कविता)
ः 3. दर्द छूमंतर (शीघ्र प्रकाश्य)
उपलब्धियाँ ः - वागर्थ, कथादेश सहित विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं
रचनाओं का प्रकाशन
- लगभग 22 वर्षों से आकाशवाणी छतरपुर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण
- आकाशवाणी द्वारा गायन हेतु
रचनाएं अनुमोदित
- ग़ज़ल संग्रह शेष बची चौथाई
रात पर अभियान जबलपुर द्वारा
‘हिन्दी भूषण’ अलंकरण
- अ.भा. साहित्य संगम उदयपुर
द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर
राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत
‘काव्य कौस्तुभ’ सम्मानोपाधि
-लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान
- अन्य कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित
सम्प्रति ः अध्यापन
सम्पर्क ः छत्रसाल नगर के पीछे, पन्ना रोड
छतरपुर (म.प्र.)पिन-471001
मोबा.नं.-09981585601


साहित्यकारों की नज़र में वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

कवि-शायर वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ मूलतः दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल परम्परा के शायर हैं उन्हें बुन्देलखण्ड में दूसरा दुष्यन्त कुमार कहा जाता है । अकेला ने आकाशवाणी, मंचों तथा प्रकाशित कृतियों
के माध्यम से काफी लोकप्रियता हासिल की है । उनके बारे में विभिन्न साहित्यकारों की राय इस प्रकार है

अकेला ने अपनी मूल छवि के अनुरूप आम लोगों के दुख दर्दों को समर्थ वाणी देने वाली हिन्दी ग़ज़लें कहकर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल परम्परा को तो आगे बढ़ाया ही है साथ ही उन्होंने पारम्परिक हिन्दी गीत विधा को भी कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक नया सर्वग्राही रूप प्रदान करने का सराहनीय कार्य किया है ।
-डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया

‘अकेला’ की ग़ज़लों में भरपूर शेरियत और तग़ज़्जुल है । छोटी बड़ी सभी प्रकार की बहरों मे उन्होंने नए नए प्रयोग किये हैं और वे खूब सफल भी हुए हैं । उनके शेरों में यह खूबी है कि वे खुद-ब-खुद होठों पर आ जाते हैं जैसे कि यह शेर-
इक रूपये की तीन अठन्नी मांगेगी
इस दुनिया से लेना-देना कम रखना

-पद्मश्री डॉ. गोपाल दास‘ नीरज’

‘अकेला’ की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समुन्दर में नयी हलचल पैदा करेगी ।

- डॉ. बशीर बद्र

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ वह सशक्त कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन की सच्ची तपती सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है । वे भाषा के ऐसे योद्धा व क़लम शस्त्रधारी हैं जो समाज में व्याप्त दुख-दर्दों, अभावों, असफलताओं को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भरते हैं । उनकी ग़ज़लों में नंगा यथार्थ कलात्मक ढंग से अद्भुत सौन्दर्य पा गया है । ‘अकेला’ की कविता आम आदमी के जीवन की कविता है ।

- डॉ. बहादुर सिंह परमार


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की कुछ प्रकाशित ग़ज़लें ( शेष बची चौथाई
रात ग़ज़ल संग्रह एवं सुबह की दस्तक ग़ज़ल एवं गीत संग्रह से)
Virendra khare ‘Akela’ ki kuchh ghazalen (ghazal sangrah Shesh bachi
Chauthai rat aur ghazal-geet sangrah ‘Subah ki dastak’ se )



1
भूल कर भेदभाव की बातें
आ करें कुछ लगाव की बातें

जाने क्या हो गया है लोगों को
हर समय बस दुराव की बातें

सैकड़ों बार पार की है नदी
वा रे काग़ज़ की नाव की बातें

है जो उपलब्ध उसकी बात करो
कष्ट देंगी अभाव की बातें

दो क़दम क़ाफ़िला चला भी नहीं
लो अभी से पड़ाव की बातें

तोड़ डाला है अल्प वर्षा ने
नदियाँ भूलीं बहाव की बातें

मेरे नासूर दरकिनार हुए
छा गयीं उनके घाव की बातें

ऐ ‘अकेला’ वो मोम के पुतले
कर रहे हैं अलाव की बातें

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

2
पहले तेरी जेब टटोली जाएगी
फिर यारी की भाषा बोली जाएगी

तेरी तह ली जाएगी तत्परता से
ख़ुद के मन की गाँठ न खोली जाएगी

नैतिकता की मैली होती ये चादर
दौलत के साबुन से धो ली जाएगी

टूटी इक उम्मीद पे ये मातम कैसा
फिर कोई उम्मीद संजोली जाएगी

कौन तुम्हारा दुख, अपना दुख समझेगा
दिखलाने को आँख भिगो ली जाएगी

कह दे, कह दे, फिर मुस्काकर कह दे तू
“तेरे ही घर मेरी डोली जाएगी”

झूठी शान ‘अकेला’ कितने दिन की है
एक ही बारिश में रंगोली जाएगी

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

3
झूठ पर कुछ लगाम है कि नहीं
सच का कोई मक़ाम है कि नहीं

आ रहे हैं बहुत से ‘पंडित’ भी
जाम का इन्तज़ाम है कि नहीं

इसकी उसकी बुराईयाँ हर पल
तुमको कुछ काम-धाम है कि नहीं

सुब्ह पर हक़ जताने वाले बता
मेरे हिस्से में शाम है कि नहीं

रोना रोते हो किस ग़रीबी का
घर में सब तामझाम है कि नहीं

इतना मिलना भी कम नहीं यारो
हो गई राम-राम है कि नहीं

हाथ का मैल ही सही पैसा
सारी दुनिया गुलाम है कि नहीं

इक नए ही लिबास में है ग़ज़ल
ये ‘अकेला’ का काम है कि नहीं

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

4
कहाँ ख़ुश देख पाती है किसी को भी कभी दुनिया
सुकूँ में देखकर हमको न कर ले ख़ुदकुशी दुनिया

ख़ता मुझसे जो हो जाये, नज़र अंदाज़ कर देना
कभी मत रूठ जाना तुम, तुम्हीं से है मेरी दुनिया

अरे नादाँ, बस अपने काम से ही काम रक्खा कर
तुझे क्या लेना-देना है बुरी हो या भली दुनिया

मिला है राम को वनवास, ईशू को मिली सूली
हुई है आज तक किसकी सगी ये मतलबी दुनिया

समय का फेर है सब, इसको ही तक़दीर कहते हैं
हुआ आबाद कोई तो किसी की लुट गयी दुनिया

जो पैसा हो तो सब अपने, न हो तो सब पराये हैं
ज़रा सी उम्र में ही मैंने यारो देख ली दुनिया

न हँसने दे, न रोने दे, न जीने दे, न मरने दे
करें तो क्या करें क्या चाहती है सरफिरी दुनिया

‘अकेला’ छोड़ दे हक़ बात पे अड़ने की ये आदत
सर आँखों पर बिठा लेगी तुझे भी आज की दुनिया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

5
वक्त ढल पाया नहीं है शाम का
चल पड़ा है सिलसिला आराम का

काम का आगाज़ हो पाया नहीं
ख़ौफ़ ले डूबा बुरे अंजाम का

प्यास दो ही घूंट में बुझ जाएगी
सारा दरिया है मेरे किस काम का

मयकशों की लिस्ट में मेरा शुमार
नाम तक लेता नहीं मैं जाम का


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

6
दूर से ही हाथ जोड़े हमने ऐसे ज्ञान से
जो किसी व्यक्तित्व का मापन करे परिधान से

डगमगाते हैं हवा के मंद झोंकों पर ही वो
किस तरह विश्वास हो टकराएंगे तूफ़ान से

देखकर चेहरा कठिन है आदमी पहचानना
है कहानी क्या, पता चलता नहीं उन्वान से

मूंद लीं आँखें हमी ने उनको कुछ लज्जा नहीं
बीच चौराहे पे वो नंगे खड़े हैं शान से

जो तुम्हें औरों को देना था वो क्या तुम दे चुके
हाँ में हो उत्तर तो फिर कुछ माँगना भगवान से

इतना धन मत जोड़ ले मत परिचितों से शत्रुता
जान का ख़तरा रहेगा खुद की ही संतान से

तितलियों को काग़ज़ी फूलों ने सम्मोहित किया
ऐ ‘अकेला’ फूल असली रह गए हैरान से

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

7


काम है जिनका रस्ते-रस्ते बम रखना
उनके आगे पायल की छमछम रखना

जो मैं बोलूँ आम तो वो बोले इमली
मुश्किल है उससे रिश्ता क़ायम रखना

दौलत के अंधों से उल्फ़त की बातें
दहके अंगारों पर क्या शबनम रखना

इक रूपये की तीन अठन्नी माँगेगी
इस दुनिया से लेना देना कम रखना

सच्चाई की रखवाली को निकले हो
सीने पर गोली खाने की दम रखना

शासन ही बतलाये-क्यों आवश्यक है
पीतल की अँगूठी में नीलम रखना

देखो यार, मुझे घर जल्दी जाना है
जाम में मेरे आज ज़रा सी कम रखना

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

8
बोले बग़ैर हिज्र का क़िस्सा सुना गया
सब दिल का हाल आपका चेहरा सुना गया

इस दौर में किसी को किसी का नहीं लिहाज़
बातें हज़ार अपना ही बेटा सुना गया

भूखे भले ही मरते, न करते उधारियाँ
सौ गालियाँ सवेरे से बनिया सुना गया

वो नाग है कि फन ही उठाता नहीं ज़रा
धुन बीन की हरेक सँपेरा सुना गया

दिल का सुकून छीनने आया था नामुराद
दिलचस्प एक क़िस्सा अधूरा सुना गया

उस रब के फै़सले का मुझे इन्तज़ार है
मुन्सिफ़ तो अपना फ़ैसला कब का सुना गया

क्यों मोम हो गई हैं ये पत्थर की मूरतें
क्या इनको अपना दर्द ‘अकेला’ सुना गया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

9
पूछो मत क्या हाल-चाल हैं
पंछी एक हज़ार जाल हैं

पथरीली बंजर ज़मीन है
बेधारे सारे कुदाल हैं

ऊँघे हैं गणितज्ञ नींद में
अनसुलझे सारे सवाल हैं

जिसकी हाँ में हाँ न मिलाओ
उसके ही अब नेत्र लाल हैं

होगी प्रगति पुस्तकालय की
मूषक जी अब ग्रथपाल हैं

मंज़िल तक वो क्या पहुँचेंगे
जो दो पग चल कर निढाल हैं

जस की तस है जंग ‘अकेला’
हाथों-हाथों रेतमाल हैं

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

10
दिन बीता लो आई रात
जीवन की सच्चाई रात

अक्सर नापा करती है
आँखों की गहराई रात

सारी रात पे भारी है
शेष बची चौथाई रात

मेरे दिन के बदले फिर
लो उसने लौटाई रात

नखरे सुब्ह के देखे हैं
कब हमसे शरमाई रात

बिस्तर-बिस्तर लेटी है
कितनी है हरजाई रात

सोए नहीं ‘अकेला’ तुम
फिर किस तरह बिताई रात

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

11

अरे नादान क्यों उलझा है तू चूल्हे बदलने में
ये गीली लकड़ियाँ हैं क्यों धुआँ देंगी न जलने में

तुम अपने झूठ को कितने दिनों आबाद रक्खोगे
समय लगता नहीं है बर्फ़ के ढेले पिघलने में

हमारे लड़खड़ाने पर हँसो मत ऐ जहाँ वालो
बहुत अभ्यस्त हैं हम लोग गिर गिर के सम्हलने में

तुम अपना उल्लू सीधा कर चुके हम कुछ नहीं बोले
तुम्हारा मुँह बना है क्यों हमारी दाल गलने में

ज़रा सा रेंगने में हाँफते हो, बैठ जाते हो
मुसीबत ही मुसीबत है तुम्हारे साथ चलने में

न जाने ज़िन्दगी के नाज़ नखरे कैसे झेलोगे
तुम्हारा हौसला है पस्त बच्चे के मचलने में

xq:j इस रात का भी टूटने पर आ गया देखो
ज़रा सी देर है अब तो ‘अकेला’ दिन निकलने में

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


12
रूठा हुआ है मुझसे इस बात पर ज़माना
शामिल नहीं है मेरी फ़ितरत में सर झुकाना

मुझे मौत से डरा मत, कई बार मर चुका हूँ
किसी मौत से नहीं कम कोई ख़्वाब टूट जाना

हमको तो दिख रहे हैं हालात साजिशों के
पत्थर जता रहे हैं शीशे से दोस्ताना

तुझे याद करते रहना भाता है दिल को वरना
तुझको भुला भी देते गर चाहते भुलाना

आए थे बनके मेहमाँ जाने का नाम भूले
भाया ग़मों को बेहद मेरा ग़रीबख़ाना

दर्दों की धूप आखि़र अब क्या बिगाड़ लेगी
हमको तो मिल गया है ग़ज़लों का शामियाना

ग़फ़लत हमें ‘अकेला’ फिर पड़ गई है मंहगी
हम जब तलक पहुँचते ‘बस’ हो गई रवाना

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


13
न जाने क्यों तेरी यारी में उलझे
ग़मों की हम ख़रीदारी में उलझे

मरीज़ों का है अब भगवान मालिक
कि चारागर ही बीमारी में उलझे

पढ़ें क्या, तय नहीं कर पा रहे हैं
किताबों वाली अलमारी में उलझे

अभी हैं इम्तहानों के बहुत दिन
अभी से कौन तैयारी में उलझे

अकल आने लगी है अब ठिकाने
कि आटा, दाल, तरकारी में उलझे

हिमाक़त की ज़रूरत थी जहाँ पर
वहाँ नाहक़ समझदारी में उलझे

तुम्हें भी शायरी आने लगेगी
बशर्ते दिल न मक्कारी में उलझे
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


14
कौन कहता है कि हम मर जाएँगे
ज़ख़्म गहरे ही सही भर जाएँगे

स्वर्ग में भी होगी कुछ उनकी जुगाड़
पाप कर कर के भी वो तर जाएँगे

मानता हूँ हैं ये नालायक़ बहुत
अपने ही बच्चे हैं किस पर जाएँगे

प्रश्न करके इस क़दर तू खु़श न हो
सर से ऊपर सारे उत्तर जाएँगे

कट गई है ज़िन्दगी ये सोचते
आने वाले दिन तो बेहतर जाएँगे

घोषणाएँ कुछ नई नारे नए
और क्या मंत्री जी देकर जाएँगे

आदमी पर है कोई दानव सवार
किस तरह ये ख़ूनी मंज़र जाएँगे

ये ‘अकेला’ की ग़ज़ल के शेर हैं
तीर जैसे दिल के अंदर जाएँगे

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


15
आज कल तो रास्ता अँधे भी दिखलाने लगे
लो अँधेरे रौशनी का मर्म समझाने लगे

मंदिरो-मस्जिद में हर दिन भीड़ बढ़ती जा रही
इम्तिहानों के दिवस नज़दीक जो आने लगे

मेरे बेटे नौकरी तुझको तो मिलने से रही
खोल गुमटी पान की बाबू जी समझाने लगे

हैं विवश हम आप पर विश्वास करने के लिए
व्यर्थ ही क़समों पे क़समें आप क्यों खाने लगे

कैसे समझायें परिंदों को शिकारी हम नहीं
दान के दाने भी वो खाने से कतराने लगे

ये न भूलो, हमने ही तुमको बग़ल में दी जगह
यार तुम तो बैठते ही हमको धकियाने लगे

ऐ ‘अकेला’ अब तो बेशर्मी की भी हद हो गई
जन्म के झूठे हमें सच्चाई सिखलाने लगे


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


16
फिर बढ़ाना द्वार पे पाबंदियाँ
पहले सुधरा लो ये टूटी खिड़कियाँ

दौड़ने के गुर सिखाए किसलिए
पाँव में गर डालनी थीं बेड़ियाँ

वक़्त पर बिजली तो अक्सर ही गई
काम आयीं घासलेटी डिब्बियाँ

देखकर मुझको ख़ुशी के मूड में
चढ़ गयीं ज़ालिम समय की त्यौरियाँ

प्रार्थना करिए दरख़्तों के लिए
हैं सक्रिय छैनी, हथौड़े, आरियाँ

यार तू भी दूध का धोया कहाँ
हैं अगर मुझमें बहुत सी ख़ामियाँ

इस महीने सारा वेतन खा गए
बच्चों के बस्ते, किताबें, कॉपियाँ

बिन तुम्हारे ज़िन्दगी बीती है यूँ
ज्यौं फटे कंबल में बीतें सर्दियाँ

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


17

मुझको आज मिली सच्चाई
सहमी-सहमी और घबराई

भूल गया मुझको वो ऐसे
जैसे भूले लोग भलाई

ताक़ पे जो ईमान रखे हैं
छान रहे वो दूध मलाई

मैले गमछों की पीड़ाएँ
क्या समझेगी उजली टाई

राहे उल्फ़त सँकरा परबत
और बिछी है उस पर काई

सुनकर वो मेरी सब उलझन
बोला मैं चलता हूँ भाई

दुख जीवन में गेंद के जितना
सुख इतना जैसे हो राई

हाले दिल मत पूछ ‘अकेला’
कुआँ सामने, पीछे खाई

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

18
तबीयत हमारी है भारी सुबह से
कि याद आ गई है तुम्हारी सुबह से

न थी घर में चीनी तो कल ही बताती
करेगा न बनिया उधारी सुबह से

बता दे कि हम ख़ुद ही सोए थे भूखे
खड़ा अपने द्वारे भिखारी सुबह से

न उसकी हमारी अदावत पे जाओ
हुआ रात झगड़ा, तो यारी सुबह से

हुआ अपशगुन ये कि इक नेता जी पे
नज़र पड़ गई है हमारी सुबह से

परिन्दों की दहशत है वाजिब ‘अकेला’
खडे हर तरफ़ हैं शिकारी सुबह से

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


19
कब होती है कोई आहट
चुपके से आता है संकट

अक्सर जल बिखरा रहता है
तेरी आँखें हैं या पनघट

तेरे बिन मैं तड़प रहा हूँ
होगी तुझको भी अकुलाहट

कैसे आए नींद कि दिल में
है उसकी यादों की खटपट

कहते थे मैं नौसीखा हूँ
पूरी बोतल पी ली गट-गट

एक ज़रा सा दिल बेचारा
और ज़माने भर के झंझट

क्यों करते हो फ़िक्र ‘अकेला’
वक्त भी आखि़र लेगा करवट

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

20
कोई मंज़र नज़र को भाता नहीं
तेरा चेहरा भी याद आता नहीं

क्या हसीं ख़्वाब बीच में टूटा
काश कुछ देर तू जगाता नहीं

कितना काँटों से डर गया है वो
हाथ फूलों को अब लगाता नहीं

एक ये भी है चाँद में ख़ूबी
दाग़ चेहरे के वो छिपाता नहीं

रिश्ते आते कहाँ हैं उसके लिए
लड़का अच्छा है पर कमाता नहीं

कुछ तो होगा मेरे खुदा तुझमें
मैं कहीं भी तो सर झुकाता नहीं

मयकशी कब की छोड़ बैठा हूँ
पीने-पाने से दर्द जाता नहीं

बात ‘अकेला’ की और है वरना
दर्द में कोई मुस्कुराता नहीं
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

21
हमने कर ली सफ़र की तैयारी
ये न पूछो किधर की तैयारी

बिछ गए हैं उधर की अंगारे
हमने की है जिधर की तैयारी

एक गाड़ी थी वो भी छूट गई
खा गई हमसफ़र की तैयारी

टूटे दिल को ज़रा तो जुड़ने दो
करना फिर तुम क़हर की तैयारी

मछलियाँ किस तरह यक़ीं कर लें
होगी हित में ‘मगर’ की तैयारी

यार मेरे मुझे तो ले डूबी
कुछ इधर कुछ उधर की तैयारी

ऐ ‘अकेला’ वो फिर नहीं आए
की गई दुनिया भर की तैयारी

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


22
बढ़ते उपचारों का युग है
फिर भी बीमारों का युग है

गै़रों की सत्ता से बद्तर
अपनी सरकारों का युग है

कर्तव्यों का भान किसे हो
ये तो अधिकारों का युग है

हो पाता सच नहीं उजागर
कैसा अख़बारों का युग है

हम उल्फ़त की बात करेंगे
माना तलवारों का युग है

घर-घर, आँगन-आँगन उठतीं
पक्की दीवारों का युग है

क्रय-विक्रय में सिमटा जीवन
मंडी-बाज़ारों का युग है

बच कर रहना ज़रा ‘अकेला’
झूठों-मक्कारों का युग है

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


23
उठती शंकाओं पर सोच-विचार बहुत आवश्यक है
इस बीमार व्यवस्था का उपचार बहुत आवश्यक है

अधिकारों की ख़ातिर तुम संघर्ष करो, पर ध्यान रहे
तुम नारी हो मर्यादित व्यवहार बहुत आवश्यक है

सागर की यात्रा को तत्पर नाविक पूछ रहा देखो
क्या नौका तैराने को पतवार बहुत आवश्यक है

दम घुट जाएगा तुम इतने भी यथार्थवादी न बनो
जीना है तो सपनों का संसार बहुत आवश्यक है

धर्म तुम्हारा कुछ भी बोले, मानवता ये कहती है
उस विधवा लड़की का फिर सिंगार बहुत आवश्यक है

प्रेयसि! दुनिया बहुत बुरी है और फिर बाहर चलना है
क्या गर्दन पर ये सोने का हार बहुत आवश्यक है

काफी कर ली है जनसेवा कृपा करें अब रहने दें
नेता जी, क्या देश पे ये उपकार बहुत आवश्यक है

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


24
दर्द सैकड़ों दिल की दास्तान से गुज़रे
वो गली से गुज़रे पर बदगुमान से गुज़रे

पंख जल गये सबके, जिस्म हो गये ज़ख़्मी
ये परिन्दे ख़्वाबों के किस उड़ान से गुज़रे

मुस्कुरा दिया तुमने मुझको मिल गई जन्नत
सैकड़ों महकते गुल जिस्मो-जान से गुज़रे

देश की तरक़्क़ी का उसने ज़िक्र छेड़ा तो
भीख मांगते बच्चे मेरे ध्यान से गुज़रे

तौबा, हुस्नवालों से दोस्ती ! अरे तौबा
कौन हर घड़ी हर पल इम्तिहान से गुज़रे

तुझसे क्या गिला या रब ये करम भी क्या कम है
ज़िन्दगी के कुछ लम्हे इत्मीनान से गुज़रे

ऐ ‘अकेला’ राहे-दिल जगमगा सी उट्ठी है
दर्द के मुसाफिर भी कैसी शान से गुज़रे

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


25
इस दौर में ईमान जिसके पास होता है
देखा गया है उसका ही उपहास होता है

कुछ भी नहीं है आज खाने के लिए तो क्या
सेहत की ख़ातिर लाज़मी उपवास होता है

कोई भले ही ऐ ख़ुदा समझे वहम तुझको
मुझको मुसीबत में तेरा आभास होता है

दशरथ विवश होते हैं जब कैकेई के सम्मुख
हर हाल में तब राम का वनवास होता है

कुछ पंक्तियाँ पढ़ के ही यारो हमने ये जाना
जीवन की कविता में तो दुख अनुप्रास होता है

अब क्या करें, क्या जान दे दें, आप ही कहिए
हम पर न कैसे भी उन्हें विश्वास होता है

महफ़िल में उसको दाद यूँ ही तो नहीं मिलती
कुछ तो ‘अकेला’ की ग़ज़ल में ख़ास होता है

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


26
ज़हन में हर घड़ी सिक्कों की ही झंकार ठहरे
तुम्हारे दिल में ठहरे भी तो कैसे प्यार ठहरे

बनें सम्बन्ध कैसे दोस्ताना सोचिए तो
कि मैं पानी हूँ वो दहके हुए अंगार ठहरे

बहुत बेताब है इज़हार को ये दिल की हसरत
कि आखि़रकार कब तक म्यान में तलवार ठहरे

सहेजे कौन हमको और आखि़र क्यों सहेजे
विगत तारीख़ के हम फ़ा़लतू अख़बार ठहरे

ये तेरी नौकरी दुख की बड़ी बेजा है मालिक
कि इसमें क्यों नहीं सुख का कोई इतवार ठहरे

वो झुकते क्यों उन्हें तो थी बहुत पैसों की गरमी
झुके हम भी नहीं, हम भी तो फिर फ़नकार ठहरे

‘अकेला’ कामयाबी चूमती तेरे क़दम भी
मगर तू है कि ना लब पर तेरे मनुहार ठहरे

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


27
आँसुओं को बवाल समझा गया
कब यहाँ दिल का हाल समझा गया

अपने लोगों की थीं करामातें
जिनको दुश्मन की चाल समझा गया

वो ख़फ़ा हैं कि घूसखोरी को
कैसे फोकट का माल समझा गया

हम जो सम्हले तो उँगलियाँ उट्ठीं
गिर पड़े तो कमाल समझा गया

साध ली फिर जवाब पर चुप्पी
कैसे समझें सवाल समझा गया

काम आए ये फ़ालतू काग़ज़
मेरी पॉकिट में माल समझा गया

तेरे बिन दिन सदी से गुज़रे हैं
लम्हे लम्हे को साल समझा गया
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


28
दर्दे-दिल पहुँचेगा अब अंजाम तक
इक ग़ज़ल काग़ज़ पे होगी शाम तक

आ नहीं पाया हवा दुश्मन हुई
उसका फेंका ख़त हमारे बाम तक

कुछ तो वो सामान भी चोरी गया
चुक नहीं पाए थे जिसके दाम तक

सैकड़ों रावन अभी मौजूद हैं
बात पहुँचा दे ये कोई राम तक

दौर ये सच्चों पे इल्ज़ामों का है
सोच मत मुझ पर लगे इल्ज़ाम तक

दिल पे पत्थर रख के कहना ही पड़ा
भूल जाना तुम हमारा नाम तक

मयकशों के साथ रहता हूँ तो क्या
लब कभी पहुँचे नहीं हैं जाम तक

ऐ ‘अकेला’ बस उसी का राज है
ख़्वाब से लेकर ख़याले-ख़ाम तक

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

29
आराम के, सुकून के राहत के चार दिन
या रब अता हों तेरी इनायत के चार दिन

अब ये न पूछ कैसे कटे हैं तेरे बग़ैर
कट ही गये हैं तेरी ज़रूरत के चार दिन

पगले तू ज़िन्दगी के किसी काम का नहीं
भारी पड़े हैं तुझको मुसीबत के चार दिन

मर्ज़ी किसी से वक्त ने पूछी कहाँ कभी
किसको मिले हैं अपनी तबीयत के चार दिन

मुजरिम समझ के दे दे सज़ा या बरी ही कर
बहला न मुझको देके ज़मानत के चार दिन

दर्दों का दौर ख़त्म भी होगा, यक़ीन रख
होते कहाँ हैं एक सी सूरत के चार दिन

ये तो बता ‘अकेला’ जो गुज़रे सुकून से
ख़्वाबों के थे या थे वो हक़ीक़त के चार दिन
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


30
जो खुलकर अपनी भी ख़ामी कहते हैं
हम ख़ुद को उनका अनुगामी कहते हैं

चटकी छत, हिलती दीवारें, टूटा दर
आप हमें किस घर का स्वामी कहते हैं

तुम बोलो इस देश की संसद को संसद
हम तो उसे सांपों की बामी कहते हैं

हमसे ज़िन्दा है उल्फ़त का कारोबार
लोग हमें दिल का आसामी कहते हैं

अच्छा है क्या ख़ुद की खिल्ली उड़वाना
क्यों सबसे अपनी नाकामी कहते हैं

मत बोलो हल्के हैं शेर ‘अकेला’ के
जाने क्या क्या शायर नामी कहते हैं
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


31
चिकित्सकों को मैं यारो बीमार समझ में ना आया
सच्चाई ये है उनको उपचार समझ में ना आया

गै़रों के बर्तावों पर मैं बोलूँ भी तो क्या बोलूँ
मुझको तो अपनों का ही व्यवहार समझ में ना आया

यदि सच्चे हैं अमन, चैन, खुशहाली के दावे तो फिर
मचा हुआ है क्यों ये हाहाकार समझ में ना आया

कभी मित्रता प्रकटित करना, कभी किनारा कर जाना
उसके मन में क्या है आखि़रकार समझ में ना आया

वो कर्तव्यों की परिभाषा बतलाने में हिचके हैं
मैं ऐसा जिसको अपना अधिकार समझ में ना आया

इष्ट मित्र को भद्दी गाली देकर सम्बोधित करना
अपनेपन का मुझको ये इज़हार समझ में ना आया

तेरे जाने पर यूँ मेरी आँख नहीं गीली होती
हां लेकिन मुझको गीता का सार समझ में ना आया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


32
छल किया है छल मिलेगा आपको
और क्या प्रतिफल मिलेगा आपको

अब कहाँ वो आपसी सद्भावना
हर कहीं दंगल मिलेगा आपको

मित्र, ये नदिया है भ्रष्टाचार की
कैसे इसका तल मिलेगा आपको

हर कहीं, हर सिम्त दौलत के लिए
आदमी पागल मिलेगा आपको

जिसको भी दुखड़ा सुनाएंगे वही
आँख से ओझल मिलेगा आपको

आप ही बस वक्त के मारे नहीं
हर कोई घायल मिलेगा आपको

दुख में पढ़िएगा ‘अकेला’ की ग़ज़ल
देखिएगा बल मिलेगा आपको

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

33
गुज़रेंगे इस चमन से तूफ़ान और कितने
रूठे रहेंगे हमसे भगवान और कितने

अब हाल पर हमारे तुम हमको छोड़ भी दो
लेते फिरंे तुम्हारे अहसान और कितने

नेता, वकील, पंडित, मुल्ला, समाज सेवक
बदलेगा रूप आखि़र शैतान और कितने

हमें तोड़ने की ख़ातिर, हमें लूटने की ख़ातिर
हमसे करेंगे आखि़र पहचान और कितने

आँसू, अभाव, विपदा, आहें, घुटन, हताशा
बदलेगी दिल की पुस्तक उन्वान और कितने

जो सुख नहीं रहे तो दुख भी नहीं रहेंगे
किसी एक घर रूकेंगे मेहमान और कितने

दिन की तरह कोई दिन निकले भी अब ‘अकेला’
होंगे तिमिर के बंदी दिनमान और कितने

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

34
कभी कुछ ग़म भी हो हरदम ख़ुशी अच्छी नहीं होती
हमेशा एक जैसी ज़िन्दगी अच्छी नहीं होती

उसे पाकर तुम अपने आप को भी भूल बैठे हो
किसी पर इतनी भी दीवानगी अच्छी नहीं होती

कभी भी दोस्ती के हक़ में सोचा ही नहीं तुमने
किसे समझा रहे हो दुश्मनी अच्छी नहीं होती

उदासी आपके चेहरे की छा जाती है शेरों पर
ज़रा तो मुस्कुरा दो, शायरी अच्छी नहीं होती

मुकम्मल प्यास तो जागे यहीं फूटेंगे सौ झरने
अधूरी है, अधूरी तिश्नगी अच्छी नहीं होती

तुम्हारे ख़त पे ख़त आते हैं पर मैं आ नहीं सकता
बस इतने के लिए ही नौकरी अच्छी नहीं होती

भटकता है कहाँ हरदम ‘अकेला’ छोड़कर मुझको
मेरे दिल इस क़दर आवारगी अच्छी नहीं होती

बहुत से मामलों में तंगदिल होना ही अच्छा है
‘अकेला’ हर कहीं दरियादिली अच्छी नहीं होती

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


35
मुजरिमों से भी बुरी मुन्सिफ़ों की हेटी हुई
खुल गई रील रहस्यों की जब लपेटी हुई

वक्त पड़ने पे किनारा वो कर गया ऐसे
जैसे बिल्ली हो कोई श्वान की चहेटी हुई

किस क़दर होने लगी हैं मिलावटें तौबा
दुश्मनी भी तो मिली दोस्ती में फेंटी हुई

हाँ या ना कहने में बरसों लगा दिए मेडम
ये ज़्बाँ आपकी सरकारिया कमेटी हुई

खीज उठी सास-‘लगे अस्पताल में आगी
जाँच में बेटा बताया था और बेटी हुई

शाम ढलते ही बढ़ी होगी और बेचैनी
गिन रही होगी सितारे वो छत पे लेटी हुई

एक से एक नज़ारे हैं देखने लायक़
फैलने भी दे ज़रा ये नज़र समेटी हुई

ऐ ‘अकेला’ कोई ‘सुकरात’ भी नहीं है तू
जाने किस बात पे दुनिया है तुझसे चेंटी हुई


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

36
पत्थर को पिघलाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है
वन में दीप जलाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

तुम बेदर्द ज़माने के सांचे में ढली इक मूरत हो
इक परबत सरकाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

तुम दौलत के अनुबंधन पर जीवन जीने के आदी
जल पर चित्र बनाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

स्वारथ के विद्यालय में तुमने बरसों शोषण सीखा
गरल पियूष बनाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

तुमने सुखभोगों के हित में शुभ मनभावों को मारा
मृत में प्राण जगाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

भौतिक लाभों से चिर प्रेरित कर्मों में तुम डूबे हो
पश्चिम-सूर्य उगाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

निष्फल सारे यत्न ‘अकेला’, सच बोलूँ तो गूंगे से
कोई गीत गवाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

37
इक ख़्वाब ले रहा है ऊँची उड़ान फिर
थामे समय खड़ा है तीरो-कमान फिर

मन का कृषक न कैसे पाले उदासियाँ
उत्पादनों से ज़्यादा बैठा लगान फिर

सच था अगर बयाँ तो मुन्सिफ़ के सामने
क्यों लड़खड़ा रही थी तेरी ज़बान फिर

रोका न था, हवेली हक़ मांगने न जा
ले मिल गए बदन को नीले निशान फिर

सुख तो बरफ़ सा घुल कर ढेले सा रह गया
दुख है कि हो चला है परबत समान फिर

सूरज तो है तमाशा बस दिन का दोस्तो
नन्हें से जुगनुओं ने दाग़ा बयान फिर

हरदम ‘अकेला’ तेरे मन की कहाँ से हो
सर पे उठा रखा है क्यों आसमान फिर

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’



38

सूर्य से भी पार पाना चाहता है
इक दिया विस्तार पाना चाहता है

देखिए, इस फूल की ज़िद देखिए तो
पत्थरों से प्यार पाना चाहता है

किस क़दर है सुस्त सरकारी मुलाज़िम
रोज़ ही इतवार पाना चाहता है

अम्न की चाहत यहाँ है हर किसी को
हर कोई तलवार पाना चाहता है

इक सपन साकार हो जाये बहुत है
हर सपन साकार पाना चाहता है

फूलबाई कब, कहाँ, कैसे लुटी थी
ये ख़बर अख़बार पाना चाहता है

मैं तेरी ख़ातिर उपस्थित हो गया हूँ
और क्या उपहार पाना चाहता है
जिसका मिल पाना असम्भव है ‘अकेला’
दिल वही हर बार पाना चाहता है


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


39
फिर पुरानी राह पर आना पड़ेगा
उसको हिन्दी में ही समझाना पड़ेगा

गर्म है पॉकिट तुम्हारी बच के जाना
लुट न जाना राह में थाना पड़ेगा

कोयलो, फ़रमान जारी हो गया है
साथ कौवों के तुम्हें गाना पड़ेगा

इस मुहल्ले में मकाँ मुझको दिला दे
इस जगह से पास मयख़ाना पड़ेगा

किसको फु़रसत है हुनर देखे तुम्हारा
तुमको ख़ुद मैदान में आना पड़ेगा

आईनो, ख़ुद को ज़रा मज़बूत कर लो
पत्थरों से तुमको टकराना पड़ेगा

ऐ ‘अकेला’ होगी बहुतों से बुराई
पर लबों पे सच हमें लाना पड़ेगा


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

40
इस तरह से बात मनवाने का चक्कर छोड़ दे
देख तू सीधी तरह से मेरा कालर छोड़ दे

झूठ, मक्कारी तजें नेता जी मुमकिन ही कहाँ
नाचना, गाना-बजाना कैसे किन्नर छोड़ दे

अपने होठों से ज़रा छू ले मेरे प्याले के होंठ
चाय कुछ फीकी सी है थोड़ी सी शक्कर छोड़ दे

न्याय की ख़ातिर वो अपना सर कटा भी ले मगर
घर की ज़िम्मेदारियों को किसके सर पर छोड़ दे

इम्तहानों के ये दिन और इश्क़ है सर पर सवार
ये न हो कि मेरे चक्कर में वो पेपर छोड़ दे

नींद माना है अधूरी शब मगर पूरी हुई
काम पर निकले हैं पंछी तू भी बिस्तर छोड़ दे

कुछ समझ में ही नहीं आता तो अक्कल मत लड़ा
ऐसे हालातों में सब उस रब के ऊपर छोड़ दे

ऐ ‘अकेला’ दुनियाभर से मोल मत ले दुश्मनी
हक़बयानी छोड़ दे, ये तीखे तेवर छोड़ दे


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

41
उमीदों के कई रंगीं फ़साने ढूँढ़ लेते हैं
जिन्हें जीना है जीने के बहाने ढूँढ़ लेते हैं

न सूझे है कहाँ जाकर छुपूँ कैसे बचूँ इनसे
ये बैरी ग़म मेरे सारे ठिकाने ढूंढ़ लेते हैं

हम उनसे दोस्ती का इक बहाना ढूंढ़ते जब तक
वो तब तक दुश्मनी के सौ बहाने ढूंढ़ लेते हैं

ख़फ़ा है हमसे ये दुनिया हमारा है क़ुसूर इतना
समझदारी से हम कुछ पल सुहाने ढूंढ़ लेते हैं

मेरी बातों का अक्सर मान जाते हैं बुरा यूँ ही
वो जाने क्या मेरे लफ़्ज़ों के माने ढूंढ़ लेते हैं

किसी से उनको क्या मतलब, मगर हाँ वक्त पड़ने पर
ज़माने भर से अपने दोस्ताने ढूँढ़ लेते हैं

करो मत फ़िक्र, वो दो वक्त की रोटी जुटा लेगा
परिन्दे भी ‘अकेला’ चार दाने ढूँढ़ लेते हैं

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

virendra khare akela ki gazlin,

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’
कवि-शायर वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का परिचय
Kavi shayar virendra Khare Akela ka parichya
जन्म ः 18 अगस्त 1968 को छतरपुर
(म.प्र.) के किशनगढ़ ग्राम में
पिता ः स्व. श्री पुरूषोत्तम दास खरे
माता ः श्रीमती कमला देवी खरे
पत्नी ः श्रीमती प्रेमलता खरे
शिक्षा ः एम.ए. (इतिहास), बी.एड.
लेखन विधा ः ग़ज़ल, गीत, कविता, व्यंग्य-
लेख, कहानी, समीक्षा आलेख
प्रकाशित ः 1. शेष बची चौथाई रात 1999
कृतियाँ (ग़ज़ल संग्रह)
2. सुबह की दस्तक 2006
(ग़ज़ल-गीत-कविता)
ः 3. दर्द छूमंतर (शीघ्र प्रकाश्य)
उपलब्धियाँ ः - वागर्थ, कथादेश सहित विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं
रचनाओं का प्रकाशन
- लगभग 22 वर्षों से आकाशवाणी छतरपुर से रचनाओं का निरंतर प्रसारण
- आकाशवाणी द्वारा गायन हेतु
रचनाएं अनुमोदित
- ग़ज़ल संग्रह शेष बची चौथाई
रात पर अभियान जबलपुर द्वारा
‘हिन्दी भूषण’ अलंकरण
- अ.भा. साहित्य संगम उदयपुर
द्वारा काव्य कृति ‘सुबह की दस्तक’ पर
राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान के अन्तर्गत
‘काव्य कौस्तुभ’ सम्मानोपाधि
-लायन्स क्लब द्वारा ‘छतरपुर गौरव’ सम्मान
- अन्य कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित
सम्प्रति ः अध्यापन
सम्पर्क ः छत्रसाल नगर के पीछे, पन्ना रोड
छतरपुर (म.प्र.)पिन-471001
मोबा.नं.-09981585601


साहित्यकारों की नज़र में वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

कवि-शायर वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ मूलतः दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल परम्परा के शायर हैं उन्हें बुन्देलखण्ड में दूसरा दुष्यन्त कुमार कहा जाता है । अकेला ने आकाशवाणी, मंचों तथा प्रकाशित कृतियों
के माध्यम से काफी लोकप्रियता हासिल की है । उनके बारे में विभिन्न साहित्यकारों की राय इस प्रकार है

अकेला ने अपनी मूल छवि के अनुरूप आम लोगों के दुख दर्दों को समर्थ वाणी देने वाली हिन्दी ग़ज़लें कहकर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल परम्परा को तो आगे बढ़ाया ही है साथ ही उन्होंने पारम्परिक हिन्दी गीत विधा को भी कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक नया सर्वग्राही रूप प्रदान करने का सराहनीय कार्य किया है ।
-डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया

‘अकेला’ की ग़ज़लों में भरपूर शेरियत और तग़ज़्जुल है । छोटी बड़ी सभी प्रकार की बहरों मे उन्होंने नए नए प्रयोग किये हैं और वे खूब सफल भी हुए हैं । उनके शेरों में यह खूबी है कि वे खुद-ब-खुद होठों पर आ जाते हैं जैसे कि यह शेर-
इक रूपये की तीन अठन्नी मांगेगी
इस दुनिया से लेना-देना कम रखना

-पद्मश्री डॉ. गोपाल दास‘ नीरज’

‘अकेला’ की ग़ज़ल वो लहर है जो ग़ज़ल के समुन्दर में नयी हलचल पैदा करेगी ।

- डॉ. बशीर बद्र

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ वह सशक्त कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन की सच्ची तपती सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है । वे भाषा के ऐसे योद्धा व क़लम शस्त्रधारी हैं जो समाज में व्याप्त दुख-दर्दों, अभावों, असफलताओं को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भरते हैं । उनकी ग़ज़लों में नंगा यथार्थ कलात्मक ढंग से अद्भुत सौन्दर्य पा गया है । ‘अकेला’ की कविता आम आदमी के जीवन की कविता है ।

- डॉ. बहादुर सिंह परमार


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ की कुछ प्रकाशित ग़ज़लें ( शेष बची चौथाई
रात ग़ज़ल संग्रह एवं सुबह की दस्तक ग़ज़ल एवं गीत संग्रह से)
Virendra khare ‘Akela’ ki kuchh ghazalen (ghazal sangrah Shesh bachi
Chauthai rat aur ghazal-geet sangrah ‘Subah ki dastak’ se )



1
भूल कर भेदभाव की बातें
आ करें कुछ लगाव की बातें

जाने क्या हो गया है लोगों को
हर समय बस दुराव की बातें

सैकड़ों बार पार की है नदी
वा रे काग़ज़ की नाव की बातें

है जो उपलब्ध उसकी बात करो
कष्ट देंगी अभाव की बातें

दो क़दम क़ाफ़िला चला भी नहीं
लो अभी से पड़ाव की बातें

तोड़ डाला है अल्प वर्षा ने
नदियाँ भूलीं बहाव की बातें

मेरे नासूर दरकिनार हुए
छा गयीं उनके घाव की बातें

ऐ ‘अकेला’ वो मोम के पुतले
कर रहे हैं अलाव की बातें

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

2
पहले तेरी जेब टटोली जाएगी
फिर यारी की भाषा बोली जाएगी

तेरी तह ली जाएगी तत्परता से
ख़ुद के मन की गाँठ न खोली जाएगी

नैतिकता की मैली होती ये चादर
दौलत के साबुन से धो ली जाएगी

टूटी इक उम्मीद पे ये मातम कैसा
फिर कोई उम्मीद संजोली जाएगी

कौन तुम्हारा दुख, अपना दुख समझेगा
दिखलाने को आँख भिगो ली जाएगी

कह दे, कह दे, फिर मुस्काकर कह दे तू
“तेरे ही घर मेरी डोली जाएगी”

झूठी शान ‘अकेला’ कितने दिन की है
एक ही बारिश में रंगोली जाएगी

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

3
झूठ पर कुछ लगाम है कि नहीं
सच का कोई मक़ाम है कि नहीं

आ रहे हैं बहुत से ‘पंडित’ भी
जाम का इन्तज़ाम है कि नहीं

इसकी उसकी बुराईयाँ हर पल
तुमको कुछ काम-धाम है कि नहीं

सुब्ह पर हक़ जताने वाले बता
मेरे हिस्से में शाम है कि नहीं

रोना रोते हो किस ग़रीबी का
घर में सब तामझाम है कि नहीं

इतना मिलना भी कम नहीं यारो
हो गई राम-राम है कि नहीं

हाथ का मैल ही सही पैसा
सारी दुनिया गुलाम है कि नहीं

इक नए ही लिबास में है ग़ज़ल
ये ‘अकेला’ का काम है कि नहीं

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

4
कहाँ ख़ुश देख पाती है किसी को भी कभी दुनिया
सुकूँ में देखकर हमको न कर ले ख़ुदकुशी दुनिया

ख़ता मुझसे जो हो जाये, नज़र अंदाज़ कर देना
कभी मत रूठ जाना तुम, तुम्हीं से है मेरी दुनिया

अरे नादाँ, बस अपने काम से ही काम रक्खा कर
तुझे क्या लेना-देना है बुरी हो या भली दुनिया

मिला है राम को वनवास, ईशू को मिली सूली
हुई है आज तक किसकी सगी ये मतलबी दुनिया

समय का फेर है सब, इसको ही तक़दीर कहते हैं
हुआ आबाद कोई तो किसी की लुट गयी दुनिया

जो पैसा हो तो सब अपने, न हो तो सब पराये हैं
ज़रा सी उम्र में ही मैंने यारो देख ली दुनिया

न हँसने दे, न रोने दे, न जीने दे, न मरने दे
करें तो क्या करें क्या चाहती है सरफिरी दुनिया

‘अकेला’ छोड़ दे हक़ बात पे अड़ने की ये आदत
सर आँखों पर बिठा लेगी तुझे भी आज की दुनिया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

5
वक्त ढल पाया नहीं है शाम का
चल पड़ा है सिलसिला आराम का

काम का आगाज़ हो पाया नहीं
ख़ौफ़ ले डूबा बुरे अंजाम का

प्यास दो ही घूंट में बुझ जाएगी
सारा दरिया है मेरे किस काम का

मयकशों की लिस्ट में मेरा शुमार
नाम तक लेता नहीं मैं जाम का


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

6
दूर से ही हाथ जोड़े हमने ऐसे ज्ञान से
जो किसी व्यक्तित्व का मापन करे परिधान से

डगमगाते हैं हवा के मंद झोंकों पर ही वो
किस तरह विश्वास हो टकराएंगे तूफ़ान से

देखकर चेहरा कठिन है आदमी पहचानना
है कहानी क्या, पता चलता नहीं उन्वान से

मूंद लीं आँखें हमी ने उनको कुछ लज्जा नहीं
बीच चौराहे पे वो नंगे खड़े हैं शान से

जो तुम्हें औरों को देना था वो क्या तुम दे चुके
हाँ में हो उत्तर तो फिर कुछ माँगना भगवान से

इतना धन मत जोड़ ले मत परिचितों से शत्रुता
जान का ख़तरा रहेगा खुद की ही संतान से

तितलियों को काग़ज़ी फूलों ने सम्मोहित किया
ऐ ‘अकेला’ फूल असली रह गए हैरान से

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

7


काम है जिनका रस्ते-रस्ते बम रखना
उनके आगे पायल की छमछम रखना

जो मैं बोलूँ आम तो वो बोले इमली
मुश्किल है उससे रिश्ता क़ायम रखना

दौलत के अंधों से उल्फ़त की बातें
दहके अंगारों पर क्या शबनम रखना

इक रूपये की तीन अठन्नी माँगेगी
इस दुनिया से लेना देना कम रखना

सच्चाई की रखवाली को निकले हो
सीने पर गोली खाने की दम रखना

शासन ही बतलाये-क्यों आवश्यक है
पीतल की अँगूठी में नीलम रखना

देखो यार, मुझे घर जल्दी जाना है
जाम में मेरे आज ज़रा सी कम रखना

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

8
बोले बग़ैर हिज्र का क़िस्सा सुना गया
सब दिल का हाल आपका चेहरा सुना गया

इस दौर में किसी को किसी का नहीं लिहाज़
बातें हज़ार अपना ही बेटा सुना गया

भूखे भले ही मरते, न करते उधारियाँ
सौ गालियाँ सवेरे से बनिया सुना गया

वो नाग है कि फन ही उठाता नहीं ज़रा
धुन बीन की हरेक सँपेरा सुना गया

दिल का सुकून छीनने आया था नामुराद
दिलचस्प एक क़िस्सा अधूरा सुना गया

उस रब के फै़सले का मुझे इन्तज़ार है
मुन्सिफ़ तो अपना फ़ैसला कब का सुना गया

क्यों मोम हो गई हैं ये पत्थर की मूरतें
क्या इनको अपना दर्द ‘अकेला’ सुना गया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

9
पूछो मत क्या हाल-चाल हैं
पंछी एक हज़ार जाल हैं

पथरीली बंजर ज़मीन है
बेधारे सारे कुदाल हैं

ऊँघे हैं गणितज्ञ नींद में
अनसुलझे सारे सवाल हैं

जिसकी हाँ में हाँ न मिलाओ
उसके ही अब नेत्र लाल हैं

होगी प्रगति पुस्तकालय की
मूषक जी अब ग्रथपाल हैं

मंज़िल तक वो क्या पहुँचेंगे
जो दो पग चल कर निढाल हैं

जस की तस है जंग ‘अकेला’
हाथों-हाथों रेतमाल हैं

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

10
दिन बीता लो आई रात
जीवन की सच्चाई रात

अक्सर नापा करती है
आँखों की गहराई रात

सारी रात पे भारी है
शेष बची चौथाई रात

मेरे दिन के बदले फिर
लो उसने लौटाई रात

नखरे सुब्ह के देखे हैं
कब हमसे शरमाई रात

बिस्तर-बिस्तर लेटी है
कितनी है हरजाई रात

सोए नहीं ‘अकेला’ तुम
फिर किस तरह बिताई रात

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

11

अरे नादान क्यों उलझा है तू चूल्हे बदलने में
ये गीली लकड़ियाँ हैं क्यों धुआँ देंगी न जलने में

तुम अपने झूठ को कितने दिनों आबाद रक्खोगे
समय लगता नहीं है बर्फ़ के ढेले पिघलने में

हमारे लड़खड़ाने पर हँसो मत ऐ जहाँ वालो
बहुत अभ्यस्त हैं हम लोग गिर गिर के सम्हलने में

तुम अपना उल्लू सीधा कर चुके हम कुछ नहीं बोले
तुम्हारा मुँह बना है क्यों हमारी दाल गलने में

ज़रा सा रेंगने में हाँफते हो, बैठ जाते हो
मुसीबत ही मुसीबत है तुम्हारे साथ चलने में

न जाने ज़िन्दगी के नाज़ नखरे कैसे झेलोगे
तुम्हारा हौसला है पस्त बच्चे के मचलने में

xq:j इस रात का भी टूटने पर आ गया देखो
ज़रा सी देर है अब तो ‘अकेला’ दिन निकलने में

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


12
रूठा हुआ है मुझसे इस बात पर ज़माना
शामिल नहीं है मेरी फ़ितरत में सर झुकाना

मुझे मौत से डरा मत, कई बार मर चुका हूँ
किसी मौत से नहीं कम कोई ख़्वाब टूट जाना

हमको तो दिख रहे हैं हालात साजिशों के
पत्थर जता रहे हैं शीशे से दोस्ताना

तुझे याद करते रहना भाता है दिल को वरना
तुझको भुला भी देते गर चाहते भुलाना

आए थे बनके मेहमाँ जाने का नाम भूले
भाया ग़मों को बेहद मेरा ग़रीबख़ाना

दर्दों की धूप आखि़र अब क्या बिगाड़ लेगी
हमको तो मिल गया है ग़ज़लों का शामियाना

ग़फ़लत हमें ‘अकेला’ फिर पड़ गई है मंहगी
हम जब तलक पहुँचते ‘बस’ हो गई रवाना

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


13
न जाने क्यों तेरी यारी में उलझे
ग़मों की हम ख़रीदारी में उलझे

मरीज़ों का है अब भगवान मालिक
कि चारागर ही बीमारी में उलझे

पढ़ें क्या, तय नहीं कर पा रहे हैं
किताबों वाली अलमारी में उलझे

अभी हैं इम्तहानों के बहुत दिन
अभी से कौन तैयारी में उलझे

अकल आने लगी है अब ठिकाने
कि आटा, दाल, तरकारी में उलझे

हिमाक़त की ज़रूरत थी जहाँ पर
वहाँ नाहक़ समझदारी में उलझे

तुम्हें भी शायरी आने लगेगी
बशर्ते दिल न मक्कारी में उलझे
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


14
कौन कहता है कि हम मर जाएँगे
ज़ख़्म गहरे ही सही भर जाएँगे

स्वर्ग में भी होगी कुछ उनकी जुगाड़
पाप कर कर के भी वो तर जाएँगे

मानता हूँ हैं ये नालायक़ बहुत
अपने ही बच्चे हैं किस पर जाएँगे

प्रश्न करके इस क़दर तू खु़श न हो
सर से ऊपर सारे उत्तर जाएँगे

कट गई है ज़िन्दगी ये सोचते
आने वाले दिन तो बेहतर जाएँगे

घोषणाएँ कुछ नई नारे नए
और क्या मंत्री जी देकर जाएँगे

आदमी पर है कोई दानव सवार
किस तरह ये ख़ूनी मंज़र जाएँगे

ये ‘अकेला’ की ग़ज़ल के शेर हैं
तीर जैसे दिल के अंदर जाएँगे

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


15
आज कल तो रास्ता अँधे भी दिखलाने लगे
लो अँधेरे रौशनी का मर्म समझाने लगे

मंदिरो-मस्जिद में हर दिन भीड़ बढ़ती जा रही
इम्तिहानों के दिवस नज़दीक जो आने लगे

मेरे बेटे नौकरी तुझको तो मिलने से रही
खोल गुमटी पान की बाबू जी समझाने लगे

हैं विवश हम आप पर विश्वास करने के लिए
व्यर्थ ही क़समों पे क़समें आप क्यों खाने लगे

कैसे समझायें परिंदों को शिकारी हम नहीं
दान के दाने भी वो खाने से कतराने लगे

ये न भूलो, हमने ही तुमको बग़ल में दी जगह
यार तुम तो बैठते ही हमको धकियाने लगे

ऐ ‘अकेला’ अब तो बेशर्मी की भी हद हो गई
जन्म के झूठे हमें सच्चाई सिखलाने लगे


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


16
फिर बढ़ाना द्वार पे पाबंदियाँ
पहले सुधरा लो ये टूटी खिड़कियाँ

दौड़ने के गुर सिखाए किसलिए
पाँव में गर डालनी थीं बेड़ियाँ

वक़्त पर बिजली तो अक्सर ही गई
काम आयीं घासलेटी डिब्बियाँ

देखकर मुझको ख़ुशी के मूड में
चढ़ गयीं ज़ालिम समय की त्यौरियाँ

प्रार्थना करिए दरख़्तों के लिए
हैं सक्रिय छैनी, हथौड़े, आरियाँ

यार तू भी दूध का धोया कहाँ
हैं अगर मुझमें बहुत सी ख़ामियाँ

इस महीने सारा वेतन खा गए
बच्चों के बस्ते, किताबें, कॉपियाँ

बिन तुम्हारे ज़िन्दगी बीती है यूँ
ज्यौं फटे कंबल में बीतें सर्दियाँ

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


17

मुझको आज मिली सच्चाई
सहमी-सहमी और घबराई

भूल गया मुझको वो ऐसे
जैसे भूले लोग भलाई

ताक़ पे जो ईमान रखे हैं
छान रहे वो दूध मलाई

मैले गमछों की पीड़ाएँ
क्या समझेगी उजली टाई

राहे उल्फ़त सँकरा परबत
और बिछी है उस पर काई

सुनकर वो मेरी सब उलझन
बोला मैं चलता हूँ भाई

दुख जीवन में गेंद के जितना
सुख इतना जैसे हो राई

हाले दिल मत पूछ ‘अकेला’
कुआँ सामने, पीछे खाई

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

18
तबीयत हमारी है भारी सुबह से
कि याद आ गई है तुम्हारी सुबह से

न थी घर में चीनी तो कल ही बताती
करेगा न बनिया उधारी सुबह से

बता दे कि हम ख़ुद ही सोए थे भूखे
खड़ा अपने द्वारे भिखारी सुबह से

न उसकी हमारी अदावत पे जाओ
हुआ रात झगड़ा, तो यारी सुबह से

हुआ अपशगुन ये कि इक नेता जी पे
नज़र पड़ गई है हमारी सुबह से

परिन्दों की दहशत है वाजिब ‘अकेला’
खडे हर तरफ़ हैं शिकारी सुबह से

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


19
कब होती है कोई आहट
चुपके से आता है संकट

अक्सर जल बिखरा रहता है
तेरी आँखें हैं या पनघट

तेरे बिन मैं तड़प रहा हूँ
होगी तुझको भी अकुलाहट

कैसे आए नींद कि दिल में
है उसकी यादों की खटपट

कहते थे मैं नौसीखा हूँ
पूरी बोतल पी ली गट-गट

एक ज़रा सा दिल बेचारा
और ज़माने भर के झंझट

क्यों करते हो फ़िक्र ‘अकेला’
वक्त भी आखि़र लेगा करवट

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

20
कोई मंज़र नज़र को भाता नहीं
तेरा चेहरा भी याद आता नहीं

क्या हसीं ख़्वाब बीच में टूटा
काश कुछ देर तू जगाता नहीं

कितना काँटों से डर गया है वो
हाथ फूलों को अब लगाता नहीं

एक ये भी है चाँद में ख़ूबी
दाग़ चेहरे के वो छिपाता नहीं

रिश्ते आते कहाँ हैं उसके लिए
लड़का अच्छा है पर कमाता नहीं

कुछ तो होगा मेरे खुदा तुझमें
मैं कहीं भी तो सर झुकाता नहीं

मयकशी कब की छोड़ बैठा हूँ
पीने-पाने से दर्द जाता नहीं

बात ‘अकेला’ की और है वरना
दर्द में कोई मुस्कुराता नहीं
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

21
हमने कर ली सफ़र की तैयारी
ये न पूछो किधर की तैयारी

बिछ गए हैं उधर की अंगारे
हमने की है जिधर की तैयारी

एक गाड़ी थी वो भी छूट गई
खा गई हमसफ़र की तैयारी

टूटे दिल को ज़रा तो जुड़ने दो
करना फिर तुम क़हर की तैयारी

मछलियाँ किस तरह यक़ीं कर लें
होगी हित में ‘मगर’ की तैयारी

यार मेरे मुझे तो ले डूबी
कुछ इधर कुछ उधर की तैयारी

ऐ ‘अकेला’ वो फिर नहीं आए
की गई दुनिया भर की तैयारी

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


22
बढ़ते उपचारों का युग है
फिर भी बीमारों का युग है

गै़रों की सत्ता से बद्तर
अपनी सरकारों का युग है

कर्तव्यों का भान किसे हो
ये तो अधिकारों का युग है

हो पाता सच नहीं उजागर
कैसा अख़बारों का युग है

हम उल्फ़त की बात करेंगे
माना तलवारों का युग है

घर-घर, आँगन-आँगन उठतीं
पक्की दीवारों का युग है

क्रय-विक्रय में सिमटा जीवन
मंडी-बाज़ारों का युग है

बच कर रहना ज़रा ‘अकेला’
झूठों-मक्कारों का युग है

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


23
उठती शंकाओं पर सोच-विचार बहुत आवश्यक है
इस बीमार व्यवस्था का उपचार बहुत आवश्यक है

अधिकारों की ख़ातिर तुम संघर्ष करो, पर ध्यान रहे
तुम नारी हो मर्यादित व्यवहार बहुत आवश्यक है

सागर की यात्रा को तत्पर नाविक पूछ रहा देखो
क्या नौका तैराने को पतवार बहुत आवश्यक है

दम घुट जाएगा तुम इतने भी यथार्थवादी न बनो
जीना है तो सपनों का संसार बहुत आवश्यक है

धर्म तुम्हारा कुछ भी बोले, मानवता ये कहती है
उस विधवा लड़की का फिर सिंगार बहुत आवश्यक है

प्रेयसि! दुनिया बहुत बुरी है और फिर बाहर चलना है
क्या गर्दन पर ये सोने का हार बहुत आवश्यक है

काफी कर ली है जनसेवा कृपा करें अब रहने दें
नेता जी, क्या देश पे ये उपकार बहुत आवश्यक है

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


24
दर्द सैकड़ों दिल की दास्तान से गुज़रे
वो गली से गुज़रे पर बदगुमान से गुज़रे

पंख जल गये सबके, जिस्म हो गये ज़ख़्मी
ये परिन्दे ख़्वाबों के किस उड़ान से गुज़रे

मुस्कुरा दिया तुमने मुझको मिल गई जन्नत
सैकड़ों महकते गुल जिस्मो-जान से गुज़रे

देश की तरक़्क़ी का उसने ज़िक्र छेड़ा तो
भीख मांगते बच्चे मेरे ध्यान से गुज़रे

तौबा, हुस्नवालों से दोस्ती ! अरे तौबा
कौन हर घड़ी हर पल इम्तिहान से गुज़रे

तुझसे क्या गिला या रब ये करम भी क्या कम है
ज़िन्दगी के कुछ लम्हे इत्मीनान से गुज़रे

ऐ ‘अकेला’ राहे-दिल जगमगा सी उट्ठी है
दर्द के मुसाफिर भी कैसी शान से गुज़रे

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


25
इस दौर में ईमान जिसके पास होता है
देखा गया है उसका ही उपहास होता है

कुछ भी नहीं है आज खाने के लिए तो क्या
सेहत की ख़ातिर लाज़मी उपवास होता है

कोई भले ही ऐ ख़ुदा समझे वहम तुझको
मुझको मुसीबत में तेरा आभास होता है

दशरथ विवश होते हैं जब कैकेई के सम्मुख
हर हाल में तब राम का वनवास होता है

कुछ पंक्तियाँ पढ़ के ही यारो हमने ये जाना
जीवन की कविता में तो दुख अनुप्रास होता है

अब क्या करें, क्या जान दे दें, आप ही कहिए
हम पर न कैसे भी उन्हें विश्वास होता है

महफ़िल में उसको दाद यूँ ही तो नहीं मिलती
कुछ तो ‘अकेला’ की ग़ज़ल में ख़ास होता है

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


26
ज़हन में हर घड़ी सिक्कों की ही झंकार ठहरे
तुम्हारे दिल में ठहरे भी तो कैसे प्यार ठहरे

बनें सम्बन्ध कैसे दोस्ताना सोचिए तो
कि मैं पानी हूँ वो दहके हुए अंगार ठहरे

बहुत बेताब है इज़हार को ये दिल की हसरत
कि आखि़रकार कब तक म्यान में तलवार ठहरे

सहेजे कौन हमको और आखि़र क्यों सहेजे
विगत तारीख़ के हम फ़ा़लतू अख़बार ठहरे

ये तेरी नौकरी दुख की बड़ी बेजा है मालिक
कि इसमें क्यों नहीं सुख का कोई इतवार ठहरे

वो झुकते क्यों उन्हें तो थी बहुत पैसों की गरमी
झुके हम भी नहीं, हम भी तो फिर फ़नकार ठहरे

‘अकेला’ कामयाबी चूमती तेरे क़दम भी
मगर तू है कि ना लब पर तेरे मनुहार ठहरे

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


27
आँसुओं को बवाल समझा गया
कब यहाँ दिल का हाल समझा गया

अपने लोगों की थीं करामातें
जिनको दुश्मन की चाल समझा गया

वो ख़फ़ा हैं कि घूसखोरी को
कैसे फोकट का माल समझा गया

हम जो सम्हले तो उँगलियाँ उट्ठीं
गिर पड़े तो कमाल समझा गया

साध ली फिर जवाब पर चुप्पी
कैसे समझें सवाल समझा गया

काम आए ये फ़ालतू काग़ज़
मेरी पॉकिट में माल समझा गया

तेरे बिन दिन सदी से गुज़रे हैं
लम्हे लम्हे को साल समझा गया
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


28
दर्दे-दिल पहुँचेगा अब अंजाम तक
इक ग़ज़ल काग़ज़ पे होगी शाम तक

आ नहीं पाया हवा दुश्मन हुई
उसका फेंका ख़त हमारे बाम तक

कुछ तो वो सामान भी चोरी गया
चुक नहीं पाए थे जिसके दाम तक

सैकड़ों रावन अभी मौजूद हैं
बात पहुँचा दे ये कोई राम तक

दौर ये सच्चों पे इल्ज़ामों का है
सोच मत मुझ पर लगे इल्ज़ाम तक

दिल पे पत्थर रख के कहना ही पड़ा
भूल जाना तुम हमारा नाम तक

मयकशों के साथ रहता हूँ तो क्या
लब कभी पहुँचे नहीं हैं जाम तक

ऐ ‘अकेला’ बस उसी का राज है
ख़्वाब से लेकर ख़याले-ख़ाम तक

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

29
आराम के, सुकून के राहत के चार दिन
या रब अता हों तेरी इनायत के चार दिन

अब ये न पूछ कैसे कटे हैं तेरे बग़ैर
कट ही गये हैं तेरी ज़रूरत के चार दिन

पगले तू ज़िन्दगी के किसी काम का नहीं
भारी पड़े हैं तुझको मुसीबत के चार दिन

मर्ज़ी किसी से वक्त ने पूछी कहाँ कभी
किसको मिले हैं अपनी तबीयत के चार दिन

मुजरिम समझ के दे दे सज़ा या बरी ही कर
बहला न मुझको देके ज़मानत के चार दिन

दर्दों का दौर ख़त्म भी होगा, यक़ीन रख
होते कहाँ हैं एक सी सूरत के चार दिन

ये तो बता ‘अकेला’ जो गुज़रे सुकून से
ख़्वाबों के थे या थे वो हक़ीक़त के चार दिन
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


30
जो खुलकर अपनी भी ख़ामी कहते हैं
हम ख़ुद को उनका अनुगामी कहते हैं

चटकी छत, हिलती दीवारें, टूटा दर
आप हमें किस घर का स्वामी कहते हैं

तुम बोलो इस देश की संसद को संसद
हम तो उसे सांपों की बामी कहते हैं

हमसे ज़िन्दा है उल्फ़त का कारोबार
लोग हमें दिल का आसामी कहते हैं

अच्छा है क्या ख़ुद की खिल्ली उड़वाना
क्यों सबसे अपनी नाकामी कहते हैं

मत बोलो हल्के हैं शेर ‘अकेला’ के
जाने क्या क्या शायर नामी कहते हैं
वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


31
चिकित्सकों को मैं यारो बीमार समझ में ना आया
सच्चाई ये है उनको उपचार समझ में ना आया

गै़रों के बर्तावों पर मैं बोलूँ भी तो क्या बोलूँ
मुझको तो अपनों का ही व्यवहार समझ में ना आया

यदि सच्चे हैं अमन, चैन, खुशहाली के दावे तो फिर
मचा हुआ है क्यों ये हाहाकार समझ में ना आया

कभी मित्रता प्रकटित करना, कभी किनारा कर जाना
उसके मन में क्या है आखि़रकार समझ में ना आया

वो कर्तव्यों की परिभाषा बतलाने में हिचके हैं
मैं ऐसा जिसको अपना अधिकार समझ में ना आया

इष्ट मित्र को भद्दी गाली देकर सम्बोधित करना
अपनेपन का मुझको ये इज़हार समझ में ना आया

तेरे जाने पर यूँ मेरी आँख नहीं गीली होती
हां लेकिन मुझको गीता का सार समझ में ना आया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


32
छल किया है छल मिलेगा आपको
और क्या प्रतिफल मिलेगा आपको

अब कहाँ वो आपसी सद्भावना
हर कहीं दंगल मिलेगा आपको

मित्र, ये नदिया है भ्रष्टाचार की
कैसे इसका तल मिलेगा आपको

हर कहीं, हर सिम्त दौलत के लिए
आदमी पागल मिलेगा आपको

जिसको भी दुखड़ा सुनाएंगे वही
आँख से ओझल मिलेगा आपको

आप ही बस वक्त के मारे नहीं
हर कोई घायल मिलेगा आपको

दुख में पढ़िएगा ‘अकेला’ की ग़ज़ल
देखिएगा बल मिलेगा आपको

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

33
गुज़रेंगे इस चमन से तूफ़ान और कितने
रूठे रहेंगे हमसे भगवान और कितने

अब हाल पर हमारे तुम हमको छोड़ भी दो
लेते फिरंे तुम्हारे अहसान और कितने

नेता, वकील, पंडित, मुल्ला, समाज सेवक
बदलेगा रूप आखि़र शैतान और कितने

हमें तोड़ने की ख़ातिर, हमें लूटने की ख़ातिर
हमसे करेंगे आखि़र पहचान और कितने

आँसू, अभाव, विपदा, आहें, घुटन, हताशा
बदलेगी दिल की पुस्तक उन्वान और कितने

जो सुख नहीं रहे तो दुख भी नहीं रहेंगे
किसी एक घर रूकेंगे मेहमान और कितने

दिन की तरह कोई दिन निकले भी अब ‘अकेला’
होंगे तिमिर के बंदी दिनमान और कितने

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

34
कभी कुछ ग़म भी हो हरदम ख़ुशी अच्छी नहीं होती
हमेशा एक जैसी ज़िन्दगी अच्छी नहीं होती

उसे पाकर तुम अपने आप को भी भूल बैठे हो
किसी पर इतनी भी दीवानगी अच्छी नहीं होती

कभी भी दोस्ती के हक़ में सोचा ही नहीं तुमने
किसे समझा रहे हो दुश्मनी अच्छी नहीं होती

उदासी आपके चेहरे की छा जाती है शेरों पर
ज़रा तो मुस्कुरा दो, शायरी अच्छी नहीं होती

मुकम्मल प्यास तो जागे यहीं फूटेंगे सौ झरने
अधूरी है, अधूरी तिश्नगी अच्छी नहीं होती

तुम्हारे ख़त पे ख़त आते हैं पर मैं आ नहीं सकता
बस इतने के लिए ही नौकरी अच्छी नहीं होती

भटकता है कहाँ हरदम ‘अकेला’ छोड़कर मुझको
मेरे दिल इस क़दर आवारगी अच्छी नहीं होती

बहुत से मामलों में तंगदिल होना ही अच्छा है
‘अकेला’ हर कहीं दरियादिली अच्छी नहीं होती

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


35
मुजरिमों से भी बुरी मुन्सिफ़ों की हेटी हुई
खुल गई रील रहस्यों की जब लपेटी हुई

वक्त पड़ने पे किनारा वो कर गया ऐसे
जैसे बिल्ली हो कोई श्वान की चहेटी हुई

किस क़दर होने लगी हैं मिलावटें तौबा
दुश्मनी भी तो मिली दोस्ती में फेंटी हुई

हाँ या ना कहने में बरसों लगा दिए मेडम
ये ज़्बाँ आपकी सरकारिया कमेटी हुई

खीज उठी सास-‘लगे अस्पताल में आगी
जाँच में बेटा बताया था और बेटी हुई

शाम ढलते ही बढ़ी होगी और बेचैनी
गिन रही होगी सितारे वो छत पे लेटी हुई

एक से एक नज़ारे हैं देखने लायक़
फैलने भी दे ज़रा ये नज़र समेटी हुई

ऐ ‘अकेला’ कोई ‘सुकरात’ भी नहीं है तू
जाने किस बात पे दुनिया है तुझसे चेंटी हुई


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

36
पत्थर को पिघलाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है
वन में दीप जलाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

तुम बेदर्द ज़माने के सांचे में ढली इक मूरत हो
इक परबत सरकाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

तुम दौलत के अनुबंधन पर जीवन जीने के आदी
जल पर चित्र बनाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

स्वारथ के विद्यालय में तुमने बरसों शोषण सीखा
गरल पियूष बनाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

तुमने सुखभोगों के हित में शुभ मनभावों को मारा
मृत में प्राण जगाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

भौतिक लाभों से चिर प्रेरित कर्मों में तुम डूबे हो
पश्चिम-सूर्य उगाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है

निष्फल सारे यत्न ‘अकेला’, सच बोलूँ तो गूंगे से
कोई गीत गवाने जैसा तुमको प्यार सिखाना है


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

37
इक ख़्वाब ले रहा है ऊँची उड़ान फिर
थामे समय खड़ा है तीरो-कमान फिर

मन का कृषक न कैसे पाले उदासियाँ
उत्पादनों से ज़्यादा बैठा लगान फिर

सच था अगर बयाँ तो मुन्सिफ़ के सामने
क्यों लड़खड़ा रही थी तेरी ज़बान फिर

रोका न था, हवेली हक़ मांगने न जा
ले मिल गए बदन को नीले निशान फिर

सुख तो बरफ़ सा घुल कर ढेले सा रह गया
दुख है कि हो चला है परबत समान फिर

सूरज तो है तमाशा बस दिन का दोस्तो
नन्हें से जुगनुओं ने दाग़ा बयान फिर

हरदम ‘अकेला’ तेरे मन की कहाँ से हो
सर पे उठा रखा है क्यों आसमान फिर

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’



38

सूर्य से भी पार पाना चाहता है
इक दिया विस्तार पाना चाहता है

देखिए, इस फूल की ज़िद देखिए तो
पत्थरों से प्यार पाना चाहता है

किस क़दर है सुस्त सरकारी मुलाज़िम
रोज़ ही इतवार पाना चाहता है

अम्न की चाहत यहाँ है हर किसी को
हर कोई तलवार पाना चाहता है

इक सपन साकार हो जाये बहुत है
हर सपन साकार पाना चाहता है

फूलबाई कब, कहाँ, कैसे लुटी थी
ये ख़बर अख़बार पाना चाहता है

मैं तेरी ख़ातिर उपस्थित हो गया हूँ
और क्या उपहार पाना चाहता है
जिसका मिल पाना असम्भव है ‘अकेला’
दिल वही हर बार पाना चाहता है


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’


39
फिर पुरानी राह पर आना पड़ेगा
उसको हिन्दी में ही समझाना पड़ेगा

गर्म है पॉकिट तुम्हारी बच के जाना
लुट न जाना राह में थाना पड़ेगा

कोयलो, फ़रमान जारी हो गया है
साथ कौवों के तुम्हें गाना पड़ेगा

इस मुहल्ले में मकाँ मुझको दिला दे
इस जगह से पास मयख़ाना पड़ेगा

किसको फु़रसत है हुनर देखे तुम्हारा
तुमको ख़ुद मैदान में आना पड़ेगा

आईनो, ख़ुद को ज़रा मज़बूत कर लो
पत्थरों से तुमको टकराना पड़ेगा

ऐ ‘अकेला’ होगी बहुतों से बुराई
पर लबों पे सच हमें लाना पड़ेगा


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

40
इस तरह से बात मनवाने का चक्कर छोड़ दे
देख तू सीधी तरह से मेरा कालर छोड़ दे

झूठ, मक्कारी तजें नेता जी मुमकिन ही कहाँ
नाचना, गाना-बजाना कैसे किन्नर छोड़ दे

अपने होठों से ज़रा छू ले मेरे प्याले के होंठ
चाय कुछ फीकी सी है थोड़ी सी शक्कर छोड़ दे

न्याय की ख़ातिर वो अपना सर कटा भी ले मगर
घर की ज़िम्मेदारियों को किसके सर पर छोड़ दे

इम्तहानों के ये दिन और इश्क़ है सर पर सवार
ये न हो कि मेरे चक्कर में वो पेपर छोड़ दे

नींद माना है अधूरी शब मगर पूरी हुई
काम पर निकले हैं पंछी तू भी बिस्तर छोड़ दे

कुछ समझ में ही नहीं आता तो अक्कल मत लड़ा
ऐसे हालातों में सब उस रब के ऊपर छोड़ दे

ऐ ‘अकेला’ दुनियाभर से मोल मत ले दुश्मनी
हक़बयानी छोड़ दे, ये तीखे तेवर छोड़ दे


वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

41
उमीदों के कई रंगीं फ़साने ढूँढ़ लेते हैं
जिन्हें जीना है जीने के बहाने ढूँढ़ लेते हैं

न सूझे है कहाँ जाकर छुपूँ कैसे बचूँ इनसे
ये बैरी ग़म मेरे सारे ठिकाने ढूंढ़ लेते हैं

हम उनसे दोस्ती का इक बहाना ढूंढ़ते जब तक
वो तब तक दुश्मनी के सौ बहाने ढूंढ़ लेते हैं

ख़फ़ा है हमसे ये दुनिया हमारा है क़ुसूर इतना
समझदारी से हम कुछ पल सुहाने ढूंढ़ लेते हैं

मेरी बातों का अक्सर मान जाते हैं बुरा यूँ ही
वो जाने क्या मेरे लफ़्ज़ों के माने ढूंढ़ लेते हैं

किसी से उनको क्या मतलब, मगर हाँ वक्त पड़ने पर
ज़माने भर से अपने दोस्ताने ढूँढ़ लेते हैं

करो मत फ़िक्र, वो दो वक्त की रोटी जुटा लेगा
परिन्दे भी ‘अकेला’ चार दाने ढूँढ़ लेते हैं

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’

Monday 18 April 2011

ana qasmi ki gazlin



मौलाना हारून 'अना' क़ासमी

संक्षिप्त परिचय
नाम ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी

जन्म : 28 फरवरी 1966
जन्म स्थान : छतरपुर (म.प्र.)
पिता का नाम : हाजी मुहम्मद जमील निज़ामी
माता का नाम : मरियम खातून
शिक्षा : फाज़िल (दारूल-उलूम देवबन्द)
लेखन विधाएं : ग़ज़ल एवं नज़्म
उपलब्धियां : ग़ज़ल संग्रह 'हवाओं के साज़ पर प्रकाशित
देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएं
प्रकाशित ।
विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
सम्पर्क : हेल्प लाइन कम्प्यूटर एसेसिरीज,
आकाशवाणी तिराहा, छतरपुर (म.प्र.) पिन-471001
मोबाइल नम्बर : 9826506125

मौलाना हारून अना क़ासमी ऐसे नौजवान ग़ज़ल के शायर हैं जिनके फिक्रोफ़न में इनकी सच्ची रियाज़त वसीअ मुतालआ शायराना सदाकत है ।
इनके अच्छे शेरों में ग़ज़ल की सदियों कबी परम्पराएं अपने ज़माने से बड़े प्यार
से गले मिल रही हैं । इन रिवायतों में नया लबो-लहज़ा इनकी अपनी पहचान बनाने में पूरी तरह कामयाब हो रहा है । इनके कुछ अच्छे शेर सुब्ह की धूप में
मुस्कुराते फूलों की तरह उजले उजले हैं ।
मुझे यकीन है कि हमारे हिन्दी के नौजवान दोस्त भी इस मजमूए को ज़रूर पसन्द करेंगे ।

-डा. बशीर बद्र
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1 ग़ज़ल
कभी हाँ कुछ, मेरे भी शेर पैकर1 में रहते हैं
वही जो रंग, तितली के सुनहरे पर में रहते हैं|

निकल पड़ते हैं जब बाहर, तो कितना ख़ौफ़ लगता है,
वही कीड़े, जो अक्सर आदमी के सर में रहते हैं|

यही तो एक दुनिया है, ख़्यालों की या ख़्वाबों की,
हैं जितने भी ग़ज़ल वाले, इसी चक्कर में रहते हैं|

जिधर देखो वहीं नफ़रत के आसेबां2 का साया है,
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब कहाँ किस घर में रहते हैं|

वो जिस दम भर के उसने आह, मुझको थामना चाहा,
यक़ीं उस दम हुआ, के दिल भी कुछ पत्थर में रहते हैं|

1 साचाँ 2 भूत



2 ग़ज़ल
माने जो कोई बात, तो इक बात बहुत है,
सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है|

दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर इक बात,
ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है|

महिने में किसी रोज, कहीं चाय के दो कप,
इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है|

रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी,
इस दौर में अब इतनी मदारात1 बहुत है|

दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम,
कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है|

फिर तुमको पुकारूंगा कभी कोहे 'अना'2 से,
अय दोस्त अभी गर्मी-ए- हालात बहुत है|

1.हमदर्दी 2. स्वाभिमान

3 ग़ज़ल
बहुत वीरान लगता है, तिरी चिलमन का सन्नाटा,
नया हंगामा माँगे है, ये शहरे-फ़न का सन्नाटा|

कोई पूछे तो इस सूखे हुए तुलसी के पौधे से,
कि उस पर किस तरह बीता खुले आँगन का सन्नाटा|

तिरी महफ़िल की रूदादें बहुत सी सुन रखीं हैं पर,
तिरी आँखों में देखा है, अधूरेपन का सन्नाटा|

सयानी मुफ़लिसी फुटपाथ पर बेख़ौफ़ बिखरी है,
कि दस तालों में रहता है बिचारे धन का सन्नाटा|

ख़ुदाया इस ज़मीं पर तो तिरे बंदांे का क़ब्ज़ा है,
तू इन तारों से पुर कर दे मिरे दामन का सन्नाटा |

मिरी उससे कई दिन से लडा़ई भी नहीं फिर भी,
अ़जब ख़श्बू बिखेरे है, ये अपनेपन का सन्नाटा |

तुम्हें ये नींद कुछ यूँ ही नहीं आती 'अना ' साहिब,
दिलों को लोरियाँ देता है हर धड़कन का सन्नाटा |

4 ग़ज़ल
ये फ़ासले भी, सात समन्दर से कम नहीं,
उसका ख़ुदा नहीं है, हमारा सनम नहीं |

कलियाँ थिरक रहीं हैं, हवाओं के साज़ पर,
अफ़सोस मेरे हाथ में काग़ज़ क़लम नहीं |

पी कर तो देख इसमें ही कुल कायनात है,
जामे-सिफ़ाल1 गरचे मिरा जामे-जम2 नहीं |

तुमको अगर नहीं है शऊरे-वफ़ा तो क्या,
हम भी कोई मुसाफ़िरे-दश्ते-अलम3 नहीं |

टूटे तो ये सुकूत4 का अ़ालम किसी तरह,
गर हाँ नहीं, तो कह दो ख़ुदा की क़सम,नहीं |

इक तू, कि लाज़वाल5 तिरी ज़ाते-बेमिसाल,
इक मैं के जिसका कोई वजूदो-अ़दम6 नहीं|

1. मिट्टी का प्याला 2. जमशेद बादशाह का,
वो प्याला जिसमें वो सारा संसार देखता था |
3. मुसीबतों के जंगल का राही 4. ख़ामोशी
5. अमिट 6. अस्तित्व एवं नश्वरता

5 ग़ज़ल
कभी वो शोख़ मेरे दिल की अंजुमन तक आये
मेरे ख़्याल से गुज़रे मेरे सुख़न1 तक आये

जो आफ़ताब थे ऐसा हुआ तेरे आगे
तमाम नूर समेटा तो इक किरन तक आये

कहे हैं लोग कि मेरी ग़ज़ल के पैकर2 से
कभी कभार तेरी ख़ुशबू-ए-बदन तक आये

जो तू नहीं तो बता क्या हुआ है रात गये
मेरी रगों में तेरे लम्स3 की चुभन तक आये

अब अश्क पोंछ ले जाकर कहो ये नरगिस4 को
अगर तलाशे-नज़र है मेरे चमन तक आये

तमाम रिश्ते भुलाकर मैं काट लंूगा इन्हें
अगर ये हाथ कभी मादरे-वतन तक आये

जो इश्क़ रूठ के बैठे तो इस तरह हो 'अना'
कि हुस्न आये मनाने तो सौ जतन तक आये

1 कवित्व 2 सांचा 3 स्पर्श 4 घने जगंल में खिलने वाला फूल


6 ग़ज़ल
ख़बर है दोनों को दोनों से दिल लगाऊँ मैं
किसे फ़रेब दूँ किस से फ़रेब खाऊँ मैं

नहीं है छत न सही आसमाँ तो अपना है
कहो तो चाँद के पहलू में लेट जाऊँ मैं

यही वो शय है कहीं भी किसी भी काम में लो
उजाला कम हो तो बोलो कि दिल जलाऊॅं मैं

नहीं नहीं ये तिरी ज़िद नहीं है चलने की
अभी अभी तो वो सोया है फिर जगाऊँ मैं

बिछड़ के उससे दुआ कर रहा हूँ अय मौला
कभी किसी की मुहब्बत न आज़माऊँ मैं

हर एक लम्हा नयापन हमारी फ़ितरत है
जो तुम कहो तो पुरानी ग़ज़ल सुनाऊँ मैं

7 ग़ज़ल
यूँ इस दिले नादाँ से रिश्तों का भरम टूटा
हो झूठी क़सम टूटी या झूठा सनम टूटा

सागर से उठीं आहें, आकाश पे जा पहुँचीं
बादल सा ये ग़म आख़िर बा दीदा-ए-नम टूटा

ये टूटे खंडहर देखे तो दिल ने कहा मुझसे
मसनूई1 ख़ुदाओं के अबरू का है ख़म टूटा

बाक़ी ही बचा क्या था लिखने के लिए उसको
ख़त फाड़ के भेजा है, अलफ़ाज़ का ग़म टूटा

उस शोख़ के आगे थे सब रंगे धनक फीके
वो शाख़े बदन लचकी तो मेरा क़लम टूटा

बेचोगे 'अना' अपनी बेकार की शय2लेकर
किस काम में आयेगा जमशेद3 का जम4टूटा

1 झूठे 2 चीज़ 3 एक बादशाह 4 उसका मशहूर प्याला

8 ग़ज़ल
ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र है
मैं डूबता सूरज हूं तू बहता समन्दर है

सोने का सनम था वो, सबने उसे पूजा है
उसने जिसे चाहा है वो रेत का पैकर है

जो दूर से चमके हैं वो रेत के ज़र्रे हैं
जो अस्ल में मोती है वो सीप के अन्दर है

दिल और भी लेता चल पहलू में जो मुमकिन हो
उस शोख के रस्ते में एक और सितमगर है

दो दोस्त मयस्सर हैं इस प्यार के रस्ते में
इक मील का पत्थर है, इक राह का पत्थर है

सब भूल गया आख़िर पैराक हुनर अपने
अब झील सी अंाखों में मरना ही मुक़द्दर है

अब कौन उठाएगा इस बोझ को किश्ती पर
किश्ती के मुसाफ़िर की अंाखों में समन्दर है

9 ग़ज़ल

दिल की हर धड़कन है बत्तिस मील में
हम ज़िले में और वो तहसील में

उसकी आराइश1 की क़ीमत कैसे दूँ
दिल को तोला नाक की इक कील में

कुछ रहीने मय2 नहीं मस्ते ख़राम
सब नशा है सैण्डिल की हील में

यक-ब-यक लहरों में दम सी आ गई
लड़कियों ने पाँव डाले झील में

उम्र अदाकारी में सारी कट गई
इक ज़रा से झूठ की तावील3 में

आप कहकर देखियेगा तो हुज़ूर
सर है ह़ाज़िर हुक्म की तामील में

सैकड़ों ग़ज़लें मुकम्मल हो गईं
इक अधूरे शेर की तकमील4 में

1 श्रंगार 2 शराब की अहसानमंद 3 बात घुमाना 4 पूरा करने की कोशिश

10. ग़ज़ल

खैंची लबों ने आह कि सीने पे आया हाथ
बस पर सवार दूर से उसने हिलाया हाथ

महफ़िल में यूँ भी बारहा उसने मिलाया हाथ
लहजा था ना-शनास1 मगर मुस्कुराया हाथ

फूलों में उसकी साँस की आहट सुनाई दी
बादे सबा2 ने चुपके से आकर दबाया हाथ

यूँ ज़िन्दगी से मेरे मरासिम3 हैं आज कल
हाथों में जैसे थाम ले कोई पराया हाथ

मैं था ख़मोश जब तो ज़बाँ सबके पास थी
अब सब हैं लाजवाब तो मैंने उठाया हाथ

1 अपरिचित 2 सुबह की खुश्बूदार हवा 3 तअल्लुक़ात

Tuesday 12 April 2011

meer in hindi

1
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे-आगे देखिये होता है क्या

क़ाफ़िले में सुबह के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या

सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्मे-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या

ये निशाने-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या

ग़ैरते-युसूफ़ है ये वक़्त ऐ अजीज़
'मीर' इस को रायेग़ाँ खोता है क्या
2
अश्क आंखों में कब नहीं आता
लहू आता है जब नहीं आता।

होश जाता नहीं रहा लेकिन
जब वो आता है तब नहीं आता।

दिल से रुखसत हुई कोई ख्वाहिश
गिरिया कुछ बे-सबब नहीं आता।

इश्क का हौसला है शर्त वरना
बात का किस को ढब नहीं आता।

जी में क्या-क्या है अपने ऐ हमदम
हर सुखन ता बा-लब नहीं आता।
3
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
धूम है फिर बहार आने की

वो जो फिरता है मुझ से दूर ही दूर
है ये तरकीब जी के जाने की

तेज़ यूँ ही न थी ये आतिश-ए-शौक़
थी खबर गर्म उस के आने की

जो है सो पाइमाल-ए-ग़म है मीर
चाल बेडोल है ज़माने की

ghalib in hindi

1
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न हमसे
वरना ख़ौफ़-ए-बदामोज़ी-ए-अदू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है

बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वगर्ना शहर में "ग़ालिब" की आबरू क्या है
[1]

शब्दार्थ:

Monday 11 April 2011

ameer khusro in hindi

1
अपनी छवि बनाई के जो मैं पी के पास गई,
जब छवि देखी पीहू की तो अपनी भूल गई।
छाप तिलक सब छीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के
बात अघम कह दीन्हीं रे मोसे नैंना मिला के।
बल बल जाऊँ मैं तोरे रंग रिजना
अपनी सी रंग दीन्हीं रे मोसे नैंना मिला के।
प्रेम वटी का मदवा पिलाय के मतवारी कर दीन्हीं रे
मोसे नैंना मिलाई के।
गोरी गोरी बईयाँ हरी हरी चूरियाँ
बइयाँ पकर हर लीन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
खुसरो निजाम के बल-बल जइए
मोहे सुहागन किन्हीं रे मोसे नैंना मिलाई के।
ऐ री सखी मैं तोसे कहूँ, मैं तोसे कहूँ, छाप तिलक....।
2
ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां |
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां ||

शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां ||

यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पडी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां ||

चो शमा सोज़ान, चो ज़र्रा हैरान
हमेशा गिरयान, बे इश्क आं मेह |
न नींद नैना, ना अंग चैना
ना आप आवें, न भेजें पतियां ||

बहक्क-ए-रोज़े, विसाल-ए-दिलबर
कि दाद मारा, गरीब खुसरौ |
सपेट मन के, वराये राखूं
जो जाये पांव, पिया के खटियां ||
3
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
मेरे अच्छे निज़ाम पिया।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
ज़रा बोलो निज़ाम पिया।
पनिया भरन को मैं जो गई थी।
दौड़ झपट मोरी मटकी पटकी।
बहुत कठिन है डगर पनघट की।
खुसरो निज़ाम के बल-बल जाइए।
लाज राखे मेरे घूँघट पट की।
कैसे मैं भर लाऊँ मधवा से मटकी
बहुत कठिन है डगर पनघट की।

Sunday 10 April 2011

अना कासमी कीं कुछ ग़ज़लें

मौलाना हारून 'अना' क़ासमी


संक्षिप्त परिचय
नाम ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी

जन्म ः 28 फरवरी 1966
जन्म स्थान ः छतरपुर (म.प्र.)
पिता का नाम ः हाजी मुहम्मद जमील निज़ामी
माता का नाम ः मरियम खातून
शिक्षा ः फाज़िल (दारूल-उलूम देवबन्द)
लेखन विधाएं ः ग़ज़ल एवं नज़्म
उपलब्धियां
1.ग़ज़ल संग्रह ः 'हवाओं के साज़ पर
अयन प्रकाशन दिल्ली
2. ः नगरपालिका छतरपुर द्वारा श्रेष्ट शायर सम्मान
विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
सम्पर्क ः हेल्प लाइन कम्प्यूटर
आकाशवाणी तिराहा, छतरपुर (म.प्र.) पिन-471001
मोबाइल नम्बर ः 9826506125

(((( किताब हवाओं के साज़ पर की बशीर बद्र द्वारा कवर टिप्पणी ))))
मौलाना हारून अना क़ासमी ऐसे नौजवान ग़ज़ल के शायर हैं जिनके फिक्रोफ़न में इनकी सच्ची रियाज़त वसीअ मुतालआ शायराना सदाकत है ।
इनके अच्छे शेरों में ग़ज़ल की सदियों की परम्पराएं अपने ज़माने से बड़े प्यार
से गले मिल रही हैं । इन रिवायतों में नया लबो-लहज़ा इनकी अपनी पहचान बनाने में पूरी तरह कामयाब हो रहा है । इनके कुछ अच्छे शेर सुब्ह की धूप में मुस्कुराते फूलों की तरह उजले उजले हैं ।
मुझे यकीन है कि हमारे हिन्दी के नौजवान दोस्त भी इस मजमूए को ज़रूर पसन्द करेंगे ।

डा. बशीर बद्र
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'हवाओं के साज़ पर कीं कुछ गज़लें



1 ग़ज़ल
कभी हाँ कुछ, मेरे भी शेर के पैकर1 में रहते हैं
वही जो रंग, तितली के सुनहरे पर में रहते हैं

निकल पड़ते हैं जब बाहर, तो कितना ख़ौफ़ लगता है
वही कीड़े, जो अक्सर आदमी के सर में रहते हैं

यही तो एक दुनिया है, ख़्यालों की या ख़्वाबों की
हैं जितने भी ग़ज़ल वाले, इसी चक्कर में रहते हैं

जिधर देखो वहीं नफ़रत के आसेबों 2 का साया है
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब कहाँ किस घर में रहते हैं

वो जिस दम भर के उसने आह, मुझको थामना चाहा
यक़ीं उस दम हुआ, के दिल भी कुछ पत्थर में रहते हैं

1 सांचा 2 भूत
ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी



2 ग़ज़ल
माने जो कोई बात, तो इक बात बहुत है
सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है

दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर इक बात
ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है

महिने में किसी रोज, कहीं चाय के दो कप
इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है

रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी
इस दौर में अब इतनी मदारात1 बहुत है

दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम
कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है

फिर तुमको पुकारूंगा कभी कोहे 'अना'2 से
अय दोस्त अभी गर्मी-ए- हालात बहुत है

1. हमदर्दी 2. स्वाभिमान
ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी

3 ग़ज़ल
बहुत वीरान लगता है, तिरी चिलमन का सन्नाटा
नया हंगामा माँगे है, ये शहरे-फ़न का सन्नाटा

कोई पूछे तो इस सूखे हुए तुलसी के पौधे से
कि उस पर किस तरह बीता खुले आँगन का सन्नाटा

तिरी महफ़िल की रूदादें बहुत सी सुन रखीं हैं पर
तिरी आँखों में देखा है, अधूरेपन का सन्नाटा

सयानी मुफ़लिसी फुटपाथ पर बेख़ौफ़ बिखरी है
कि दस तालों में रहता है बिचारे धन का सन्नाटा

ख़ुदाया इस ज़मीं पर तो तिरे बन्दों का क़ब्ज़ा है
तू इन तारों से पुर कर दे मिरे दामन का सन्नाटा

मिरी उससे कई दिन से लडा़ई भी नहीं फिर भी
अ़जब ख़श्बू बिखेरे है, ये अपनेपन का सन्नाटा

तुम्हें ये नींद कुछ यूँ ही नहीं आती 'अना ' साहिब
दिलों को लोरियाँ देता है हर धड़कन का सन्नाटा

ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी


4 ग़ज़ल
ये फ़ासले भी, सात समन्दर से कम नहीं
उसका ख़ुदा नहीं है, हमारा सनम नहीं

कलियाँ थिरक रहीं हैं, हवाओं के साज़ पर
अफ़सोस मेरे हाथ में काग़ज़ क़लम नहीं

पी कर तो देख इसमें ही कुल कायनात है
जामे-सिफ़ाल1 गरचे मिरा जामे-जम2 नहीं

तुमको अगर नहीं है शऊरे-वफ़ा तो क्या
हम भी कोई मुसाफ़िरे-दश्ते-अलम3 नहीं

टूटे तो ये सुकूत4 का आलम किसी तरह
गर हाँ नहीं, तो कह दो ख़ुदा की क़सम,नहीं

इक तू, कि लाज़वाल5 तिरी ज़ाते-बेमिसाल
इक मैं के जिसका कोई वजूदो-अ़दम6 नहीं

1. मिट्टी का प्याला 2. जमशेद बादशाह का
वो प्याला जिसमें वो सारा संसार देखता था
3. मुसीबतों के जंगल का राही 4. ख़ामोशी
5. अमिट 6. अस्तित्व एवं नश्वरता

ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी


5 ग़ज़ल
कभी वो शोख़ मेरे दिल की अंजुमन तक आये
मेरे ख़्याल से गुज़रे मेरे सुख़न1 तक आये

जो आफ़ताब थे ऐसा हुआ तेरे आगे
तमाम नूर समेटा तो इक किरन तक आये

कहे हैं लोग कि मेरी ग़ज़ल के पैकर2 से
कभी कभार तेरी ख़ुशबू-ए-बदन तक आये

जो तू नहीं तो बता क्या हुआ है रात गये
मेरी रगों में तेरे लम्स3 की चुभन तक आये

अब अश्क पोंछ ले जाकर कहो ये नरगिस4 को
अगर तलाशे-नज़र है मेरे चमन तक आये

तमाम रिश्ते भुलाकर मैं काट लूँगा इन्हें
अगर ये हाथ कभी मादरे-वतन तक आये

जो इश्क़ रूठ के बैठे तो इस तरह हो 'अना'
कि हुस्न आये मनाने तो सौ जतन तक आये

1 कवित्व 2 सांचा 3 स्पर्श 4 घने जगंल में खिलने वाला फूल

मौलाना हारून 'अना' क़ासमी


6 ग़ज़ल
ख़बर है दोनों को दोनों से दिल लगाऊँ मैं
किसे फ़रेब दूँ किस से फ़रेब खाऊँ मैं

नहीं है छत न सही आसमाँ तो अपना है
कहो तो चाँद के पहलू में लेट जाऊँ मैं

यही वो शय है कहीं भी किसी भी काम में लो
उजाला कम हो तो बोलो कि दिल जलाऊँ मैं

नहीं नहीं ये तिरी ज़िद नहीं है चलने की
अभी अभी तो वो सोया है फिर जगाऊँ मैं

बिछड़ के उससे दुआ कर रहा हूँ अय मौला
कभी किसी की मुहब्बत न आज़माऊँ मैं

हर एक लम्हा नयापन हमारी फ़ितरत है
जो तुम कहो तो पुरानी ग़ज़ल सुनाऊँ मैं

ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी


7 ग़ज़ल
यूँ इस दिले नादाँ से रिश्तों का भरम टूटा
हो झूठी क़सम टूटी या झूठा सनम टूटा

सागर से उठीं आहें, आकाश पे जा पहुँचीं
बादल सा ये ग़म आख़िर बा दीदा-ए-नम टूटा

ये टूटे खंडहर देखे तो दिल ने कहा मुझसे
मसनूई1 ख़ुदाओं के अबरू का है ख़म टूटा

बाक़ी ही बचा क्या था लिखने के लिए उसको
ख़त फाड़ के भेजा है, अलफ़ाज़ का ग़म टूटा

उस शोख़ के आगे थे सब रंगे धनक फीके
वो शाख़े बदन लचकी तो मेरा क़लम टूटा

बेचोगे 'अना' अपनी बेकार की शय2 लेकर
किस काम में आयेगा जमशेद3 का जम4टूटा

1 झूठे 2 चीज़ 3 एक बादशाह 4 उसका मशहूर प्याला

ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी


8 ग़ज़ल
ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र है
मैं डूबता सूरज हूं तू बहता समन्दर है

सोने का सनम था वो, सबने उसे पूजा है
उसने जिसे चाहा है वो रेत का पैकर है

जो दूर से चमके हैं वो रेत के ज़र्रे हैं
जो अस्ल में मोती है वो सीप के अन्दर है

दिल और भी लेता चल पहलू में जो मुमकिन हो
उस शोख के रस्ते में एक और सितमगर है

दो दोस्त मयस्सर हैं इस प्यार के रस्ते में
इक मील का पत्थर है, इक राह का पत्थर है

सब भूल गया आख़िर पैराक हुनर अपने
अब झील सी अंाखों में मरना ही मुक़द्दर है

अब कौन उठाएगा इस बोझ को किश्ती पर
किश्ती के मुसाफ़िर की अंाखों में समन्दर है

ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी



9 ग़ज़ल
दिल की हर धड़कन है बत्तिस मील में
वो ज़िले में और हम तहसील में

उसकी आराइश1 की क़ीमत कैसे दूँ
दिल को तोला नाक की इक कील में

कुछ रहीने मय2 नहीं मस्ते ख़राम
सब नशा है सैण्डिल की हील में

यक-ब-यक लहरों में दम सी आ गई
लड़कियों ने पाँव डाले झील में

उम्र अदाकारी में सारी कट गई
इक ज़रा से झूठ की तावील3 में

आप कहकर देखियेगा तो हुज़ूर
सर है ह़ाज़िर हुक्म की तामील में

सैकड़ों ग़ज़लें मुकम्मल हो गईं
इक अधूरे शेर की तकमील4 में

1 श्रंगार 2 शराब की अहसानमंद 3 बात घुमाना 4 पूरा करने की कोशिश

ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी

10. ग़ज़ल
खैंची लबों ने आह कि सीने पे आया हाथ
बस पर सवार दूर से उसने हिलाया हाथ

महफ़िल में यूँ भी बारहा उसने मिलाया हाथ
लहजा था ना-शनास1 मगर मुस्कुराया हाथ

फूलों में उसकी साँस की आहट सुनाई दी
बादे सबा2 ने चुपके से आकर दबाया हाथ

यँू ज़िन्दगी से मेरे मरासिम3 हैं आज कल
हाथों में जैसे थाम ले कोई पराया हाथ

मैं था ख़मोश जब तो ज़बाँ सबके पास थी
अब सब हैं लाजवाब तो मैंने उठाया हाथ

1 अपरिचित 2 सुबह की खुश्बूदार हवा 3 तअल्लुक़ात

मौलाना हारून 'अना' क़ासमी


Posted by Ramkesh patel at 4:05 AM 0 comments
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