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Saturday 8 June 2013

बुन्देलखण्ड में स्वाधीनता की अग्नि शिखाए

बुन्देलखण्ड में स्वाधीनता की अग्नि शिखाए
-डॉ. बहादुर सिंह परमार
बुन्देलखण्ड अंचल में स्वाधीनता का भाव कूट-कूट कर भरा है इसीलिए यह भू भाग विदेशियों के अधीन लम्बे समय तक नहीं रहा । यहाँ की जनता ने स्थानीय देशी राजाओं को तो स्वीकारा किन्तु फिरंगी चाहे वे अंग्रेज हों या  मुगल उन्हें स्वीकार नहीं किया । इस कारण  मुगल काल में शासकों ने देशी राजाओं को मोहरा बनाकर ही इस भू भाग पर मनमानी करने का प्रयास किया जिसका विरोध समय-समय पर अनेक जन नायकों ने किया जिनमें छत्रसाल का नाम सर्वोपरि आता है । छत्रसाल के स्वर्गवासी होने पर उनके उत्तराधिकारियों की अक्षमता से यह अंचल छोटी-छोटी राजनैतिक इकाइयों में बंटा कालान्तर में अंग्रेजोें ने भी इसे अपने प्रभाव में लेने का प्रयत्न किया जिसका उन्हें मुंहतोड़ उत्तर दिया गया । यह बात अलग है कि अंग्रेजों की शक्ति के सामने यहाँ का जन संघर्ष सफलता के चरण नहीं चूम सका लेकिन अन्याय का प्रतिकार कर स्वाधीनता भाव के लिए यहाँ की जनता ने विदेशियों की पुरजोर खिलाफत कर अपनी भावनायें अंकित कराईं । 
दीवान बहादुर गोपाल सिंह का संघर्ष:-
श्री गोपाल सिंह शाहगढ़ जिला सागर के निवासी थे । वे प्रारम्भ में जसों के राजा छत्रसाल क पौत्र दुर्जन सिंह व हरी सिंह की सेना में महत्वपूर्ण पदों पर रहे । उनकी शक्ति 1790 ई. के बाद तब काफी बढ़ गई जब उन्होेंने अली बहादुर से परगना कोटरा छीन कर उस पर अधिकार कर लिया । इसी कोटरा के उत्तराधिकार को लेकर राजा बखत सिंह से उनका विवाद चल रहा था जिसमंे अंग्रेजी शासन बखत सिंह का पक्ष ले रही थी जिससे गोपाल सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ खुला संघर्ष किया । वे अनेक वर्षों तक अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध लड़ते रहे और अंग्रेज अधिकारी व सेना उनका बाल भी बांका नहीं कर सके । ब्रिटिश सैनिक अधिकारी कर्नल मार्टिन्डेल, मेजर कैलिम, कैप्टन बिल्सन, मेजर डेलामेन, मेजर मॉर्गन, कर्नल ब्राउन, मेजर लेसली तथा कर्नल वाटसन आदि ने गोपाल सिंह को परास्त कर पकड़ने की कोशिश की किन्तु वे सफल नहीं हुए । अंग्रेज लेखक एडविन टी.एडकिन्स ने अपनी कृति ’स्टेटस्टिकल डिस्क्रिप्टिव एण्ड हिस्टोरिकल एकाउण्ट और दि नार्थ प्राविन्सेज औफ इंडिया’ (प्रकाशक -गवर्नमेन्ट प्रेस, इलाहाबाद 1874) के पृष्ठ 48 पर श्री गोपाल सिंह के शौर्य व पराक्रम  का वर्णन करते हुए उनके लिए ’कुशल, युद्धप्रिय एवं अनुभवी प्रमुख’ जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है । गोपाल सिंह को पराजित करने के लिए अंग्रेजों ने 3 बटालियन इन्फेन्ट्री,  रेजीडेन्ट कैवेलरी कमाण्डर विन्च के नेतृत्व में करबी के समीप तरावन में रखी । इस सैन्य केन्द्र को गोपाल सिंह ने नष्ट कर जला दिया था जिसके जले हुए खण्डहर अभी भी मौजूद हैं । इसी कमाण्डर विन्च तथा गोपाल सिंह के मध्य पिपरिया में घनघोर युद्ध हुआ था जिसमें कमाण्डर विन्च तथा उसकी सेना को गोपाल सिंह ने बुरी तरह पराजित किया था । यद्यपि गोपाल सिंह के पास सैन्य शक्ति अपेक्षाकृत काफी कम थी परन्तु उन्होंने अपने साहस, सूझबूझ एवं रण कौशल से पहले तो अपने को व अपनी सेना को सामने से सुरक्षित निकाला और बाद में फिर उनका पीछा करने वाली फौज पर जबर्दस्त आक्रमण कर दिया जिससे विन्च को मुंह की खानी पड़ी । इसके बाद गोपाल सिंह ने तरावन की फौजी छावनी में आग लगा दी । यहाँ पर एक बात और ध्यातव्य है कि गोपाल सिंह बहादुर होने के साथ बड़े धार्मिक प्रवृत्ति के थे । इसीलिए एक बार का किस्सा है कि गोपाल सिंह को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने उनकी घेराबन्दी की । अंग्रेजों को बताया गया था कि गोपाल सिंह कभी भी गायों पर गोली वर्षा न होने देंगे, इसलिए गायों को आगे करके उन पर हमले का प्रयास किया गया किन्तु चतुरता से गोपाल ंिसंह ने गायों के निकल जाने पर पेड़ो से अंग्रेजो पर हमला कर दिया  जिससे अंग्रेजों के मंसूबे असफल हो गये । गोपाल सिंह ने बुन्देलखण्ड में सबसे पहले अंग्रेजों के विरुद्ध लम्बा संघर्ष उस समय किया जब एक के बाद एक सभी राजे महाराजे अपने-अपने राज्य एवं पद की सुरक्षा हेतु अंग्रेजों की गुलामी स्वीकारते जा रहे थे । कहीं से भी कोई सहायता अंग्रेजों के विरुद्ध मिलना दुर्लभ हो गया था ऐसे कठिन समय में इन्हेांने अदम्य साहस व शौर्य का परिचय देकर अंग्रेजों को मजबूर कर दिया था कि वे उन्हीं की शर्तों पर सनद दें । अंग्रेजों ने विवश होकर बाद में गोपाल सिंह से संधि कर ली थी और उनकी 18 गांव की जागीर गर्रोली को मान्यता दी थी । 
जैतपुर महाराज पारीछत व महारानी राजो की शौर्य गाथा-
सन् 1802-03 में बेसिन संधि के बाद अंग्रेजों ने बुन्देलखण्ड के अनेक राजा महाराजाओं पर दबाव डालकर संधियां की । अंग्रेजों ने 1812 तक खास कूटनीति के तहत बुन्देलखण्ड के बड़े बड़े राज्यों ओरछा, पन्ना, दतिया आदि से संधियाँं कर तथा छोटे राज्यों सरीला, जिगनी, ढुरबई, बिजना, चिरगाँव, समथर गौरिहार तथा अजयगढ़ को सनदें देकर अपने लिए दक्षिण जाने का सुरक्षित रास्ता ले लिया था । अंग्रेजों की सेनाओं तथा कारिन्दों द्वारा लगातार बुन्देलखण्ड में दक्षिण जाते समय तथा अन्य साधारण समय में जनता के साथ मारपीट, किसानों के खेतों को फसलांे को चराने तथा महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएँ की जातीं थीं जिससे यहाँ की प्रजा तथा राजा अंग्रेजों से लगातार परेशान रहते थे । ऐसी ही परिस्थितियों में बनारस में होने वाले बुढ़वा मंगल की तर्ज पर चरखारी मंे संवत् 1893 में बुढ़वा मंगल का आयोजन किया गया जिसमें प्रस्ताव पारित किया गया कि अंग्रेजों को पहले बुन्देलखण्ड से तथा बाद में भारत से खदेड़ा जाय, इसके लिए शपथे ली गई किन्तु कहा जाता है कि चरखारी के राजा रतन सिंह ने छाती में लवा (पक्षी) छिपाकर कसम खाकर विश्वासघात करने की ठान ली थी । इस बुढ़वा मंगल के बाद जैतपुर के महाराज पारीछत ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष हेतु तीन चार वर्षों तक गुपचुप तैयारी की । सेना में भर्तियाँ की गढ़ी और किले में मोर्चे बनवाये, हथियार और यन्त्र ढलवाये । हर बोलों के माध्यम से समाज में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण तैयार किया गया । अंग्रेजों के गुप्तचरों को जैतपुर के महाराज पारीछत की तैयारी की सूचना देर से प्राप्त हुई लेकिन जैसे ही सूचना प्राप्त हुई तुरन्त ही अंग्रेजों द्वारा राठ के पास वर्मा नदी के किनारे कैंथा गांव में छावनी बनाई गई और उसके बाद मेजर स्लीमैन ने जैतपुर महाराज पारीछत के सामने सहायक संधि करने का प्रस्ताव रखा जिसके अनुसार राज्य की रक्षा का भार अंग्रेजों पर होता था और उसके बदले अंग्रेज सेना का व्यय राज्य को चुकाना पड़ता था । इस गुलामी को क्रांति का स्वप्न देखने वाला वीर कैसे स्वीकरता ? अतः उन्होंने इन्कार किया । इन्कार करते ही अंग्रेजों ने पनवाड़ी पर आक्रमण कर दिया जिस पर जैतपुर की सेनाओं ने अंग्रेजों को परास्त कर दिया जिस पर मेजर स्लीमैन तिलमिला गया और उसने इलाहाबाद से सेना बुलाकर कैथा से स्वयं सेना लेकर जैतपुर को रवाना हुआ । इसी के साथ लाहौर को जाती सेना को नौगांव छावनी में रोककर उसे पूर्व की तरफ से जैतपुर पर हमला करने का आदेश दिया । महाराज पारीछत ने सभी राजाओं को संदेश भेजकर बिलगांव में मोर्चा जमाया ताकि उन सबके आने पर क्रांति का बिगुल बजाया जा सके । तब तक स्लीमैन को रोकना जरूरी था । वर्मा नदी के किनारे बिलगांव का मैदान रण हेतु चुना और वहांँ पर उत्तर की ओर मार करने के लिए रूई भरी गांँठों की दीवारें खड़ी गईं, दूसरी कतार में रेत भरे बोरे रखे गये । पुरैनी, बिलगांव, सिवनी, मुस्करा और आसपास के गांव जवान एकत्र हो गए और यहाँ पर अंग्रेजी सेना को मुंह की खानी पड़ी किन्तु इस युद्ध में बुन्देलखण्ड के अन्य देशी राजाओं का अपेक्षित सहयोग राजा पारीछत को नहीं मिला । बिलगाँव युद्ध में भी जीत का जश्न  चल ही रहा था कि इस बीच मेजर स्लीमैन वेश बदलकर रियासत के दीवान से मिला और उसे जागीर का प्रलोभन देकर उसे खरीद लिया, इसी परिप्रेक्ष्य में उसने शब्दवेधी गोलंदाज को स्वर्णमाला की पहली किश्त देकर अपनी ओर मिला लिया।इन दोनो दोगलांे के अंग्रेजांे से मिलते ही जैतपुर पर खतरे के बादल मंडराने लगे। इधर देशी राजाओं से अपेक्षित सहयोग मिलते न देख महाराज पारीक्षित स्वयं चरखारी नरेश से मिलने जाते है और उधर दीवान भेद लेकर स्लीमैन के पास जाता है। चरखारी नरेश भी दोगला आचरण करके पारीक्षत के साथ  करते रहे । इसके बाद अंग्रेजों ने जैतपुर पर हमला कर दिया इसी बीच महाराज पारीक्षित चरखारी से वापस लौटे तो उन्होंने अंग्रेजो से संघर्ष कर उन्हें भागने पर विवश कर दिया किन्तु उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि हमारे दीवान तथा अन्य अधिकारी धोखेबाज हो गये है तो उन्होनें सुबह होने के पूर्व किले से जाने की तैयारी कर बगौरा की डांग की ओर गए दूसरी तरफ रनिवास को सेना के घेरे मे भेजा गया। इसके बाद खाली किले पर स्लीमैन ने कब्जा किया तथा दीवान व गोलंदाग को जागीर के बदले मौत का इनाम दिया । राजा पारीक्षत के पीछे अंग्रेजी सेना को दौड़ाया । अंग्रेजों से पारीक्षित की महारानी राजों का संघर्ष ज्योराहा के पास बुकरा खेरे मे हुआ जहॉँ महारानी राजो के साथ रानी के पिता बहादुर सिंह टटम भी लडे । इस युद्ध में अंगेज सेना पराजित होकर वापस जैतपुर लौट आई। इसके बाद दूसरी लडाई बारीगढ में हुई यहा भी अंग्रेज हारे। तीसरी लड़ाई झोमर में हुई जहाँॅ महारानी के पिता बहादुर सिह को वीर गति प्राप्त हुई ओैर रानी जंगल की ओर भागने को विवश हुई इधर बगौरा के जंगल में पारीछत ने युद्ध की तैयारी की और उधर से अंग्रेज भी फोैज लेकर आ गये। उनके बीच कई युद्ध हुए क्यांेकि महाराज पारीछत गुरिल्ला या छापामार युद्ध का सहारा ले रहे थे। लाहौर जाने वाली फौज भी नौगांव से चलकर जंगल मे आ चुकी थी । इस बीच राजा कई बार जीते, कई बार हारे । कहॉँ तक अकेले जूझते तो साथियांे सहित अदृश्य हो गये। यह आजादी का परिन्दा गुलामी के पिंजड़ांे मेंेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे रहना कैसे पसन्द करता, उसने पहाड़ों और जंगलांे की खाक छानना बेहतर समझा। राजा और रानी दोनोें खानाबदोशों की तरह एक जगह से दूसरी जगह फिरते रहे स्लीमैन ने घोषणा कर दी थी कि जहाँ पारीछत मिलेंगे उस राज्य को अंग्रेजी राज्य में शामिल कर लिया जायेगा । इस वजह से सभी रियासतों में भय व्याप्त था, पर प्रजा ने निर्भय होकर राजा परीछत और रानी राजो की भरपूर सहायता की । राजा और रानी को बमीठा में मिलवा दिया तथा राजगढ़ के किले में रहने का प्रबंध कर दिया । इस बीच गर्रोली के राजा पारीछत ने जैतपुर महाराज की काफी सहायता की । 
महाराज पारीछत ने अपने भतीजे चरखारी नरेश से भी मदद की अपेक्षा की किन्तु वे अंग्रेजों से भयग्रस्त थे और उन्होंने भी इस आजादी के दीवाने को धोखा ही दिया । इसके  बाद अलीपुरा के पास जोरन गाँव में स्थित एक जंगली गढ़ी में राजा और रानी रहने लगे । अंग्रेजों को जासूसों से यह खबर भी मिल गई कि ये दोनों जोरन में रह रहे हैं तो स्लीमैन वहाँ पहुंच गया और मशीनगनों से घेर लिया । जब स्लीमैन आया तब राजा पूजा कर रहे थे तो महारानी राजो ने बारूद के कमरे में आग लगा दी जिससे भारी विस्फोट हुआ जिसमें रानी राजो शहीद हो गई और पारीछत व स्लीमैन बच गए । इसके बाद पारीछत को गिरफ्तार किया गया किन्तु उनकी मृत्यु को लेकर विभिन्न मत व्याप्त हैं । एक जनश्रुति है कि पारीछत अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो गए और बमीठा के पास उनकी मृत्यु हुई जबकि दूसरी जनश्रुति है कि बंदी पारीछत कानपुर के हाता सवाई सिंह में नजर कैद रखे गऐ और वहीं सन् 1853 ई. में स्वर्गवासी हुए । तीसरी जनश्रुति कानपुर में फांसी देने के सम्बन्ध में है । महाराज पारीछत की यह शौर्य गाथा बुन्देलखण्ड में लोक कण्ठ का हार है । महाराज पारीछत के युद्ध कौशल का वर्णन इस लोकगीत में दृष्टव्य है:-
’’पारीछत बड़े महाराज, किले के लानें जोर भंजाई राजानें । 
चरखारी मंगल रची, सब राजा लये बुलाय । 
पारीछत मुजरा करें, राजा रये मुख जोर ।।
गुर्जन-गुर्जन कोई पुतरिया, गजमाला कोई सवास ।
ठाँड़ी बिसूरे मानिक चौक में, कोई नइयाँ पीठ रनवास ।।
किले पार खाई खुदी, दौरें हते मसान । 
भैंसासुर छिड़ियां थपे, दरवाजें पवन हनुमान ।।
कै सूरज गाहन परे, कै नगर मचाई हूल ।
कोउ ऐसो दानो पत्रो, सूरज भये अलोप ।।
पैली न्याँव धँधवा भई, दूरी री कछारन माँह ।
तीजी मानिक चौक में, जँह जंग नची तलवार ।।
अरे बावनी में जोर भँजा लई राजा ने ।”
अंग्रेजों के विरुद्ध सन् 1842 का विद्रोह:- 
बुन्देलखण्ड में सन् 1842 में ब्रिटिश कर्नल ओसले द्वारा घोषित राजस्व नीति के परिणाम स्वरूप यहाँ के जमींदार, जागीरदार और राजा-महाराजा तो शोषण के शिकार हो ही रहे थे, साथ ही इसका प्रभाव आम जनता पर पड़ रहा था । ओसले की इस राजस्व नीति के तहत अनेक भू-स्वामियों की भूमि छीन ली गईं तथा अनेक भू-स्वामियों की जमीनें कुर्क कर ली गई । इसके अतिरिक्त अनेक जागीरदारों की जागीरें एंव अनेक राजाओं की रियासतें छीन ली जिससे बुन्देला वीरों का खून खौल उठा और देशभक्त बुन्देली वीर अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए । विद्रोह व संघर्ष की शुरूआत नारहार के वीर बुन्देला मधुकर शाह तथा इनके भाई गणेश जू एवं चंद्रपुर के मालगुजार जवाहर सिंह द्वारा की गई । 8 अप्रैल 1842 को मधुकरशाह, गनेश जू तथा जवाहर सिंह ने अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया । इसी के साथ बुन्देलखण्ड में संघर्ष की लहर चारों ओर फैल गई । मधुकर शाह आदि ने मालथौन पर हमला करके उसे अपने कब्जे में ले लिया जिससे नाराज होकर अंग्रेज अधिकारी एम.सी. ओमेनी ने मधुकरशाह व गनेश जू के बूढ़े पिता राव विजय बहादुर सिंह को गिरफ्तार कर लिय तथा मधुकरशाह व गणेश की गिरफ्तारी हेतु उनके बगीचे में सैनिकों का पड़ाव डाल दिया जिस पर मधुकर शाह, गणेश जू जवाहिर संिह विक्रमजीत सिंह, दीवान हीरा ंिसह, राजधर एवं क्षमाधर अग्निहोत्री आदि ने अंग्रेजी सेना पर हमा कर वहां से उन्हें मार भगाया जिसमें अनेक अंग्रेज सिपाही मारे गए । इसके बाद सभी क्रांतिकारी खिमलासा गए और वहां अंग्रेजों को परास्त कर मौत के घाट उतार कर लूटपाट की । तदुपरान्त सभी क्रांतिकारियों का दल बड़ा डोंगरा पहुंचा जिसमें क्षेत्र के अनेक लोग और शामिल हो गए । इस क्षेत्र में अंग्रेजों व अंग्रेजपरस्त लोगों की नींद हराम कर दी गई । इसी बीच 15 अप्रैल 1842 को क्षमाधर अग्निहोत्री व उनके साथियों की हत्या कर दी गई जिससे जन अक्रोश और भड़क गए 30 अप्रैल 1842 को ओमिनी ने अपनी दमनकारी नीति के तहत् मधुकर शाह, गणेशजू, जवाहर सिंह आदि को बागी घोषित कराकर इनको जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर इनाम घोषित करा दिया । इसी बीच रमझरा में सभी क्रांतिकारी एकत्र हुए जिसमें ठाकुर इन्द्रजीत सिंह दतिया था राव विजय सिंह सहित लगभग दो सौ क्रांतिकारी इकट्ठे हुए । इसके बाद इसी दल में नारहार के तीन सौ लोग और शामिल हो गए । इस समय जवाहर सिंह चन्द्रपुर में उपस्थित थे । चन्द्रपुर से जवाहर सिंह का संदेश मिलने पर मधुकर शाह सभी साथियों सहित चन्द्रपुर की ओर बढ़े । वहाँ से मशालचियों को शामिल कर यह क्रांतिकारी टुकड़ी पथरिया होते हुए ईसुरवारा पहुंची वहां 7 मर्इ्र 1842 के बीना नदी के पास अंग्रेजों से इसकी मुठभेड़ हो गई । इसमे लगभग पचास क्रांतिकारी शहीद हुए तथा कुछ घायल हुए किन्तु मुखिया कोई नहीं पकड़े जा सके ।  इसके बाद कैप्टन मैकिन्टोष के नेतृत्व में नाराहर से 8मील की दूरी  पर गोना गांव अंग्रेज पहुंचे वह जिसे क्रांतिकारी ने लूट लिया था । तदुपरान्त लगातार क्रंातिकारी अंग्रेजी शासन को छकाते रहे फिर अंग्रेजी शासन ने एक नीति के तहत इन्हें हाजिर कराने की रणनीति बनाई जिसके तहत मधुकर शाह व गणेशजू के पिता राव विजय बहादुर सिंह को 25 मई 1842 को रिहा कर दिया । किन्तु इससे क्रांतिकारियों पर कोई असर नहीं पड़ा तथा वे अपनी गतिवधियों में लगातार संलग्न रहे जिसके  परिणाम स्वरूप 19 जून 1842 को अंग्रेज अफसर मेकिनटोस के नेतृत्व वाली फिरंगी सेना से पंचमनगर मे हो गई जिसमें कई अंग्रेज सैनिक मारे गऐ तथा 15-20 क्रांतिकारी भी शहीद हुए । 
क्रांतिकारी लगातार संघर्ष करते रहे उन्होने जून 1842 में चन्द्रपुर तथा खुरई पर आक्रमण किया क्योंकि ये अंग्रेजी सत्ता के केन्द्र थे । ग्राम देवरी में जवाहर सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों पर हमला किया गया जिसमें कई अंग्रेज सैनिक मारे गऐ । बेसरा गाँव के थाने में क्रांतिकारियों ने आग लगादी । 16 जुलाई 1842 को इन्हीं क्रंातिकारियों ने अंग्रेजों के अभेद्य दुर्ग धामौनी पर हमला कर उसे जीत लिया जिसमें 5 अरबी घोड़ा, 7780 रुपये तथा काफी अस्त्र शस्त्र क्रांतिकारियों को मिले । इसी के बाद शाहगढ़ के राजा बखतवली शाह तथा वानपुर के राजा मर्दन सिंह भी इन क्रांतिकारियों के साथ हो लिए । उनको जैतपुर के अपदस्थ राजा पारीछत का भी खुला सहयोग मिल रहा था । ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध बुन्देलाओं के विद्रोह के समय ही हीरापुर के लोधी राजा हिरदेशाह ने भी अंग्रेजों की खिलाफत करने हेतु बहरौल में मलखान सिंह मुखिया के नेतृत्व मंे बैठक बुलाकर निर्णय लिया कि वे ब्रिटिश हुकूमत की अन्यायपूर्ण नीतियों का विरोध करेंगे । इस बैठक में करीब ढाई-तीन सौ क्रांतिकारी शामिल हुए थे । बैठक में मदनपुर के गौंड़ राजा डेलनशाह दिलावर के गौड़ माल गुजार दिलावर सिंह और नरबर सिंह भी शामिल थे । इस बैठक की खबर अंग्रेजों को लगी तो लेफ्टिनेंट हरबर्ट तथा लेफ्टीनेंस राइकेश को बहरौल में अंग्रेज दाखिल हुए । इस लड़ाई में 15 क्रांतिकारी शहीद हुए । इन क्रांतिकारियों ने सक्रिय होकर सागर तथा नरसिंहपुर जिले में अनेक स्थलों पर अपनी सजा कायम की । इन्होंने महाराजपुर तथा सुआतला पर अपना कब्जा जमा लिया । सुआतल के बुन्देला ठाकुर रन्जोर सिंह भी क्रांतिकारियों से मिल गऐ । क्रांतिकारियों ने नर्मदा के घाटों पर अपनी सैनिक टुकड़ियां तैनात कर दी तथा अनेक स्थानों को अंग्रेजों से छीनकर अपने पटवारी तथा नाजिर नियुक्त कर दिय । नर्मदा घाटों पर कब्जा के बाद तेंदूखेड़ा पर क्रांतिकारियों ने बिना संघर्ष के अपना अधिकार कर लिया । इन्हीं क्रांतिकारियों ने होशंगाबाद जिले के दिलवार पर भी कब्ज जमा लिया । इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिये थे जिससे जनरल टॉमस ने कार्नल वॉटसन को तेजगढ़ को भेजा वहां अनेक अंग्रेज सिपाही मारे गए तथा क्रांतिकारियों ने तेजगढ़, अभाना तथा बालाकोट स्थानों पर आधिपत्य जमा लिया । इस तरह इन स्वतंत्रता के दीवानों ने नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह तथा नर्मदा पार के बड़े भू-भाग पर अपना कब्जा जमाकर उसे अंग्रेजी भय से मुक्त करा दिया । अब अंग्रेजों ने आमने सामने न लड़कर कूटनीति का सहारा लेकर जबलपुर जिले में हर 10 मील पर निगरानी केन्द्र खोले गये तथा सीमावर्ती जिलांे में पुलिस बल बढ़ाया गया । ब्राउन ने हीरापुर के पास ग्राम सांँकल में 42 मद्रास रेजीमेंट की दो टुकड़ियां तैनात की जिससे हिरदेशाह पर कड़ी निगरानी रखी गई । राजा हिरदेशाह जब तेजगढ़ पहंुचे तो उनकी मुठभेड़ अंग्रेज सैनिकों से हो गई जिससे अनेक क्रांतिकारी शहीद हुए । दिसम्बर 1842 तक लगातार क्रांतिकारी गतिविधियां जारी रहीं अंग्रजों ने इन क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी पर इनाम बढ़ा दी । लेकिन सभी क्रांतिकारी अपने अपने इलाकों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे कि फरवरी 1843 में मधुकर शाह अस्वस्थ हो गए । जिससे वे अपना इलाज नाराहर में घर पर करा रहे थे । इसकी खबर जैसे ही कैप्टन हैमिल्टन को मिली उसने बीमार हालत में ही मधुकर शाह को घर से गिरफ्तार करना उचित समझा तथा नाराहर आकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया । यह खबर पाकर राजा हिरदेशाह जैतपुर से सागर के लिए रवाना हुए वे वहाँ पहुंचते इसके पहले ही मधुकरशाह को सागर में अंग्रेजों ने फाँसी दे दी । राजा हिरदेशाह को सागर जाते समय शाहगढ़ के समीप गिरफ्तार कर लिया गया । उनके साथ मेहरबार सिंह ईसरी सिंह, राव अमान सिंह सहित अनेक क्रांतिकारी पकड़े गए । मधुकर शाह की फांसी से तथा हिरदेशाह की गिरफ्तारी से क्रांति असफल हो गए किन्तु बुन्देलखण्ड ने इन वीरों ने आजादी की अलख जगाते हुए अंग्रेेजों से लड़ने का हौसला दिया तथा सैकड़ों वीर शहीद हुए । 
शाहगढ़ के राजा बखतबली का विद्रोह:-
बानपुर के शासक राजा मर्दन सिंह के सहयोग और सागर जिले के जागीरदारों, उबारीदारों के अंग्रेज विरोधी रूख के कारण शाहगढ़ के राजा बखतबली का साहस बढ़ा और उन्होंने चंदेरी के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन गार्डन को बुलाकर कहा कि ब्रिटिश शासन उनका पुराना गढ़ाकोटा का इलाका लौटा  दें किन्तु ऐसा नहीं हुआ परिणामतः राजा बखतवली ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ झंडा बुलन्द कर दिया । 3 जुलाई 1857 की रात को बखतबली के सिपाहियों ने अंग्रेजों के पंचमनगर थाने पर हमला कर उसे जीत लिया इसके बाद खुरई के किले पर 
अधिकार कर लिया जबकि वहाँ पर एक हजार सिपाही तथा दो तोपें तैनात थीं । तदुपरान्त शाहगढ़ के राजा बखतबली की ओर से खुमान सिंह ने विनायका पर अधिकार जमाया । लै. हैमिल्टन तथा ब्रिग्रेडियर सेज ने कड़े संघर्ष के बाद विनायका थाना मुक्त कराया । इसके बाद  अगले दिन क्षेत्र की जनता और अंग्रेजों के मध्य काफी संघर्ष हुआ । 14 जुलाई 1857 को बखतबली  का राज्य कायम हो गया किन्तु उसे अंग्रेजी शासन ने मान्यता नहीं । बखतबली ने इसके बाद चतुर दौआ के नेत्त्व में रहली का किला फतह किया तथा उसे वहाँ किलेदार नियुक्त कर दिया । सौंरई गांव में सभी क्रांतिकारी एकत्र होकर रणनीति तैयार कर रहे थे कि इस बात की भनक अंग्रेजों को लग गई तो उन्होंने वहां सेना भेज दी जिससे वहाँ संघर्ष हुआ । इस बीच बखतबली का संपर्क देश के अनेक क्रांतिकारियों से हो चुका था जिनमें बाँदा के नबाब अली बहादुर, तात्याटोपे आदि प्रमुख थे । 10 फरवरी 1858 गढ़ाकोटा पर अंग्रेजी सेना ने हमला बोल दिया तथा 7 मार्च को उसे जीतकर शाहगढ़ रियासत को जब्त कर लिया । इसके बाद राजा बखतबली अपने सैनिकों तथा विश्वस्त लोगों के साथ 13 मार्च को महोबा पहुंचकर तात्याटोपे से मिलते हैं और फिर मऊरानीपुर में डट जाते हैं उधर तात्याटोपे चरखारी को जीतकर 27 मार्च को मऊरानीपुर आते है । ये सब क्रांतिकारी मिलकर आगे बढ़ते हैं कि बरूवासागर के निकट बेतवा किनारे अंग्रेजी सेना से भीषण मुकाबला होता है । यहाँ क्रांतिकारियों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है फिर बखतबली कोंच पहुंचकर रानी लक्ष्मीबाई का सहयोग करते हैं । ब्रिटिश सरकार के लगातार दमन व दबाब से 5 जुलाई 1858 को बखतबली थारेन्टन के सामने आत्मसमर्पण करते हैं, इसके बाद उन्हें लाहौर जेल भ्ेाजा जाता है किन्तु अन्तिम समय में उनकी इच्छानुसार 1873 में वृन्दाावन लाया जाता है, ओर 29 सितम्बर 1873 को वे वहीं अन्तिम साँस लेते हैं । 
नौगांव छावनी, आग की लपटों में:-
सन् 1857 की क्रांति के समय नौगांँव छावनी में बारहवीं पल्टन का एक अंग और चौदहवीं असंयोजित घुड़सवारों की एक टुकड़ी तैनात थी, जिनमें बन्दूकची- चार सौ, घुड़सवार- 219, तोपखाने की नवीं बटालियन की चौथी कंपनी के 40 तोपची के अलावा पैदल सिपाही भी थे । इस फौज का कमाण्डर मेजर किरके तथा स्टाफ ऑफीसर केप्टन पी.जी. स्पाट था । नौगाँव छावनी में विद्रोह की सुगबुगाहट तो पहले से ही थी किन्तु मेरठ में विद्रोह होने के पूर्व ही नौगांव छावनी के सिपाहियों ने विद्रोह की आग भड़क उठी थी । 23 अप्रैल 1857 को भी छावनी में कुछ गोलियांँ दागी गयीं थीं । इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के वास्ते दो तोपें छावनी के पीछे वाले रास्ते पर तैनात कर दीं थीं । इसके बाद सिपाहियों में लगातार असंतोष पनपता रहा । 30 मई की शाम को वेतन हवलदार के माध्यम से अंग्रेज अफसरों को खबर मिली कि कुछ सैनिक विद्रोह का षडयंत्र रच रहे हैं । तो इस पर सूबेदार बैजनाथ, पंडित हवलदार, सरदार खाँ, तथा सीताराम को डराया धमकाया गया तथा वे नहीं माने तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया । 10 जून  केा नौगाँव छावनी में क्रांति हो गई । इसकी खबर पाते ही अंग्रेज अधिकारी टाउनशैण्ड, ईबार्ट तथा स्कॉर्ट लाइन में आये तो देखा कि सिपाहियों ने तोपों पर कब्जा कर लिया है । ईबार्ट ने कुछ आदमियों के सहयोग से तोपें छीनने का प्रयास किया किन्तु उसकी एक न चली । स्कॉर्ट ने तुरन्त बिगुल बादक को बिगुल बजाने का निर्देश दिया, उसने बिगुल बजाने से मना कर दिया । इस बीच आजादी के दीवाने सिपाहियों ने तोपों से फायरिंग शुरू कर दी । इस पर स्वयं स्कॉर्ट ने खतरे का बिगुल बजाया किन्तु कोई सैनिक उपस्थित नहीं हुआ । ईबार्ट तथा स्कॉर्ट ने आगे बढ़ने की कोशिश की किन्तु सिपाहियों ने उन्हें रोक दिया । इसके बाद मैस भवन, शस्त्रागार, आदि पर सिपाहियों ने कब्जकर बैरकों के घुड़सवारों को बचाते हुए क्लब में रखे कीमती बिलयर्ड में आग लगा दी । छावनी के खजाने को लूट लिया, इसमे 1,21,094 /- रुपये क्रांतिकारियों के हाथ लगे । कार्यालय के रिकार्ड को चला दिया गया । अंग्रेज अधिकारियों ने देखा कि छावनी लूटने के बाद बाजार लूटने के लिए क्रांतिकारी बढ़ रहे हैं । अंग्रेजी अधिकारियों ने किसी तरह से छुप छुपाकर अपनी जान बचायी और वे वहाँ से भाग गये । 
झींझन के दिमान देशपत बुन्देला की सौर्य गाथा:-
दिमान देशपत बुन्देला, छतरपुर की रानी के भाई के पुत्र और महाराजा छत्रसाल के वंशज थे । वे गाँव झींझन में रहते थे । वे अंग्रेजों की नाक में दम करने वाले ऐसे योद्धा थे कि जिनको अंग्रेज आमने-सामने की लड़ाई में कभी न पकड़ सके । उन्हें छल पूर्वक मारा गया दिमान देशपत अंग्रेज अत्याचार का खुला विरोध करने वाले थे । 10 जून 1957 को नौगांव छावनी के बागी सैनिक भी दिमान देशपत से आ मिले थे । इस छावनी में क्रांति की चिनगारी डालने का काम भी दिमान देशपत का हाथ था । इन्होंने जैतपुर के महाराज व महारानी को आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण सहयोग देने के साथ तात्याटोपे व वीरांगना लक्ष्मीबाई मदद की । जनरल बिटलॉक को पॉलिटिकल एजेन्ट नौगांव ने खबर दी कि दिमान देशपत ने अपने गांव में 2000 विद्रोहियों को एकत्र कर सैनिक जमाव किया तो मेजर बिटलॉक तत्काल झींझन गांव गया । वहाँ क्रांतकारियों से उसका भीषण संघर्ष हुआ । इसमें 97 क्रांतिकारी शहीद हुए तथा 39 गिरफ्तार हुए थे ।’ जिनमें से एक को उसी शाम फाँसी पर लटका दिया गया था । बिटलॉक ने गुस्से में पूरे गांव को तहस-नहस कर डाला तथा देशपत के पूर्वजों द्वारा बनायी गयी गद्दी को ध्वस्त कर दिया जिससे क्रांतिकारी इसमें शरण न ले सकें । इसके बाद दिमान देशपत ने पुनः सैनिक एकत्र कर दिये तथा आलीपुरा के राव बखत सिंह के आदेश व सहयोग से धसान नदी के कोटरा घाट पर डट गऐ थे जिससे अंग्रेजी सेना उधर न बढ़ सके । दिमान देशपत का तात्याटोपे तथा झांसी की रानी से सीधा सम्पर्क था । वे उनकी लगातार सहायता करके अंग्रेजो को छकाते रहे । 9 अक्टूबर 1858 को देशपत के साथियों ने कनेर थाने को घेरकर उसपर कब्ज कर लिया । द हिन्दू पेट्रियाट, कलकत्ता ने 30 दिसम्बर 1858 ई. को लिखा कि ’’बुन्देलखण्ड में विद्रोह की लहर बहुत दिनों तक स्थानीय विद्रोहियों द्वारा बनी रही । देशपत ने तो जैतपुर तथा आसपास के जंगली क्षेत्रों पर कब्जा जमा लिया उसको हटाने में बड़ी कठिनाई थी । जब उसके पास आम माफी का संदेश लेकर 7 व्यक्ति भेजे गये, तो उसने उनमें से 6 व्यक्तियों का वहीं मार डाला।’’ देशपत से सारे अंग्रेज दहशत में थे । पश्चिमोत्तर प्रान्त सरकार के असिस्टेंट सेक्रेट्री के चीफ ऑफ स्टॉफ को 9 मार्च 1859 को एक पत्र लिखा है जिसमें कहा गया है कि ’’यह स्पष्ट है कि यदि विद्रोहियों के इस दल ’देशपत’ को पूरी ताकत लगाकर हम उनका बराबर पीछा करके भी अन्त नहीं कर सके, तो आगे चलकर एक भयानक राजनीतिक संकट उत्पन्न हो सकता है। इस प्रदेश की रियाया में बड़ी शक्ति है और शत्रुओं की संख्या इतनी अधिक है कि मिलिट्री, पुलिस तथा रीवा राज्य की फौज स्वतः उनके बराबर भी नहीं है, जो देशपत को हटा सके । दूसरी ओर इस प्रदेश का जंगल इतना घना है तथा शत्रुओं की गतिशीलता इतनी बढ़ी-चढ़ी है कि प्रशिक्षित तथा सुसज्जित हमारी फौज शायद ही उनसे मुठभेड़ कर सके । ’’
दिमान देशपत ने लगातार संघर्ष करते रहे जून 1859 में वे गुरसरायें इलाके मे ंरहे । वहाँ कब्जा कर मऊरानीपुर होते हुए आलीपुरा को बढ़े तो कप्तान डायर्स और मेजर डेविस की फौजों ने उन्हें घेर लिया जिसमें उनके 12 साथी शहीद हुए किन्तु देशपत, बजोर सिंह व छतर सिंह बच गये । 16 सितम्बर 1859 को बमनौरा में अंग्रेजों से इनका मुकाबला हुआ जिसमें देशपत सुरक्षित रहे । सितम्बर 1859 मंे अंग्रेजी सरकार ने छतरपुर राज्य की महारानी पर देशपत का प्रश्रय न देने का दबाब डाला तथा इसी प्रकार का दबाव गर्रौली स्टेट पर पड़ा तथा अतिरिक्त सैन्यबल मंगाकर जैतपुर थाना स्थापित किया गया इससे अनेक विद्रोही मारे गये किन्तु देशपत लगातार संघर्षरत रहे । 6 अक्टूबर 1859 केा किशनगढ़ इलाके में लैफ्टीनेंट प्राइमरोज की सेना से देसपत का युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजों को हारना पड़ा । 23 अक्टूबर 1859 को प्राइमरोज ने फिर देसपत को घेरा जिसमें आठ क्रांतिकारी पकड़े गये लेकिन देसपत सुरक्षित रहे । इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने देसपत को पकड़वाने वाले को 5000/- रुपये का इनाम घोषित कर रखा था और रीजेंट रानी छतरपुर ने पांच सौ रुपये व एक गांव भी पकड़वाने वाले को देने की घोषणा कर रखी थी । तथा पश्चिमोत्तर प्रान्त की सरकार ने भी देशपत को पकड़ने के लिए 1000/- रुपये का इनाम देने की घोषणा कर रखी थी । इन्हीं दिनों इग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया ने विद्रोहियों को समर्पण करने हेतु ’आम माफी’ की घोषणा की ।इस धोषणा पत्र को कई भाषा में अनुवाद कराकर  क्रांतिकारियांे के शिविरों तक पहुॅचाया गया। ऐसा ही धोषणा पत्रदेशपत के पास पहुचाया गया बाम्बे स्टण्डर्ड नामक पत्र लिखता है कि जब देशपत अपने श्रीनगर (जैतपुर) के मुकाम पर ठहरा हुआ था तभी उसके पास घोषणा-पत्र पहंुचाया गया ्उस समय वह हुक्का पी रहा था। उसने उस घोषणा पत्र को अपनी चिलम में रखा और हुक्के को गुड़गुड़ाने लगा । चिलम से ज्वाला उठी और घोषणा पत्र चिलम की अग्नि मे स्वाहा हो गया ।’’ किन्तु इस वीर का अन्त धोखा से हुआ । चतुर्भुज जमादार तथा साथी फरजंद अली जमादार की सूचना पर 3 दिसम्बर 1862 को नौंगांव के पास मातौल गांव में मार दिया गया किन्तु किवदन्ती है कि दिमान देसपत के रसोइया को खरीद कर उनके भोजन में जहर मिलवाया गया था जिससे उनकी मौत हुई । दिमान देसपत की मौत का कारण कुछ भी बना हो लेकिन एक स्वाधीनता के दीवाने की शौर्य गाथा का अन्त हो गया जो बुन्देलखण्ड में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष को प्रेेरित कर गया । 
झांसी बना स्वतंत्रता संग्राम का अखाड़ा:- 
प्रथम स्वातंत्र्य महायज्ञ में झांसी का उल्लेख तो राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है क्योंकि झांसी की भूमि ही तो स्वतंत्रता वीरों की रणभूमि में परिवर्तित हो गई थी । यहाँ अंग्रेजी शासन की दोगली व अपमानजनक नीति के कारण झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में आम जनता व सैनिकों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे । झॉंसी मंे मरहठा राज्य की समाप्ति के साथ ही राज्य के सैनिक व सिविल अधिकारी व कर्मचारियों को सेवानिवृत्त कर दिया गया था । उनमें से कुछ ने अंग्रेजों की सेवा ली थी । कैप्टन गार्डन बन्दोवस्त अधिकारी द्वारा राज्य में भूमि व्यवस्था जारी की गयी । इस व्यवस्था के आधार पर कई ठिकानेदारों को अपदस्थ किये जाने से करैरा क्षेत्र के उदगवॉ, नौनेर क्षेेत्र मेें विद्रोह भड़क उठा था जिसे तत्काल शान्त तो कर दिया गया परन्तु परिणिति 1857 की क्रांति एवं अंग्रेजों के कत्लेआम में फलित हुई थी । इसी बीच फिरोजशाह शहजादा (मुहम्मद शाह जफर का भतीजा) झॉसी के प्रवास पर आया वह झॉसी के प्रधान सेनापति दीवान जवाहर सिंह के भाई मझले शव की जंगल में स्थित गढ़ी जो सामारिक महत्व व सैन्य संचालन का केन्द्र थी, में कुछ दिनों रूका था । शहजादा ने अपने प्रवास के दौरान मुसलमानों को विद्रोह में मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की थी । समय जाने देर न लगी कि जून 1857 में विद्रोह हो गया । झॉसी में अंग्रेजों भयंकर कत्लेआम हुआ और अंग्रेजी सत्ता का अन्त हो गया । झॉसी पर मराठा राज्य की पुनर्स्थापना हो गई जो ओरछा राज्य को बर्दाश्त न हुई अैर 3 सितम्बर 1857 को झॉंसी पर सेनानायक नत्थे खॉं ने आक्रमण कर दिया जिसमें नत्थे खॉं को हार का सामना करना पड़ा तथा वह भागकर अंग्रेजो की शरण में जा पहुॅंचा । अंग्रेजी सेना ने सर हयूरोज सेनानायक के नायकत्व में झॉंसी पर पुनः आक्रमण कर दिया । जिस पर किले के गोलन्दाज गौश खान ने भयंकर गोले अंग्रेजी सेना के ऊपर बरसायें किन्तु देशद्रोही दूल्हा जू द्वारा किले का गुप्त द्वारा खोल दिए जाने से अंग्रेजी सेना का किले में प्रवेश हो गया और झॉंसी की रानी अपने सेनानायकों एवं अंगरक्षकों सहित दत्तक दामोदर की पीठ पर बॉधकर दोनो हाथों से अंग्रेजी सेना के सिर काटती हुई मार्ग बनाती कालपी की ओर घोड़े से निकल गई । वीर तात्या टोपे, वानपुर के राजा मर्दन सिंह ने रानी का साथ दिया । रानी भाण्डेर, कोंच होते हुई कालपी पहुॅची । यहॉ पेशवा की सेना ने रानी का साथ दिया । रानी इसके बाद ग्वालियर की ओर बढ़ी और अंग्रेजी से भिड़त हो गई जिसमें एक अंग्रेज सैनिक की पिस्तौल की गोली रानी की जॉघ में लगी, जब तक रानी संभलती दूसरे अंग्रेज सैनिक ने रानी के सिर का दाहिना भाग तलवार से काट दिया । रानी ने अंतिम सौस गंगादास की कुटिया में लेते हुए सेनानायक जवाहर सिंह को अपने गले का हार देकर संघर्ष जारी रखने को कहा । रानी की चिता की रक्षा रघुनाथ सिंह परमार तथा गौश खॉं ने फकीर के वेश में की । रामचंद्र देशमुख दत्तक दामोंदर को अज्ञात दिशा में ले गए । अंग्रेज सैनिक आते हुए जानकर रघुनाथ सिंह परमार साथियों की बंदूकें समेटकर उसी दिशा में अकेले मोर्चा लगा बैठा और यह अहसास कराया कि बुन्देलखण्ड के बहुत से सैनिक लड़ रहे हैं । इसी वीर बांकुरे ने वहीं अंतिम सांस ली । अंग्रेजी सेना ने कटीली उदगवॉ में वीरवर सेनानायक जवाहर सिंह की गढ़ी तोपों से उड़ा दी । रघुनाथ सिंह की गढ़ी खण्डहर कर दी । झडू यादव दतिया में रहे और जवाहर सिंह को सिकन्दरा नाके के पास नये निवास पर मोर्चा लगाकर अंग्रेजों ने गोली से उड़ा दिया । झॉसी, करैरा, सीपरी में अंग्रेजों ने छावनियॉ कायम कर दी और बुन्देलखण्ड को अंग्रेजी सेना ने रौंद डाला लेकिन बुन्देलखण्ड के वीर बॉंकुरो ने अंतिम सांस तक अपने शरीर के रक्त की एक-एक बूॅंद से स्वतंत्रता की बलिवेदी में आहुतियॉं देकर स्वतंत्रता की ज्वाला धधकांये  रखी जिसका सुफल 15 अगस्त 1947 को हमें मिला ।
संदर्भ ग्रन्थ -
1. बुन्देलखण्ड का स्वतंत्रता संग्राम, सं.-दशरथ जैन
प्रकाशक-बुन्देलखण्ड केशरी छत्रसाल स्मारक पब्लिक ट्रस्ट,छतरपुर
2. मध्यप्रदेश के रण बॉंकुरे- डॉ सुरेश मिश्र व भगवान दास श्रीवास्तव 
प्रकाश-स्वरल संस्थान संचालनालय, भोपाल
3. 1857 के पहले बुंदेलखण्ड में अंग्रेजो से संघर्ष- पं. हरगोविन्द तिवारी
प्रकाशक-राजकीय संग्रहालय, झॉंसी (उ.प्र.)
4. झॉंसी में क्रांति (1857-86) लेखक-वीर सिंह परमार
प्रकाशक-शाश्वत शिक्षा शोध संस्थान, रक्सा जिला झॉसी (उ.प्र.)
5. बुन्देली बसंत-सं.- डॉं. बहादुर सिंह परमार
प्रकाशक-बुन्देेली विकास संस्थान, बसारी, जिला-छतरपुर (म.प्र.)

एम.आई.जी.-7, न्यू हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
जिला -छतरपुर म.प्र.-471001

बुन्देली लोक संस्कृति तथा कलाए

बुन्देली लोक संस्कृति तथा कलाए
-डॉ. बहादुर सिंह परमार
बुन्देखण्ड की लोक संस्कृति तथा कलाओं पर चर्चा करने से पहले बुन्देलखण्ड की भौगोलिक सीमा रेखाओं पर चर्चा करना समीचीन होगा । बुन्देलखण्ड अंचल की भौगोलिक सीमा के सम्बन्ध में विद्वानों ने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं किन्तु अधिकांश विद्वान इस मत का समर्थन करते हैं कि नर्मदा, चम्बल, यमुना तथा तमसा सरिताओं के मध्यक्षेत्र के भू भाग को बुन्देलखण्ड क्षेत्र में सम्मिलित माना जाये । इसी मत को दृष्टिगत रखते हुए हम बुन्देलखण्ड अंचल की लोक संस्कृति को देखेंगे इस अंचल की भौगोलिक अवस्थिति दो राज्यों मध्यप्रदेश तथा उत्तरप्रदेश में हैं । इसमें मध्यप्रदेश के पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, सागर, दमोह, नरसिंहपुर, जबलपुर, होशंगाबाद, दतिया आदि जिले आते हैं  तथा उत्तरप्रदेश के जालौन, झांसी, ललितपुर हमीरपुर, महोबा, चित्रकूट तथा बांदा जिले आते हैं । इस अंचल को अतीत में चेदि, जेजाक भुक्ति, दर्शांण, जुझौति आदि नामों से पुकारा जाता है । इस अंचल की संस्कृति को ही बुन्देली लोक संस्कृति की संज्ञा दी जाती है । लोकसंस्कृति में उस अंचल के लोक दर्शन, जन सामान्य के आदर्श, विश्वास व रीति रिवाजों के साथ पर्व, संस्कार तथा मान्यतायें आदि समाहित रहती हैं । हर अंचल की लोक संस्कृति उसके लोकमानस तथा लोकाचरण से निर्मित होती हैं और लोकमानस तथा लोकाचरण तत्कालीन परिस्थितियों से क्रिया-प्रतिक्रिया कर आकार लेते रहते हैं । यही परिप्रेक्ष्य बुन्देलखण्ड में भी देखा जा सकता है । 
लोकदर्शन तथा लोक मूल्य:-
बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति को जानने के लिए पहले हम यहां के लोकदर्शन को देखें । यहां का लोकदर्शन ईश्वरीय सत्ता में अडिग आस्था रखने वाला है । इसी के साथ-साथ जगत को मिथ्या मानने की धारणा भी यहाँ है । यहाँ जगत को माया का रूप भी माना जाता है । इसी भावना की अभिव्यक्ति आप इस लोकगीत में देख सकते हैं -
’’निकर चलौ दैकें टटिया रे, अरे दैकें टटिया रे !
धंधे में लगन देव आग रे, निकर चलौ दैकें टटिया रे....... ।’’
बुन्देलखण्ड के लोक मन में कर्म के प्रति आस्था का भाव, वीरों का सम्मान तथा स्वाभिमान कूट-़कूट कर भरा है । यहाँ का लोक दर्शन मानवीयता का पक्षधर तथा मानव जीवन को अनमोल मानने वाला है । बुन्देलखण्ड में त्याग, तपस्या तथा परोपकार भी जीवन के लोकदर्शन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । लोकदर्शन से प्रभावित होकर ही लोक मूल्य बनते हैं । लोक मूल्य वे होते हैं जो लोक हितकारी होने के साथ लोक में स्वीकृत हो मान्यता प्राप्त कर लेते हैं । लोक मूल्य लोक जीवन का दिशा निर्देशन करने वाले होते हैं बुन्देलखण्ड के लोक मूल्य भी मानव जीवन आधारभूत तत्वों से ओतप्रोत हैं । ये युगीन मान्यताओं और आवश्यकताओं के अनुरूप अपना स्वरूप बदलते भी रहे हैं । यहाँ ’सत’ और ’पत’ लोक मूल्यों ने लोक संस्कृति की अस्मिता को सुरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । यहाँ भक्ति का लोकमूल्य जन जन में समाया हुआ है । आप सब जानते हैं कि ईश्वर भक्ति जाति पाँत तथा छुआछूत के भेदभाव को नहीं स्वीकारती है । यहाँ भक्ति का लोकमूल्य इतना व्यापक है कि उसमें पारिवारिक सम्बन्धांे, सामाजिक दयित्वों और राष्ट्रीय भावनायें समाहित हो गईं हैं । इसी ने लोक जीवन मंे उत्साह व उल्लास भर दिया है । बुन्देलखण्ड के लोकमूल्यों में भक्ति ने एक नई दीप्ति जगाई तथा नया दर्प उभारा जिससे सांस्कृतिक गौरव बढ़ने के साथ एकता का भाव सुदृढ़ हुआ बुन्देलखण्ड अंचल में भक्ति के साथ प्रेम, शांति, मनुष्यत्व तथा भाईचारे जैसे लोक मूल्य भी गहरे से अपनी पैठ बनाये है । 
स लोकधर्म:-
किसी भी अंचल की लोक संस्कृति के स्वरूप निर्धारण में वहां के लोक धर्म का सर्वाधिक योग होता है । लोक धर्म ही वह महासागर होता है जिसमें आचरण रूपी विभिन्न कल-कल करतीं नदियां एकाकार हो जातीं हैं । बुन्देलखण्ड में सभी धर्मों सम्प्रदायों व पन्थों के प्रति समन्वय का भाव देखने को मिलता है । यहाँ का आम आदमी जहाँ एक ओर राम और कृष्ण की उपासना करता है वहीं दूसरी ओर निराकार ब्रह्म की साधना करने वाले कबीर के पद भी गुनगुनाता है । वह शैव व शाक्य परम्पराओं को भी मानता है यहाँ हर हर महादेव के जयकारा लगाते हुए लोग भी मिलेंगे और मैया के दरबार में अपने दुःखों से निजात हेतु अभ्यर्थना करती हुई भीड़ भी मिलेगी । स्थानीय लोक देवों में कारसदेव, गौंड़ बब्बा, हरदौल, दूल्हा देव, बडे़ देव तथा सिद्ध बाबा की मड़िया आपको पूरे बुन्देलखण्ड में मिलेगीं । यहाँ देवी के विभिन्न रूप ढारे, पूजे जाते हैं । जिनमें शारदा माता, मरई माता, खेरे की देवी, शीतला मैया, फूला की देवी, आदि प्रमुख हैं । यहाँ का लोक धर्म समूह धर्मी रहा है । बुन्देलखण्ड के लोक धर्म में मानव मूल्यों को केन्द्र में रखा गया है । यहाँ लोक धर्म में ज्ञान परोपकार, दया, करुणा, क्षमा, जैसे तत्व गहराई से बैठे हैं । इसीलिए लोक कवि ईसुरी कहते हैं कि- 
’’दीपक दया धर्म को जारौ, सदा रात उजयारौ । 
धरम करंे बिन  करम खुलै न, बिना कुची ज्यौं तारौ ।। 
लोकाचरण:-
लोक आचरण संस्कृति के यथार्थपरक चित्र होते हैं । इसमें संस्कार, पर्व, खान-पान, रहन-सहन, लोक मान्यताऐं, लोकाचार आदि समाहित रहते है । बुन्देलखण्ड अंचल का लोक जीवन बहुआयामी तथा अनेक मामलों में विशिष्ट है । उदाहरण के लिए अन्य अंचलों में बेटी के पैर छूने की परम्परा नहीं है किन्तु बुन्देलखण्ड में पुत्री के पैर छूकर नारी शक्ति सम्मान किया जाता है । आयु में छोटी होने पर भी बुन्देलखण्ड में दादा-दादी, नाना-नानी, चाचा-चाची, बुआ-फूफा आदि सभी जेठे-बड़े इस परम्परा का निर्वाह करते हैं । इसी तरह बड़ा भाई अपनी छोटी बहिन के पैर छूता है पहले तो यह भी मान्यता थी कि जिस घर मुहल्ले या गाँव में पुत्री ब्याही हो उस जगह का जल अन्न आदि ग्रहण नहीं किया जाता था । यदि विवशता में अन्न,जल ग्रहण करते थे तो दूना डेयोढ़ा मूल्य अदा करने की लोक परम्परा रही है । बुन्देलखण्ड के लोक संस्कारों पर निगाह डाले तो हम पाते हैं कि जन्म से पूर्व संस्कार गर्भाधान से प्रारम्भ हो जाते हैं ।  जो मृत्यु के बाद पिण्ड दान तक चलते रहते हैं । वैसे इस अंचल में सोलह संस्कार प्रचलन में  हैं जिनमें प्रमुखतः गर्भाधान, पुंसवन, सीमान्तोनयन, जन्म, नामकरण, निष्क्रमण, पासनी, मुण्डन, कन्छेदन, उपनयन, पाटीपूजन, विवाह, वानप्रस्थ, सन्यास तथा अन्त्येष्टि संस्कार आदि हैं । इनकी अपनी मान्यतायें हैं, अपने-अपने रिवाज हैं । उदाहरणार्थ- विवाह संस्कार से सम्बन्धित कुछ विशिष्ट मान्यतायें देखिये - सुदकरा चले जाने के बाद कन्यापक्ष के लोग अन्त्येष्टि में शामिल नहीं होते हैं । वर-वधू का कुआँ पर जाना वर्जित कर दिया जाता है । विवाह के पूर्व जिंस को आँगन में एकत्र करके उसकी पूजा की जाती है । जिसे यहाँ ’’सीदौ छुवाना’’ कहते हैं । मिट्टी, ईंधन, तथा कढ़ाई की पूजा की जाती है । इसी तरह विवाह में मण्डप के नीचे जब जेवनार बैठती है तो गारियां गाने की विशिष्ट परम्परा है इसमें स्त्रियां अटा पर चढ़कर वर के पिता, माता, फूफा, बहन, बहनोई तथा मामा आदि पर व्यंग्य किये जाते हैं । इसके अतिरिक्त बुन्देलखण्ड में रसोई बनाने वाली स्त्रियां पहली रोटी अग्रासन के रूप में गाय या कन्या के लिए निकाल लेती हैं तबे को खाली चूल्हे से नहीं उतारा जाता है । गर्म तवा पर पानी नहीं डाला जाता है । मृत्यु के बाद होने वाली शुद्धता में बिना पकौड़ी वाली कड़ी ही बनाई जाती है । 
स लोकपर्वः-
लोकपर्व जनमानस में उल्लास भरते हैं । बुन्देलखण्ड में लोकपर्व बारहों महीने होते हैं । जिनमें कुछ ऐसे हैं जो पूरे भारत देश के साथ मनाये जाते हैं । जिन में दिवारी, दशहरा, नौ दुर्गा, होली, राम नवमी, रक्षाबन्धन जन्माष्टमी आदि शामिल हैं  किन्तु कुछ ऐसे पर्व हैं जो इसी अंचल में विशिष्ट रूप से मनाये जाते हैं जिनमें नौरता या सुअटा, अकती, मामुलिया तथा बुड़की आदि प्रमुख हैं । मामुलिया बुन्देलखण्ड में बालिकाओं के द्वारा क्वांर के कृष्ण पक्ष में मनाई जाती है ।  इसमें एक कंटीली टहनी लेकर उसे मौसमी फूलों से सजाया जाता है फिर उसे पड़ोस में दरवाजे दरवाजे जाकर लड़कियाँ प्रदर्शन करती हैं तथा घरों से बदले में अनाज या दान प्राप्त करती है ंयह सब मिलकर उसका उपयोग करती हैं । सुअटा अथा नौरता क्वांर महीने के शुक्ल पक्ष में प्रथमा से प्रारम्भ होता है जिसमें बालिकायें लोक चित्रकला, गायन, मूर्तिकला, आदि की शिक्षा प्राप्त करती हैं । इसके अंतिम दिन ढिड़िया निकाली जाती है । ’अकती’ बैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनायी जाती है । जिसमें देवलों को डबुलिया में लेकर कन्यायें वट का पूजन करने जाती हैं । इसी दिन कृषि कार्य का प्रारम्भ होता है । बुड़की मकर संक्रान्ति को कहते हैं । इस त्योहार पर तिल के लड्डुू, घुल्ला तथा अन्य तिल से बने व्यंजन आदि खाने की परम्परा है । मकर संक्रान्ति अर्थात् बुड़की पर नदियों, तालाबों, या झरनों के किनारे मेलों का आयोजन होता है । जिसमें बुन्देलखण्ड की नर, नारी, बच्चे सभी प्रसन्नता पूर्वक सम्मिलित होते हैं । 
स खानपान:-
बुन्देलखण्ड के खान पान पर दृष्टि डालने से हम पाते हैं कि यहाँ के व्यंजन पौष्टिक तथा स्थानीय रूप से उपलब्ध अन्न तथा संसाधनों से निर्मित होते हैं । दैनंदिन जीवन के व्यंजन अलग हैं जिनमें रोटी, दाल तथा सब्जियंा हैं जबकि विशिष्ट अवसरों यथा- विवाह या त्योहारों के अलग व्यंजन हैं । विवाह के अवसर पर माँड़े, बरा के साथ पंचमेल मिट्ठाईयां बनाई जाती हैं । लड़की के विवाह में उसको देने के लिए गुना, खांकर तथा दिखनी के लड्डू अलग से बनाये जाते हैं ।  कार्तिक पूजन के अवसर पर लोल कुचईया, भिम्मगजा जैसे व्यंजन बनते हैं जिनको खाने हेतु बुन्देलखण्ड का जनमानस लालायित रहता है । बुन्देलखण्ड के विशिष्ट व्यंजनों में डुबरी, रसयावर, फरा, चीला, सतुआ, खींचला, कचरियां, खुरमा, मालपुआ, तसमई, सन्नाटौ, गुलगुला, मगौरा, गुझिया, पपरियां, ठड़ूला, सुरा आदि बहुत से हैं जो लोक को ने केवल हष्टपुष्ट रखते हैं । बल्कि  एक नया जीवन देते हैं । 
बुन्देलखण्ड की वेशभूषा में हम देखते हैं कि यहाँ पर पुरुष साफा, पगड़ी, अँगौछी , तौलिया या साफी का प्रयोग का प्रयोग सिर ढँकने के लिए करता है वैसे धोती कुर्ता वण्डी, अल्फा, पन्चा, फतुई, कमीच आदि पहनने का रिवाज है । तहमत, पेन्ट, बुशर्ट ने भी अपनी पैठ बना ली है । आदमी साधारणतः हाथ में लाठी डण्डा या कुल्हाड़ी लेकर चलता है । पैरों में फिचऊँ पनइयाँ पहनी जाती थी किन्तु अब प्लास्टिक के जूतों ने स्थान ले लिया है । औरतें, साड़ी ब्लाउज बच्चियां अंगौछा या सलवार कुर्ता पहनने लगीं हैं । 
बुन्देलखण्ड के लोग आभूषण प्रिय भी हैं यहाँ स्त्रियों से सम्बन्धित गहनों में जो प्रचलित हैं उनमें पैरों की उँगलियों में पहने जाने वाले अनौटा, चुटकी, छला, कटीला, गुच्छी, गैंदें, गुटिया, गरगजी, जोडुआ, पाँतें, पाँवपोश, बाँके, बिछिया, आदि प्रमुख है । उसी तरह पैरों के गहनों में अनौखा, कड़ा, गूजरी या गुजरिया, घुंघरू, चुल्ला, चूरा, छड़ा, छागल, छैलचूड़ी, झाँझैं, टोड़र, तोड़ा, पायजेब, पैजना, बाँके तथा लच्छा आदि हैं । कमर में करधौनी, बिछुआ, डोरा, पेटी आदि पहनने का रिवाज है । हाँथ की उँगलियों में छला, छाप, फिरमा, मुंदरी, अंगूठी, पहने जाते हैं । कौंचा में कंकन, कंगन, कोंचिया, कड़ा, गजरा, गुंजें, चुरियां, चूरा छल्ला, दौरी, बंगलिया, बेलचूड़ी पानफूल लाखैं आदि पहनने की परिपाटी है । बाजू में अनन्ता, बखौरियां खग्गा, बजुल्ला, बाजूबन्द तथा बहुँटा पहने जाते हैं । गले में कण्ठमाल, कण्ठी, कठला, खँगौरिया, गुलुबंद, चंद्रहार, टकयावर, ठुसी, ढुलनियाँ, तिदाना, बिचौली, मंगलसूत्र, लल्लरी, हार, सुतिया, तथा हँसली पहनी जाती है । कान में ऐरन, कनफूल कुण्डल, झुमका, झुमकी, कनौती, ढारें, तरकीं, बैकुण्ठी बाला, विचली, लाला, लोलक तथा बारी पहनी जाती है । नाक में कील, झलनी, दुर, टिप्पो, नथ-नथुनियाँ नकमोती, पुंँगरिया, बुलाख आदि पहनने की परम्परा है । यहाँ माथे को खाली नहीं रखा जाता है इसमें बूँदा, बैंदा, बैंदी, टीका, टिकली, लगाने का रिवाज है । सिर के आभूषणों में झूमर, बीज, सीसफूल या माँगफूल है । बेणी में भी चुटिया, छैलरिजौनी तथा बेणीफूल लगाये जाते हैं । पुरुष भी आभूषण धारण करते हैं । पुरुषों के आभूषणों में अँगूठी, कड़ा, कण्ठा, गजरा, गोप, जंजीर, तबजिया, मोतीमाल, कुण्डल, बारी आदि हैं । 
स लोक गायन:-
प्रत्येक अँचल में मानव हृदय की नैसर्गिक मूल भावनाआंे की सहज व स्फूर्तिजन्य अभिव्यक्ति लोक गायन के रूप में प्रकट होती हैं । बुन्देलखण्ड में भी लोकगायन लोककंठों से फूटकर लोकरंजन करता है । यहाँे लोकगीत तथा लोकगाथाएँ गायी जाती हैं । लोकगीत लोकमन की सामूहिक तरंगयुक्त अभ्ंिाव्यक्ति होती है । बुंदेलखण्ड के लोकगीतों में प्राचीन परम्पराओं से युक्त पीढ़ी-दर पीढ़ी का जीवनानुभव मुखरित होता हैं । यहाँ प्रत्येक पर्व, संस्कार तथा खेल गीतों से युक्त है । कोई ऋतु ऐसी नहीं जिसमें गीत न गाया जाता हो । महीनांे गीतों को गाकर बुन्देलखण्ड का आम आदमी अपना सुख दुख भरा जीवन जीता हैं । आषाढ़ में उरगिया गीत के साथ रिमझिम फुहार में भीगंता किसान उमंगित होकर ददरियॉ गाने लगता हैं । आल्हा के स्वर भी आषाढ़ से भादों तक गँूंजते है । आल्हा बुन्देलखण्ड की महत्वपूर्ण लोकगाथा है, जिसमें वीरत्व, त्याग, शौर्य के वर्णन के साथ ऊर्जा संचार करने की तीव्र क्षमता है । सावन महीने में कजली, भुजरियॉ, झूला के गीतों के साथ मेंहदीं व चपेटा के गीत लोक कंठों से निसृत होते हैं । राछरे, रसिया, मलारें, भी सावन में सुनाई देती है । ’मोरे राजा किवरियॉ खोलो रस की बूदें परी’’ लोकस्वरों में गूँजने लगता है । भादों में रसिया मलारें, राछारे के साथ मैराई छट के गीत, जल विहार के गीत तथा धान निदाई के गीत गाये जाते हैं । तीजा के गीत न केवल लोकरंजन करते है बल्कि सेवा व्रत के लिए प्रेरित करते है । क्वाँर महीने में मामुलिया, नौरता, लांगुरिया, भगतें गाई जाती हैं । कार्तिक महीने में तो पूरा बुन्देलखण्ड कतकारियों द्वारा लोक नाट्य का रंगमंच बना दिया जाता हैं । इस अँचल की महिलाएँ कृष्ण की गोपिकाएँ बनकर भक्ति भाव से आपूरित हो ’’बड़े भोर से दहीरा लेके आ जाऊगी।’ के गीत गाती है । दिवारी पर नृत्य के साथ लोकगायन होता है । अगहन माह में खरीफ फसल काटते हुए बिलवारी तथा पूस व माघ महीने में टप्पे व रमटेरा की तानें सुनाई देती हैं । फागुन ऋतु राज बसन्त का महीना होता हैं, जो उल्लास, उमंग व मस्ती से लोक को लबरेज कर देता हैं । इस दौरान फागों के माध्यम से श्रृंगार का रस बरसता है । चैत में दिनरी, वैशाख में अकती गीत आदि लोककंठ से फूटते है । इसी तरह जन्मोत्सव के अवसर पर चरूआ गीत से लेकर कुआँ पूजन तक के गीत बुन्देलखण्ड में प्रचलित हैं । पलना में झूला झुलाने के गीत, पासनी, मुण्डन एवं कन्छेदन के लोकगीत अंचल में प्रचलित हैं । विवाह जीवन का महत्वपूर्ण संस्कार होता हैं । विवाह में सगाई से लेकर विदा तक के गीत गाये जातें हैं । लगुन लिखने, लगुन चढ़ने, सीदा छुवाने, मटयावने के गीतों के साथ माड़वा, मायने के अलग-अलग गीत हैं । तेल चढ़ाने, मैर की पूजा करने, चीकट चढ़ाने के माार्मिक गीतों के साथ ऊबनी, बारात निकासी के गीत भी हैं, चढ़ाव, भाँवरें तथा पांव पखराई के गीत हैं । मण्डप के नीचे बारातियों के खाना खाते समय गारियॉ गाने का प्राचीन रिवाज अभी तक कायम हैं ।  धान बुबाई, दूदा भाती, कंकन छुराई से लेकर कुँवर कलेऊ तथा विदा गीत बुन्देलखण्ड के विवाहांे में सुने जा सकते है । बुन्देलखण्ड अॅचल में प्रत्येक जातियों के अपने-अपने निजत्व को स्वीकारते हुए गीत है।ं इसी तरह बाल गीत तथा खेल गीत भी चलन में हैं । लोक कंठों से अनेक गाथाएँ भी गीतात्मक रूप से मिसृत होती हैं जिनमें आल्हा, हरदौल, सुदामा, कृष्ण जैसे पात्र लोक में अपनी पैठ बनाये हैं । 
स लोक नृत्य
बुन्देलखण्ड अंचल में लोक नृत्यों के माध्यम से जीवन का उल्लास प्रकट किया जाता हैं । इस अंचल के वनों में रहने वाले गौंड, बैगा तथा रावत आदिवासियों द्वारा कर्मा नृत्य किया जाता हैं । इसमें एक प्रकार सुआ नृत्य का भी होता है जिसमें स्त्रियाँ कानों में धान की बाली खोंसकर नाचती हैं तथा सुआ की उपासना करती हैं । इस नृत्य में केवल स्त्रियाँ भाग लेती हैं । इसी में जब स्त्री और पुरूष सम्मिलित नृत्य करते हैं तो उसे सम्मिलित नृत्य कहते हैं । आदिकालीन शिकारी युग की संस्कृति को मुखरित करने वाला शैला नृत्य किया जाता हैं । जिसमें हकवारों के समूह हाँका लगाने जैसी आवाजें निकालकर लाठी बजाते हैं, ढ़ोल बजाते हैं । उसी पर नृत्य होता है । इस नृत्य में पुरुष अपने हाथों में सूखी लकड़ी के तेल भीगे डन्डे लेकर एकत्र होते हैं । नाचने वालों में एक बरेदी तथा मौन धारण करने वाले पशु का स्वॉग भरने वाले होते हैं । यह कई प्रकार से नाचा जाता हैं। हरौला, भरौला, झुलनियॉ, बैठक, अटारी तथा शिकार नृत्य इसके भेद हैं । बुन्देलखण्ड में धोबी, चमार, बसोर, मेहतर, काछी, ढ़ीमर, अहीर, गड़रिया तथा कोरी आदि जातियों में रावला नाच किया जाता हैं । इसमें एक पुरुष औरत एवं दूसरा पुरुष विदूषक बनता हैं । हारमोनियम सारंगी, मृदंग, झींका, कसावरी तथा रमतूला आदि दूसरे प्रमुख वाद्य यंत्र हैं ।  
बुन्देलखण्ड का सर्वाधिक लोकप्रिय लोकनृत्य राई हैं । यह होली के अवसर पर किया जाता था किन्तु अब बारहों महीने किया जाता है । इसमें मृदंग की थाप पर घ्ुंाघरू झनझना उठते हैं । इसमें नर्तकी के रूप में अधिकांशतः बेड़नियाँ नाचतीं हैं । पुरुष नर्तक मृदंग कमर में बाँधकर बजाते हुए नाचता हैं इसमें श्रंृगारपरक गीत (फाग) गाये जाते हैं जिस की तीव्र गति पर नृत्य किया जाता है। इसका संगीत भी तीव्र होता हैं जो उत्तेजना पैदा करता हैं । बुन्देलखण्ड में राई को देखने के लिए लोग कोसों पैदल जाते है । अब विवाह तथा विशेष अवसरों पर भी राई नृत्य का आयोजन किया जाने लगा हैं । बुन्देलखण्ड में ढ़ीमर जाति में ढ़िमरयाई नृत्य होता है । जिसमे वाद्य यन्त्र के रूप में सांरगी, लोटा आदि का प्रयोग होता हैं । घोषियों में कांडरा नृत्य प्रचलित है । कांड़रा फिरकी खा-खाकर नाचा जाता हैं जिस प्रकार मठा बिलोरने में कड़ौनिया (रस्सी) घेट-घेट कर घूमती हैं उसी प्रकार नाचने वाला फिरकी लेकर घूमता हैं जिससे इसे कांड़रा कहा जाता हैं । दीपावली के अवसर पर पशुपालक जाति अहीरों द्वारा दिवारी नृत्य किया जाता हैं । नर्तक फुंदनादार बंडी तथा रंग-बिरंगी जाँघिया पहनकर हाथ में मोर पंख लेकर नृत्य करते है । इसको लाठी लेकर तथा डड़ा ( लकड़ी का छोटा टुकड़ा ) लेकर भी नाचा जाता हैं । इसमें  गायक की टेर बड़ी आकर्षक होती हैं । वाद्य यंत्र के रूप में ढोलक, नगड़िया तथा रमतूला आदि का प्रयोग किया जाता हैं । 
इसके अलावा झिंझिया (ढ़िडिया) नृत्य क्वॉेर में बालिकाओं द्वारा किया जाता हैं। जवारे रखे जाते समय भक्तांे द्वारा देवी नृत्य किये जाते  हैं। पारिवारिक लोक नृत्यो में शिशु जन्म के समय बुआ द्वारा लाये गए बधाए के साथ चंगेर या बधाई नृत्य किया जाता हैं। इसमें ढोलक, रमतूला आदि वाद्य यंत्र होते हैं। इस अवसर पर बधाये तथा सोहरे गाये जाते हैं। विवाह में भॉवर भी रस्म पूरी होने पर कन्या पक्ष की महिलाएं जब बारात के डेरे पर लाकौर लेकर जाती थी तो उस समय मृदंग पर नृत्य किया जाता था और पुरूष कपोलांे पर गुलाल लगाते थे। इसे लाकौर नृत्य कहते थे। जो अब विलुप्तता की कगार पर हैं। चीकट तथा बहू उतारते समय भी नृत्य किए जाने की परम्परा भी बुन्देलखण्ड में रही हैं।
स लोक नाट्य
मन का बेग जब कथा बन प्रकट होता हैं, तो अन्तस की भावातिरेक तरंग, कायिक क्रियाआंे द्वारा, वाणी को सशक्त एवं प्रभावशील बनने हेतु हाव भाव के सहारे व्यक्त होती हैं। इन्हीं हाव भावों का प्रदर्शन लोक नाट्य कहलाता हैं। इनमें संगीत, अभिनय एवं थिरकन का त्रिवेणी जैसा संगम होता हैं। बुन्देली नाट्यों में धार्मिक, सामाजिक, संस्कारपरक, सामूहिक या वैयक्तिक जीवन की अनुभूतियाँॅ अभिव्यक्त होती हैं। धार्मिक लोकनाट्य में रामलीला तथा रासलीला प्रमुखतः चलन में हैं। कार्तिक मास में पूरा बुदेलखण्ड लोक नाट्य का रंगमंच बन जाता हैं । जब कतकारियाँ कृष्ण की गोपिकाएँ बनकर भक्ति भाव से रास रचाती हैं। धँधकायनों भी एक ऐसा ही लोकनाट्य हैं जिसमें कृष्ण के सखा व कृष्ण दही की मटकी तोड़ने का स्वाँग करते हैं। बुन्देलखण्ड में स्वाँग बहुत प्रसिद्ध लोक नाट्य हैं जिसमें नकल उतारी जाती हैं। होली के अवसर पर एक पुरुष औरत का वेश धारण करता हैं तो दूसरा रंग बिंरगा चेहरा रंग कर विदूषक बन जाता हैं। इस अवसर पर ये दोनांे श्रृंगारिक चेष्टाओं का अभिनय करके लोकंरजन करते हैं। पारी टोरने का स्वॉग बुन्देलखण्ड में चलन में हैं। यह भी होली के अवसर पर रचा जाता हैं। इसमें युवक व युवतियाँ (विवाहित व अविवाहित) दोनों भाग लेते हैं। रंग पंचमी के दिन शाम के समय खुले मैदान में मजबूत लकड़ी के लट्ठांे गाड़ा जाता हैं। जमीन से पन्द्रह-बीस फुट ऊँचे लट्ठे पर एक गुड की पारी बाँधी जाती ह। इस लट्ठांे को चिकना करने के लिए एक महीने से पहले तेल से रगड़ा जाता हैं। इसके बाद गाँव का प्रतिष्ठित व्यक्ति छैल-छबीले युवकांे को लट्ठे पर चढ़ने का आदेश देता हैं। फिर दस पन्द्रह युवतियॉ लाठी लेकर लट्ठे के चारों तरफ नाचती हैं। जब कोई युवक  साहस करके लट्ठे पर चढ़ता हैं तो युवतियाँ लाठियों से उस पर प्रहार करती हैं। इसके बावजूद कोई युवक लट्ठे पर चढ़ने में सफल हो जाता हैं और गुड़ की पारी को तोड़ लेता हैं तो सभी युवतियाँ उसे गुलाल लगाती हैं तथा उसके बाद वह विजयी युवक सभी युवतियाँ के कपोलों पर गुलाल मलकर उन्हें गुड़ खिलाता है।
क्वाँर में नवदुर्गा के समय बुन्देलखण्ड में कुंवारी लड़कियाँ सुअटा खेलती हैं। समापन रात्रि में ढिड़िया विसर्जन के समय औरतें एवं लड़कियाँ गौर के विवाह का स्वाँग रचती हैं। जिसके माध्यम से औरतें क्वारी कन्याआंे को नये जीवन जीने की कला से अवगत करातीं हैं । इसके साथ बुन्देलखण्ड में भाव खेलने का स्वांग, लुगया आदमी का स्वांग, भये बधाव व कुंआ पूजने का स्वांग, सास-बहू का स्वंाग, फकीर को स्वांग, डाँकू का स्वांग, घसियारे का स्वांग, कलुआ मेंहतर का स्वांग, अहीरो का स्वांग तथा ढीमरांे का स्वांग आदि खेले जाते हैं। इन सवांगो के कथानक व्यंग्यपरक होते हैं। संवाद पैने तथा अभिनय क्षमता गजब की प्रभावी होती हैं। इसके अलावा बाबा (जुगिया) विवाह के अवसर पर वरपक्ष से बारात जाने पर स्त्रियो द्वारा खेला जाता हैं। जिसके माध्यम से विभिन्न शिक्षाएँ प्रदान की जाती हैं, जो जीवन परक व उपयोगी होती हैं।
मूर्ति तथा चित्रकलाएंॅ:-
बुन्देलखण्ड अँचल में मिट्टी, पीतल, पत्थर तथा गोबर की मूर्तियाँ गढ़ने की परम्परा हैं। यहाँ गणेश चतुर्थी को महिलाएँ गोबर के गणेश बनाकर पूजती हैं। दीपावली तथा होली के वाद गोवर से बनी दोजे  रखी जाती हैं, जो मूर्ति कला का जीता जागता नमूना होती हैं। इसके साथ दीपावली कें बाद प्रथमा को गोबर्धन थापे जाते हैं, यह भी गोवर से बनते हैं। मिट्टी से गौर, महालक्ष्मी का हाथी आदि बनाने की परम्परा हैं। यहॉ के कुम्हार मकरसंक्राति के अवसर पर पूजी जाने वाली मिट्टी के घुड़ला (घोड़ा) बनाते हैं। कुम्हारों द्वारा विभिन्न देवी देवताओं की प्रतिमाआंे के साथ पुतरा पुतरियाँ भी बनाई जाती हैं। मिट्टी के अतिरिक्त पीतल की मूर्तियाँ श्रीनगर, छतरपुर, टीकमगढ़, ललितपुर तथा झाँसी आदि स्थानों पर बनाई जाती है। पत्थर को मूर्तियाँ गढ़ने में गौरा (संगमरमर) पत्थर का उपयोग किया जाता हैं। इसके अलावा बलुआ पत्थर व ग्रेनाइट पर भी अनेक मूर्तियाँ मिलती हैं।
बुन्देली जनमानस में चित्रकला रची बसी हैं। यहाँ विभिन्न तीज-त्यौहारों पर महिलाएॅ अपनी लोक चित्रकला का प्रस्तुतीकरण करती हैं। सभी मांगलिक कार्यांे तथा त्यौहार व पर्वों पर पूजा के पहले कनक (गेहँू का आटा) से चौक पूरे जाते हैं, जो वर्गाकार, आयताकार तथा त्रिभुजाकार होते हैं। पूजा के बाद चौक को आँचल के छोर से मिटाया जाता हैं। अल्पना व सुरॉती के अवसर पर इसका विशेष महत्व होता हैं। भित्ति चित्रों में सूर्य, चन्द्रमा का अॅकन तथा ऊका बनाना प्रमुखता से देखा जाता हैं। साँतिया, कलश, पशु-पक्षी एवं पेड़-पौधो को भी गेवरी (लाल मिट्टी ) या रंगांे से बनाया जाता हैं। विवाह के अवसर पर हल्दी व चूना के हाथे (थापे) लगाये जाते हैं। मेंहदी तथा महावर के माध्यम से विभिन्न बेल बूटे आदि चित्रात्मक ढंग से अंकित किए जाते हैं। लोक अंँचल में आँगन को गोबर से लीपा तथा सफेद पोतनी मिट्टी से पोता जाता हैं।
अतः हम देखते हैं कि बुन्देलखण्ड अँचल का जनमानस जीवन मूल्यों को आत्मसात करके लोेक कलाओं के माध्यम से अपने आप को अभिव्यक्त करता हैं जो न केवल लोक रंजक होता हैं बल्कि जीवन में शिक्षाप्रद भी होता हैं।

-एम.आई.जी.-7, न्यू हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी, 
छतरपुर (म.प्र.)-471001 


साकेत की सांस्कृतिक पीठिका

साकेत की सांस्कृतिक पीठिका
कु. भारतीय सिंह परमार
सांस्कृतिक पीठिका संस्कृति की एक वृहद परिकल्पना है । जीवन के अन्य सूक्ष्म एवं व्यापक सत्यों की भांति इसकी कोई निश्चित और सीमित परिभाषा करना कठिन है । संस्कृतिका संबंध जैसा कि शब्दों की व्युत्पत्ति से ही पता चलता है संस्कान से है । सुसंस्कृत अवस्था का नाम ही पता चलता है संस्कार से है । सुसंस्कृत अवस्था का नाम ही संस्कृति है अर्थात् संस्कृति मानव जीवन की वह अवस्था है जहां उसमें पहले से व्याप्त रागद्वेषांे का परिमार्जन हो जाता है । यह परिमार्जन, यह संस्कार उसे अपनी स्वाभावगत इच्छा आकांक्षाओं, प्रवृत्ति-निवृत्तियांें के उचित सामंजस्य द्वारा करना पड़ता है । दूसरे शब्दों में सामाजिक जीवन की आन्तरिक मूल प्रवृत्तियों का सम्मिलित रूप ही संस्कृति है । स्थूल आवरण के पीछे सूक्ष्म का जो सत्य शिव और सुंदर रूप छिपा हुआ है संस्कृति उसकों ही पहचानने का प्रयास करती है । जड़ता से चैतन्य, शरीर से आत्मा रूप से भाव की ओर बड़ना ही उसका ध्येय होता है । 
प्रत्येक देश की, प्रत्येक जाति की अपनी विशेष सामाजिक प्रेरणायंे अपनी आशा आकांक्षायें अपने विश्वास होते हैं । इसी प्रार उसकी अपनी विशेष संस्कृति होती है । जिस पर उसकी जलवायु, भौगोलिक स्थिति ऐतिहासिक परम्परायें पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक आदर्श, रीति-नीतियां आदि प्रभावकारी होते हैं । इसी प्रकार भारत की भी अपनी संस्कृति है । भारतीय संस्कृति विश्व की अत्यन्त प्राचीन संस्कृति है और कदाचित सबसे पूर्ण । साकेत मैथली शरण गुप्त का महान सांस्कृतिक प्रबन्ध काव्य है । श्री गुप्तजी भारत के राष्ट्रकवि हैं । उनमें भारतीयता कूट कूटकर भरी है । राष्ट्रीयता में उनका क्षेत्र संस्कृति है । अतः यह कहा जा सकता है कि वे भारतीय संस्कृति के कवि हैं । और यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है और गौरव भी गुप्तजी ने साकेत में जीवन के समग्र रूपों का चित्रण किया है । भगवान राम जो कि आर्य सस्कृति के प्रतिष्ठापक है । वे हीं उनके चरित नायक हैं । अतः स्वाभावतः उनका  सांस्कृतिक आधार अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा साकेत मे अधिक स्पष्ट और पूर्णहै । साकेत में राम, रावण, भरत, सीता, लक्ष्मण, उर्मिला इत्यादि सभी चरित्र, व्यक्ति प्रधान न होकर समस्त भारतीय संस्कृति के द्योतक हैं । साकेत में राम की विजय को सिर्फ राम की पत्नि न मानकर समस्त भारत की कुलवधु के रूप में देखा जाता है । 
साकेत का जीवन आदर्श, दुखों पर विजय प्राप्त कर सुख का अर्जन एवं उपभोग करना ही नहीं बल्कि उसको त्यागने की शिक्षा देता है । इसी से नर को ईश्वरता प्राप्त होती है। और यह धरती स्वर्ग तुल्य बन जाती है । यही हमारे जीवन का आदर्श है, और यही साकेत का संदेश भी । 
साकेत के रचनाकार मैथलीशरण गुप्तजी चूंकि उदार वैष्णव भक्त है, इसलिए उन्होनें राम को बृह्म और सीता को महामाया का अवतार माना है । क्रियात्मक रूप से भी कवि आर्य धर्म के सभी अंगों में विश्वास करते हैं । वेद, यज्ञ, जप, तप, वृत, पूजा सभी उनकों मान्य है वेद आर्य संस्कृति का आधार है । यज्ञ उसका प्रमुख साधन है । तभी तो राम चाहते हैं कि 
उच्चारित होती चले वेद की वाणी
गूँजे गिरि कानन सिंधु पार कल्याणी
अम्बर में पावन होम धूम लहरायें 
मध्य युग में ज्ञान का आधार लुप्त हो जाने से यज्ञ में पशु बलि आदि का भी प्रसार हो चला था । वास्तव मंे यह विकृति ही थी । अतः साकेत में उसका विरोध है । लक्ष्मण मेघनाथ से कहते हैं -
कौन धर्म यह शत्रु खड़े हंुुकार रहे हैं 
तेरे आयुध वहाँ दीन पशुमार रहे हैं 
करता हूँ मैं बैरी विजय का ही यह साधन
तब है तेरा कपट मात्र यह देवाराधन 
साकेत में जिस सामाजिक जीवन का वर्णन है उसमें भारतीय संस्कृति कूट कूट कर भरी है । सामाजिक जीवन के लिये मर्यादा को विश्ेाष महत्व दिया गया है । तथा बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है । साकेत मंे वर्ण व्यवस्था अपने मूल रूप में मिलती है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी का अपना अपना स्थान है । दूसरी ओर शूद्रों का भी तिरष्कार नहीं है । सीता, किरात, भिल्ल बालाओं से सखी सदृश व्यवहार करते हैं ।  उधर दशरथ-आत्मग्लानि आश्रम धर्म का संदेश सुनाती है । 
ग्रह योग्य बने है तपस्पृही
वन योग्य याह हम बने ग्रही 
साकेत में उर्मिला माण्डवी आदि के चरित्र स्त्रियों के महत्व को स्वीकार करते हुए भी भारतीय जीवन में उनका अपना विशेष क्षेत्र है । वे ग्रहलक्ष्मी है वहां उनका साम्राज्य है । इससे बाहर क्षमता होने पर भी भारतीय ललना प्रायः नहीं जातीं । माण्डवी जैसे सुयोग्य स्त्री को भी राजनैतिक विषय वातालाप सुनने के लिए भरत की आज्ञा पूर्व लेनी ही पड़ती है । 
’’राजनीत बाधक न बने तो तनिक और ठहरूंँ इस ठौर’’
परिवार समाज का ही लघुरूप है । समाज का आदर्श परिवार सदृश बनना है और परिवार का आदर्श समाज सदृश् बनना है । साकेत में स्त्री पुरूष संबंध भाई-भाई संबंध, भाभी देवर, सास-बहू का संबंध सपत्नियों का पारस्परिक व्यवहार इत्यादिभारतीय परिवार के सभी संबंध   अपने आदर्श रूप में यहाँ मिलते है। साकेत के ग्रहस्थ चित्र भारतीय संस्कृति के परम उज्जवल स्वरूप हैं । हाँ लक्ष्मण शत्रुुघन का कैकेयी से वार्तालाप सर्वथा असंस्कृत है । भरत के शब्दों मंे भी असंयम है । दो एक स्थानों पर लक्ष्मण का उर्मिला का चरणांे में गिरना भी चित्रित किया गया है जो कि भारतीय संस्कृति संस्कृति के अनुरूप नहीं जान पड़ता । 
प्रत्येक देश की अपनी रीति नीतियां प्रथा में परम्परायें होती है । उनमें देश की संस्कृति निहित रहती है । वेैसे तो मूल नैतिक सिद्धान्त सभी देशांे और कालों में एक से ही है परन्तु फिर भी भिन्न भिन्न देशों में कुछ विशेषतायें होती है । भारतीय जीवन में आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिये कुछ वृत्तियों को खास महत्व दिया गया है उनमें से काम और मोह नामक वृत्तियां प्रमुख हैं लोभ का विग्रह अपरिग्रह है । राम और भरत की र्निलोभता सभी को चकित कर देती है । राज्य जैसी वस्तु भी भारतीयों के हृदय में कितना मूल्य रखती है इसकी साकेत मे स्पष्ट व्याख्या है ।
और किसलिये राज्य मिले 
जो हो तृण सा त्याज्य मिले
काम के निग्रह के लिए भारतीय नीतिशास्त्र में पुरूषों को एक पत्नी व्रत और स्त्रियों को पति व्रत धर्म का आदेश है । साकेत की कहानी पतिव्रत और एक पत्नि व्रत की ही कहानी है लक्ष्मण को सबसे बड़ा बल इसी बात का है कि-
यदि सीता ने एक राम को ही वर माना 
यदि मैंने निज बधू उर्मिला को ही जाना 
कु. भारतीय सिंह परमार

हिन्दी साहित्य में बुन्देली का योगदान

हिन्दी साहित्य में बुन्देली का योगदान 
-डॉ. बहादुर सिंह परमार,
विन्ध्य पर्वत श्रृंखला से घिरा हुआ क्षेत्र प्राचीन युग में चेदि कहलाता था । महात्मा बुद्ध के समय में उत्तर भारत के सोलह जनपदों में चेदि की भी गणना थी । परवर्ती वैदिक काल में यह जनपद इन्द्र एवं अग्नि की पूजा का क्षेत्र था । महाभारत काल में चेदिराज शिशुपाल ने अच्छी प्रसिद्धि पाई थी । दस नदियों के जल प्रवाह के कारण यह क्षेत्र दशार्ण के नाम भी प्रसिद्ध  हुआ । इसके पश्चात् यह भू-भाग जुझौति, जैजाक भुक्ति, जाजाहोति आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ । जैजाक भुक्ति में चन्देलों का राज्य था । चंदेल वंश की स्थापना नवीं शताब्दी में नन्नुक ने बुन्देलखण्ड में की थी । उस समय उनकी राजधानी खजुराहो थी । नन्नुक के पौत्र जयशक्ति (जैजा) और विजय शक्ति महान् विजेता थे । इनके नाम पर ही इस प्रदेश का नाम जैजाक भुक्ति पड़ा ।1 चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इस प्रदेश का नाम चिचिन्टो (जिंझौति) दिया है । अलबरूनी ने ’’जाजाहोति’’ नाम का उल्लेख किया है। ’जिझौति’, ’जुझौति’, ’जाजाहोति’ आदि नाम जैजाक भुक्ति के ही रूप हैं । इसका बुन्देलखण्ड नामकरण अपेक्षाकृत आधुनिक है । निश्चित रूप से यह नाम बुन्देलों की सत्ता स्थापित होने के बाद पड़ा । बुन्देलखण्ड नाम विन्ध्येल खण्ड का बिगड़ा हुआ रूप है । विंध्यवासिनी देवी की आराधना करने वाले गहरवार क्षत्रिय पंचम ने विन्ध्य श्रेणियों से घिरे हुए इस प्रदेश में राजसत्ता स्थापित करते हुए ’विन्ध्येला’ उपाधि धारण की । विंध्येला शब्द से ही ’बुन्देला’ नाम प्रचलित हुआ और वह क्षेत्र जहाँ बुन्देलों का शासन रहा बुन्देलखण्ड कहलाया । यमुदा, नर्मदा, चम्बल और टौंस नदियों से घिरा क्षेत्र ’बुन्देलखण्ड’ के नाम से जाना जाता है । इस अंँचल में बोली जाने वाली भाषा’बुन्देली’ कही जाती है । इसके क्षेत्र के सम्बन्ध में डॉ. श्यामसुन्दर दास लिखते हैं कि ’’यह बुन्देलखण्ड की भाषा है और बृजभाषा के क्षेत्र के दक्षिण में बोली जाती है । शुद्ध रूप में यह झांँसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, भोपाल, ओरछा, सागर, नरसिंहपुर, सिवनी तथा होशंगाबाद में बोली जाती है । इसके कई मिश्रित रूप दतिया, पन्ना, चरखारी, दमोह, बालाघाट तथा छिन्दवाड़ा के कुछ भागों में पाये जाते है ।“2 इस तरह हम पाते हैं कि मध्य भारत में स्थित बुन्देलखण्ड अँचल में बोली जाने वाली भाषा बुन्देली का क्षेत्र काफी विस्तृत है । 
हिन्दी भाषा बोलियों व आँचलिक भाषाओं का एक समुच्चय है । हिन्दी के विकास मंें क्षेत्रीय भाषाओं का महत्वपूर्ण योगदान है । इसके विकास में जहाँ अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी, गढ़वाली, बाँगरू आदि भाषाओं रचनाकारों ने योग किया है  वहीं मालवी, बघेली, छत्तीसगढ़ी तथा बुन्देली के साहित्यकारों का भी महत्वपूर्ण अवदान है । बुन्देली में आदि काल से ही साहित्यिक रचनाओं का प्रणयन किया जाता रहा है हम सबसे पहले प्रारम्भिक काल को देखने पर पाते है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा अभिहित वीरगाथा काल में जगनिक बुन्देलखण्ड व बुन्देली का कवि है । इसके द्वारा ’आल्हा’ रचा गया है जिसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे जिन्होंने महोबे के दो देश प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल के वीर  चरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था ।3 जिसकी प्रामणिकता पर प्रश्न चिन्ह उठे किन्तु विद्वानों ने इसका पाठालोचन करके प्रामाणिक सिद्ध किया है । डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त ने इस गाथा का प्रामाणिक पाठ प्रकाशित कराया है । वे उसकी प्रस्तावना में एक स्थान पर लिखते हैं कि “आल्हा गाथा की भाषा से बनाफरी उप बोली की सीमाओं के भीतरी स्थान का निवासी सिद्ध होता है । इतना निश्चित है कि जगनिक बारहवी शती के उत्तरार्द्ध में महोबा में निवास करता रहा है ।4 ’आल्हा’ को जगनिक कृत परमाल रासो का एक हिस्सा माना जाता है । बुन्देलखण्ड में रासो काव्य लिखने की एक सतत् परम्परा देखने को मिलती है । ’दलपत राव रासो (संवत् 1764 वि) रचनाकार जोगीदास भाण्डेरी में दतिया के राव शुभकरण व उनके पुत्रों के युद्धों का वर्णन है । ’शत्रुजीत रासो (सं. 1858 वि) रचनाकार किशुनेश भाट भी महत्वपूर्ण रचना है । श्रीधर कवि ने पारीछत रासो तथा आनन्द सिंह कुड़रा ने बाघट रासो की रचना की है । कल्याण सिंह कुड़रा ने ’झाँसी कौ रासो’ एवं कवि मदनेश का लक्ष्मीबाई रासो हिन्दी साहित्य की अमूल्य राष्ट्रीय भावधारा निधियां हैं । 
कवि विष्णुदास गोस्वामी (सन् 1435 ई) द्वारा रचित ग्रंथ-रुक्मिणी मंगल, महाभारत कथा, रामायनी कथा, स्वर्गारोहण कथा तथा मकरध्वज कथा महत्वपूर्ण हैं । इनका काल कबीरदास से पूर्व ठहरता है । मध्यकाल में ओरछा महत्वपूर्ण कला केन्द्र के रूप मे विकसित हो चुका था । यहाँ महाकवि केशव के पितामह कृष्ण दत्त मिश्र स्वयं एक अच्छे कवि थे । महाराज मधुकर शाह महान भक्त कवि व योद्धा के रूप में ख्यात रहे इनके समकालीन कवि हरिराम जी व्यास हुए हैं । इन्होंने रास पंचाध्यायी तथा साखी पद लिखे हैं । ये मानवतावादी विचारधारा के मानने वाले प्रगतिशील कवि थे । कवि केशवदास तो हिन्दी साहित्य में आचार्य व पंाडित्य परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ही । इन्होंने रसिक प्रिया, कवि प्रिया, रामचन्द्रिका, रतन बाबनी, विज्ञान गीता, जहाँगीर जस चन्द्रिका तथा वीरसिंह चरित जैसी रचनाओं का प्रणयन किया है । केशव काल के अन्य कवियों में बलभद्र मिश्र, गोविन्द स्वामी, हरीराम शुक्ल, आसकरन दास, महाराजा इन्द्रजीत सिंह, कल्याण मिश्र, गदाधर भट्ट, सुन्दर, खेमदास, रतनेश, प्रवीणराय, केशव पुत्रवधु आदि हैं ।5 इनके साथ मनसा राम सिद्ध, गुलाब, खेमराज, कृपाराम, रामशाह, पतिराम, परमेश, सुबंश राय तथा बलभद्र कायस्थ के नाम भी उल्लेखनीय है । पन्ना दरबार  के कवियों में प्राणनाथ ऐसे कवि हैं जिनकी ख्याति प्रणामी सम्प्रदाय के स्थापक के रूप में अधिक हैं । उन्होंने 14 ग्रन्थों का प्रणयन किया जिनमें कीर्तन, कयामतनामा, पदावली, प्रगटवाणी, ब्रह्मवाणी, राजविनोद आदि प्रमुख है । इनके अतिरिक्त मण्डन मिश्र, रामजू तथा मेघराज प्रधान का बुन्देली साहित्य में अविस्मरणीय योगदान हैं । 
महाराज छत्रसाल बुन्देलखण्ड के ही नहीं मध्यकाल में पूरे उत्तरभारत के महानायक के रूप में उभरे जिन्होंने विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्ष करके लोगों को प्रेरित किया । वे स्वयं में अच्छे कवि भी थे । उनके आश्रय के कविकुल समूह संरक्षण पाता था । इनमें गोरेलाल का नाम उल्लेखनीय है, जो लाल कवि के नाम से विख्यात हैं । लालकवि के प्रमुख ग्रन्थों में छत्रप्रकाश, छत्र प्रशस्ति, छत्रछाया, छत्रकीर्ति, छत्रछंद, छत्रसाल-शतक, विष्णु विलास तथा राजविनोद आदि प्रमुख हैं । इनके समकालीन अन्य कवियों में देवीदास (प्रेेमरत्नाकर, राजनीति, दामोदर लीला) अक्षर अनन्य (अनन्य प्रकाश योग, ज्ञान पचासा), सुखदेव (अध्यात्म प्रकाश), कोविद मिश्र (भाषा हितोपदेस, राजभूषण), हरि सेवक मिश्र (कामरूप कला महाकाव्य), वंशीधर, चरणदास, श्रीपति, नेवाज, कृष्ण कवि, कारे कवि, शिवनाथ, गुमान मिश्र तथा विक्रमाजीत सिंह आदि प्रमुख हैं । इसी काल में बोधा कवि भी हुए हैं जिन्होंने ’विरहवारीश’ की रचना की हैं जिन्होंने मेहराज चरित्र, विरह विलास, सनेह सगार, श्रीकृष्ण जू की पाती, गेंदलीला, बनजारे, बारहमासा तथा तेरामासी जैसी रचनायें रचकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया । बुन्देलखण्ड अँचल के चरखारी में जन्मे प्रताप साहि का योगदान हिन्दी को महत्वपूर्ण है । इन्होंने व्यंग्यार्थ कौमुदी, काव्य विलास, श्रृंगार मंजरी, काव्य विनोद, श्रृंगार शिरोमणि, रत्नचन्द्रिका, जुगल नखशिख जैसी रचनाओं को लिखा।6
कवि पद्माकर का नाता बुन्देलखण्ड से सीधा रहा है । वे सागर में रहे और वहीं साहित्य सर्जना की । उन्होंने जगत विनोद, प्रबोध प्रचासा, राम रसायन, हिम्मत बहादुर विरुदावली तथा पद्माभरण जैसे काव्य ग्रंथ रचे । इनके समकालीन अन्य कवियों में खुमान ककिव (सं. 1830 विक्रम कृतियां हनुमान पंचक, हनुमान पचीसी) ठाकुर, 1823 वि.ओरछा, (कृतियां ठाकुर ठसक एवं स्फुट रचनायें ) कालीराम कवि (सं.1856 वि.स्फुट रचनायें )  बैताल कवि (1834) मान कवि (सं. 1840 कृतियां-रामचन्द्रिका, नृसिंह चरित्र) दामोदर देव (सं.1840 कृतियां-रस सरोज, बलभद्र शतक, बलभद्र शतक, बलभद्र पचीसी, ध्यान मंजूषा आदि ) नवल सिंह कायस्थ झांसी, (सं. 1850, कृतियां रास पंचाध्यायी, रामायण कोश, आल्हा रामायण, आल्हा भारत आदि प्रमुख ) नरेश, ओरछा (सं.1860, कृतियां झांसी की बाई ) अम्बाप्रसाद अम्बुज (सं.1860, कृतियां छंद मंजरी, अलंकार चन्द्रोदय) गिरिधर, पजनेस (पन्ना दरबार में सं.1872, पजनेस प्रकाश कृति अधिक प्रसिद्ध है।) गदाधर भट्ट (पùाकर जी के पौत्र थे, सं. 1857, कृतियाँ- अलंकार चन्द्रोदय, गदाधर भट्ट की वानी, कैसर सभा विनोद आदि ) हृदेश, सरदार कवि, नारायण कवि सं. 1890 कृतियाँ षट ऋतु वर्णन, नायिका-भेद, वर्णन, गंगाजी का वर्णन) मथुरादास लंकेश (सं. 1895, कालपी, कृतियांँ-रावण दिग्विजय, रावण वृन्दावन यात्रा, रावण शिव स्वरोदय, दोहावली ) गंगाधर-व्यास (सं.1899, छतरपुर, कृतियां नीति मंजरी, विश्वनाथ पताका, व्यंगपचासा गोमहात्म्य, भरथरी ) आदि ने इस काल को सुशोभित किया ।7
आधुनिक काल में भारतवर्ष पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया था और उन्होंने भारतीय समाज, साहित्य, संस्कृति और सभ्यता को नष्ट भ्रष्ट करने का लक्ष्य बना लिया था । जनसमाज में असन्तोष व्याप गया था परन्तु अभी तक नई चेतना का नेतृत्व ठीक तौर पर नहीं हो पाया । कतिपय कवियों ने  अपनी पुरानी परम्परा को ही निभाया, अन्य जो राष्ट्र प्रेम और नई चेतना से समन्वित थे उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में सहायता दी । इस समय का अधिकांश साहित्य अनुपलब्ध है । लोक साहित्य अवश्य ही मौखिक परंपरा से हस्तांतरित होता रहा । इस काल के   प्रमुख कवियों में भवानी प्रसाद रिछारिया (भक्ति-विषयक रचनायें) रसिकेश (पन्ना सं. 1901, कृतियां राम-रसायन, काव्य सुधाकर, इश्क अजायब, ऋतु तरंग, विरह दिवाकर आदि) हिरदेस (झांसी, कृतियाँ श्रृंगार नौ रस, सं. 1925 कविता काल ) नृसिंह दास ( छत्रपुर, कविता काल सं. 1926, कृतियां-संतनाम मुक्तवली ) नैसुक, राधालाल जी गोस्वामी, बलदेव प्रसाद (खटवारा, बाँदा, कृतियाँ-रामायण राम सागर, भरतकल्पदु्रम आदि सं. 1926 से 44 तक ) युगल प्रसाद, अड़कू लाल वैद्य गरीबदास गोस्वामी, मन्नू कवि पंचम, परमानन्द (माधव विलास के रचयिता) डॉक्टर भवानी प्रसाद (भगवन्त प्रेमावली, गंगा मनोहारी आदि ग्रन्थ, सं.1946) जनकेस, कान्ह, दुरगाप्रसाद, चतुरेस (सँ. 1968 कविता काल ) लाख, ऐनानन्द (1920-40 कृति-सिद्धान्तसार) लाला भगवानदीन, मदन-मोहन द्विवेदी (लक्ष्मीबाई रासौ, सँ. 1950) महत्वपूर्ण हैं । 
लोक साहित्य में फाग साहित्य के रचयिताओं में गंगाधर व्यास, ख्याली राम और ईसुरी के बिना लोक साहित्य का मूल्यांकन अधूरा होगा । इनके सिवा परशुराम पटैरया, तांतीलाल देवपुरिया, लाला विन्द्रावन, खूबचन्द्र रमेश, पùसिंह मातादीन दीक्षित, महारानी रूप-कुंवर घनश्यामदास पांडेय (सं.1943-2010) मूलचन्द, नन्दीराम शर्मा रावत, श्री माहौर जी, लाला रामनाथ के नाम उल्लेखनीय है । अत्याधुनिक काल में पँ. गौरीशंकर शर्मा(गढ़ाकोटा) सुखराम चौबे गुणाकर, (रहली, गौरी शँकर पंडा(सागर) राम लाल बरोनिया, द्विजदीन (सागर) बालमुकुन्द कन्हैया द्विज (सागर) का कृतित्व बुन्देली के साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं । आज बुन्देली भाषा को माध्यम बनाकर गुणसागर सत्यार्थी, लोकन्द्र सिंह नागर, महेश कुमार मिश्र, अवधेश, दुर्गेश दीक्षित, माधव शुक्ल मनोज, हरगोविन्द त्रिपाठी ’पुष्प’, डॉ. अवधकिशोर जड़िया, कन्हैया लाल वर्मा ’बिन्दु’, कुंजीलाल पटेल ’मनोहर’ जगदीश रावत जैसे रचनाकार जन भावनाओं को काव्य में प्रकट कर हिन्दी साहित्य की सेवा कर रहे हैं । 
यहाँ पर उपर्युक्त विवेचन में संक्षिप्त रूप से हिन्दी साहित्य को बुन्देली योगदान की चर्चा की गई है । आज नये जीवन मूल्यों से आपूरित होकर पूरे आँचल में रचनाकर साहित्य साधना मंे लीन होकर समाज को दिशा दर्शन करा रहे हैं । 
संदर्भ संकेत-
1. हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास प्रथम भाग-राजबली पाण्डेय, 
प्रकाशक- नागरी प्रचारिणी सभा काशी सं. 2014 वि.पृ.61
2. भाषा विज्ञान-डॉ. श्यामसुन्दर दास, नवम् संस्करण सं. 2034 वि. लीडर प्रेस प्रयाग, पृ. 91
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बत्तीसवाँ संस्करण, 
नागरी प्रचारिणी सभा काशी, सं. 205 प्रति पृ. 29
4. चंदेलकालीन लोक महाकाव्य आल्हाः प्रामाणिक पाठ, डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त, 
प्रकाशक- म.प्र.आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल 2001 ई. पृ.1
5. बुन्देली काव्य परम्परा (प्राचीन) डॉ. बलभद्र तिवारी, 
प्रकाशक- बुन्देली पीठ, डॉ. हरीसिंहगौर विश्वविद्यालय सागर पृ. 149
6. हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बत्तीसवाँ संस्करण, 
नागरी प्रचारिणी सभा काशी, सं. 205 प्रति पृ. 149
7. बुन्देली काव्य परम्परा (प्राचीन) डॉ. बलभद्र तिवारी, 
प्रकाशक- बुन्देली पीठ, डॉ. हरीसिंहगौर विश्वविद्यालय सागर पृ. 159

बेजुबानों की जुबान हैं ग्रामीण जी

बेजुबानों की जुबान हैं ग्रामीण जी 
-डॉ. बहादुर सिंह परमार,
ठेठ गँवईं अन्दाज और वेशभूषा मंे रहने वाले हमारे प्यारे देवीशरण ग्रामीण पचहत्तर वर्ष के होने जा रहे हैं । यह हम सब के लिए प्रसन्नता का विषय है । प्रसन्नता इस बात की है कि आम आदमी का सच्चा सिपाही व कलमकार बनकर ग्रामीणजी ने हम सबकों रास्ता दिखाया है । उनका सादगी भरा निश्छल जीवन गंगा के पानी जैसा पवित्र है । उनके सम्पर्क में जो आता है उन्हीं का हो जाता है । मैंने प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से कई विभूतियों और रचनाकारों का स्नेह प्राप्त किया है, उनमें अनेक राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के लेख कवि हैं किन्तु देवीशरण ग्रामीण जैसा स्नेह शायद ही किसी से मिला हो । उनके आचरण में वाणी का एक-एक शब्द साकार होता है । कहीं कोई झोल नहीं, कोई बनावटीपन नहीं । ऐसे अनमोल व्यक्तित्व के धनी ग्रामीणजी ने कविता, कहानी, लेख तथा समसामयिक टिप्पणियों के माध्यम से समाज के उन तमाम दबे-कुचले-बेजुबान लोगांे की आवाज उठाई है जो अपने पेट की क्षुधा बुझाने के चक्कर में कुछ नहीं कह पाते हैं । इनकी रचनाओं का मूल स्वर आम आदमी की बेहतरी, शोषकों के षड़यंत्रों को उजागर करना तथा जनतंत्रीय पद्धति से अन्याय को खत्म करना है । वे पूर्णतः वैज्ञानिक सोच के पक्षधर हैं, उनके प्रगतिशील जीवन मूल्य प्रत्येक रचना में दिखाई देते हैं ।
ग्रामीणजी ने देशबंधु सतना के लिए ’’गाँवा नामा’ लिखकर पूरे विंध्य क्षेत्र में हलचल मचा दी थी । कई पाठक केवल ’गाँवनामा’ को पढ़ने के लिए देशबंधु का इंतजार करते थे । बाबूजी यानि मायाराम सुरजन का एक स्पष्ट सोच था जनपक्षधरता का । उसी से प्रेरित होकर वे आँचलिक लेखकों से इस तरह के कालम लिखवाकर छापते थे और उनकी भावनाओं को समझते हुए समर्पित लेखक भी पूरी ईमानदारी से लिखते थे । अब ऐसे पत्रकारों व लेखकों की संख्या लगातार घट रही है । कालचक्र और भौतिकवादी सोच के प्रभाव से ’देशबंधु सतना का प्रभाव क्षरित हुआ है और अनेक जन चेतना से आपूरित लेखन करने वाले रचनाकारों को स्थान मिलना कठिन हो गया । आज तो पूँजीवाद व बाजारवाद को पुष्ट करने तथा मनोरंजन के नाम पर भौड़ा लिखने वालों को प्रोत्साहित किया जा रहा है । देशबंधु में प्रकाशित आलेखों केा संकलित करके ’गाँवनामा’ पुस्तक के रूप में गरिमा प्रकाशन इलाहाबाद ने मुद्रित किया है, जो देवीशरण ग्रामीण की रचनात्मक को केन्द्रीय रूप से प्रतिबिम्बित करते हैं । हिन्दी के शीर्षस्थ कवि श्री दूधनाथ सिंह ने ’गाँवनामा’ के बारे में लिखा है कि ’’ग्रामीण जी ने विंध्य क्षेत्र के गांँवों में प्रचलित कहावतों व मुहावरों का शीर्षक देकर आज के भारतीय ग्रामीण समाज में होने वाले परिवर्तनों और अन्तर्विरोधों का विकास, प्रगति-अगति, अवनति इत्यादि का अत्यन्त मार्मिक यथार्थपरक और सजीच चित्रण अपने इन निबंधों में किया है लेकिन उन्होंने अपनी प्रगतिशील दृष्टि को कहीं भी धूमिल नहीं होने दिया है ।”
’गाँवनामा’ के प्रत्येक निबंध में जनचेतना के स्वर तथा लोक की जनपक्षधरता में आस्था कूट-कूट भरी पड़ी है । वे इन आलेखों में जहाँ चौपालों की चर्चा को उठाते हैं वहीं अपनी बात इतनी चतुराई से कहते हैं कि पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है । ’आपन लिहेन दिहेन-चल दिहेन’ आलेख में ’गांँव को केन्द्र में रखकर बनाई जा रही योजनाओं की पोल खोलते हुए तथाकथित विकास की व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उजागर करते हैं । वे इसी आलेख में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोषण भरी दूर दृष्टि को पहचान कर सचेत करते हुए कहते हैं कि “देखिए संसार की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी अब गांँवों की खोज में निकल पड़ी है, गाँव-गाँव में वे अपने कारखाने डलवाना चाहते हैं । गाँव के खेत-खेत को वे अपना बना लेना चाहती हैं । गाँव-गाँव के बच्चे-बच्चे को वे अपना धर्म सिखाना चाहती हैं, गाँवों मेें उनके प्रचारक अपने भिन्न भिन्न रूपों में पहुंच रहे हैं । अपनी सुधार-सेवाओं की दुहाई दे रहे है ।” ग्रामीण जी लोक की नब्ज को सूक्ष्मता से टटोलकर उसमें प्रगतिशील मूल्यों को रेखांकित करते है । वे गांव में निवास करते रहे हैं और उनका मन भी  गांवों में ही रमता  है वे इसीलिए अपना तखल्लुस ’ग्रामीण’ लिखने में गर्व का अनुभव करते हैं । वे नागरिक या शहरयार नहीं बनना चाहते हैं वे ठेठ गंवार कहलाने में अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं क्योंकि संस्कृति की तरल व सरल धारा तो गाँवों के जीवन में ही प्रवाहित होती है । शहरों का नगरों में तो सभ्यता की चमक, रुपये की दमक तथा चेहरों की गमक से पहचान होती है । देवी शरण जी ने गाँवों के खान-पान, तीज-त्योहार तथा रोजमर्रा की जिन्दगी के पलों में से उन चीजों को पकड़ा हौ जो शोषकीय व्यवस्था को पोषित करती हैं । वे एक निबंध में लिखते हैं कि होली पर्व पर दलितों व वंचितों के मोहल्लों में उच्च वर्ण के लोग कुण्ठाओं को तृप्त करने जाते हैं । वे कहते हैं कि ’’ गाँवों में लोग गरीबों के घरों पर होली मनाने जाते भी हैं तो वहाँ भी अपनी मनमानी कुण्ठाओं की तृप्ति ही करना चाहते है ।” जबकि गरीब त्यौहार पर बराबरी का दर्जा पाने की ललक में रहता है । इसी निबंध में वे निर्णय देते हुए अपना मत देते हैं कि ’’मनुष्य जाति के दिल में यदि मनुष्य होते हुए दूसरे मनुष्य के लिए समानता का स्थान नहीं है तो वहाँ आजादी या लोकतंत्र नहीं हे और न वहाँ का वह मानवीय समाज लोकतंत्रीय समाज माना जा सकता है।” समकालीन परिवेश में उपभोक्तावादी सोन ने बहुआयामी विस्तार पाया है । इससे समाज में नया संकट पैदा हो गया है । गांव के श्रमिकों व शोषितों को टेलीविजन के माध्यम से चमक दमक दिखाकर उनके भीतर लालच पैदा की जाती है, जिससे उनमें जुनून पैदा होता है, और यह जुनून पूँजीवाद को पुष्ट करता है । ग्रामीण जी ने स्थानीय कहावतों का बहुत खूबसूरती से प्रयोग करके  उनके अर्थों को नए आयाम दिए हैं । वे पौराणिक व अन्य लोक कथाओं का सहारा लेकर लोगों की शोषकीय वृत्ति को प्रस्तुत करते हैं । “फुटहा चौरा फोड़ैं मा मजा भला केही नहीं आई” आलेख के माध्यम ग्रामीणजी ने राम से सम्बन्धित लोक कथा का उदाहरण देते हुए समाज की इस प्रवृत्ति पर चोट की है जिससे समाज बिगड़े को और बिगाड़ता है तथा बने को बनाता है । इस संस्कार को कुप्रवृत्ति कहकर इसे बदलने का आव्हान करते हुए लिखते हैं कि “वे बिगड़े को बिगाड़तें और सुधरे को ही सुधारते हैं । इनको सुधारने के लिए यद्यपि मनुष्य को ही ऐसे संस्कारों को पहले बदलना व सुधारना होगा, जिनसे मानवीय प्रवृत्ति बने कि बिगड़ी हालातों के प्रति उसमें दया, करुणा व सृजन की अनुरक्ति पैदा हो जाए ।”
भारतीय समाज में व्याप्त पाखंड, कुरीतियों तथा अंधविश्वासी प्रवृत्तियों पर ग्रामीणजी ने प्रहार किया है । ’जियत न परसे माँड मरे परोसे खाँड’ के माध्यम से क्वाँर महीने की पितृ पक्षों में पूर्वजों की श्राद्ध करने के नाम पर चलने वाले भोजों पर व्यंग्यात्मक शैली में समाज के दोहरेपन को उजागर किया है कि किस तरह से वृद्धों का जीवित रहने पर परिवारों में असम्मान किया जाता है ? जब वही वृद्ध मर जाते है’ तो समाज में अपनी इज्जत बढ़ाने की लिए लोग किस तरह से भोज आयोजित कर ब्राह्मणों को दान देते हैं । इसको बदलने आव्हान करते हुए वे कहते है। कि “इस सामाजिक परिपाटी को बदलना ही होगा वरना इससे कोई, एक दो लोग नहीं बिगड़ते सारा समाज ही अन्ध विश्वास के गड्ढों में गिरता रहेगा । ”वे समाज को जगाने का दायित्व बखूबी निभाते हैं । वे कर्म से शिक्षक रहे । उन्होंने शिक्षक के रूप में, रचनाकार के रूप मंे और सचेत नागरिक के रूप मंे समाज को जगाने का प्रयास किया है और लगातार कर रहे हैं । शिक्षकों को सही आचरण व मर्यादित जीवन जीने की वे सलाह देते हैं । वे छात्रों को मानवीय मूल्यों से आपूरित करने की शिक्षा देने के पक्षधर है,  वे पैसों को छापने की मशीन युवाओं को नही बनाना चाहते है। लेकिन वर्तमान में शिक्षा व धर्म का गठजोड़ पहले लोक में रातोरात बड़ा आदमी बनने और उसके बाद परलोक सुधारने के नाम पर ढकोसला करने की प्रेरणा दे रहा है । पूँजीवादी समाज को पुष्ट करने के लिए बदल रहे जीवन व्यवहारों को ’गाँवनामा’ के अनेक आलेखों में जिक्र आया है । ग्रामीणजी पूँजीवाद की शक्ति को नष्ट करने की लिए मार्क्सवाद का अंधानुकरण करने की सलाह नहीं देते हैं । वे इसे लोकतंत्रीय पद्धति से जनचेतना के माध्यम से भारतीय तरीकों से लाने का मशविरा देते हैं । वे आम आदमी को उसके हकों के लिए जगाने की बात कहते हैं, वे दलितों और महिलाओं को बराबरी का हक देने की बात कहते है। उनका स्पष्ट मानना है कि जब तक वंचितों में अपने हक के लिए एकता का भाव नहीं होगा वे पराजित होते  रहेंगे । ’सदभाव का संकट’ आलेख में ग्रामीणजी ने प्रतीकात्मक रूप से जंगल के प्राणियों के माध्यम से शेर, खरगोश, साँप तथा चींटियों की एकता की चर्चा की है । इनके आलेखों की भाषा सरल, सहज तथा लोक स्वभाव व व्यवहार से संपृक्त है जिससे न केवल प्रभावी है बल्कि पाठक को अन्दर तक झकझोरने में सक्षम है।
ग्रामीणजी द्वारा रचित ’गाँवनामा’ में जीवन की समस्याओं के साथ संघर्ष व द्वन्द्व को बड़े ही अच्छे अन्दाज में उठाया गया है । इनकी चिन्ता का विषय शोषित वर्ग ही है- इनमें  किसान, स्त्रियाँ व दलित सर्वोपरि हैं । इन वर्गों की तथाकथित अंधभक्ति, पाखण्डी प्रवृत्ति तथा दोहरेपन की आदत की दुखतीरग को ग्रामीणजी ने छेड़ा है । इनके ये आलेख आम आदमी को जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करते हैं । ग्रामीण जी लम्बे समय तक अपनी लेखनी तथा करनी से समाज से अन्याय व शोषण की समाप्ति के लिए क्रियाशील रहें । हम सब उनके अनुचर बनकर कुछ करने का प्रयत्न करते रहेंगे । मेरी ओर से उन्हें जीवन के पचहत्तर वर्ष पूर्ण करने पर साधुवाद ।
सादर !
डॉ. बहादुर सिंह परमार
अध्यक्ष, प्रगतिशील लेखक संघ
छतरपुर (म.प्र.)

ہواؤں کے ساز پر


ہواؤں کے ساز پر





مجموعہ کلام

انا قاسمی
پورا نام = مولانا ہارون قاسمی
والد = حاجی محمد جمیل نظامی 
پتہ =سبنیگر محلہ موتی مسجد کے پاس
ذریعہ معاش = تجارت –  ہیلپ لائن کمپوٹر،آکاش وانی تراہا چھترپور [ایم.پی ]پن کوڈ ٤٧١٠٠١
چھترپور [مدھیہ پردیس ]
تعلیم =  فارغ التحصیل دارالعلوم  ندوہ العلماء لکھنؤ
دورہ حدیث دارالعلوم دیوبند
موبایل نمبر ٩٨٢٦٥٠٦١٢٥
کتابیں = [١]ہواؤں کے ساز پر[٢] میٹھی سی چبھن 
کتاب پبلشڈ = این پرکاشن دلی
پہلا ایڈیشن ١٩٩٩
دوسرا ایڈیشن  ٢٠١٢

::1::
غزل
بازوو پر دئے پروازِ انا دی ہے مجھے
پھر خلاؤں میں نئی راہ دکھا دی ہے مجھے

اپنی ہستی سے وہ درویش تو بے گانہ رہا
میری روداد مگر اس نے سنا دی ہے مجھے

پھر ذرا غار کے دروازے سے پتھر سرکا
ایسا لگتا ہے کہ پھر ماں نے دعا دی ہے مجھے

قرض بوتا رہوں اور بیاج سے فصلیں کاٹوں
میرے اجداد نے میراث بھی کیا دی ہے مجھے

یہ تو ہونا ہی تھا اِک روز رہے الفت میں
جرم اس کا تھا مگر اس نے سزا دی ہے مجھے

جیسے سینے میں سمٹ آئی ہو دنیا ساری
شاعری تونے ہی وسعت یہ عطا کہ ہے مجھے
انا قاسمی
..........................................................................................................


::2::
غزل
کبھی ہاں کچھ میرے بھی شعر کے پیکر میں رہتے ہیں
وہی جو رنگ تتلی کے سنہرے پر میں رہتے ہیں

نکل پڑتے ہیں جب باہر تو کتنا خوف لگتا ہے
وہی کیڑے جو اکثر آدمی کے سر میں رہتے ہیں

یہی تو ایک دنیا ہے خیالوں کی یا خوابوں کی
ہیں جتنے بھی غزل والے اسی چکّر میں رہتے ہیں

جدھر دیکھو وہیں نفرت کے آسیبوں کا سایہ ہے
محبت کے فرشتے اب کہاں کس گھر میں رہیتے ہیں

وہ جس دم بھر کے اس نے آہ مجھکو تھامنا چاہا
یقیں اس دم ہوا کہ دل بھی کچھ پتھر میں رہتے ہیں

کہ گھر میں کام والی بائی ہی رہیتی ہے ز یادہ تر
کہ بچے ہوسٹل میں اور ہم دفتر میں رہتے ہیں
انا قاسمی

::3::
غزل
مانے جو کوئی بات تو اِک بات بہت ہے
صدیوں کے لئے پل کی ملاقات بہت ہے

دن بھیڑ کے پردے میں چھپا لیگا ہر اِک بات
ایسے میں نہ جاؤ کے ابھی رات بہت ہے

مہینے میں کسی روز کہیں چائے کے دو کپ
اتنا ہے اگر ساتھ تو پھر ساتھ بہت ہے

رسماً سہی تم نے چلو خیریت پوچھی
اس دور میں اب اتنی مدارات بہت ہے

دنیا کے مقدر کی لکیروں کو پڑھیں ہم
کہتے ہیں کہ مزدور کا بس ہاتھ بہت ہے

ہو دولتِ دنیا کی طلب جنکو وہ بھٹکیں
ہم خانہ خرابوں کو تِری ذات بہت ہے

پھر تم کو پُکارُنگا کبھی کوہِ انا سے
ائے جان ابھی گرمی حالات بہت ہے
اناقاسمی::4::

غزل 

وہ آسماں مزاج کہاں آسماں سے تھا
اسکا وجود بھی تو اسی خاک داں سے تھا

اس کے ہریک ظلم کو کہتا تھا عدل میں
سایہ مرے بھی سر پہ اسی سائباں سے تھا

اِک ساحرہ نے موم سے پتھر کیا جسے 
وہ قصہ لطیف مِری داستاں سے تھا

گردان کرمیں آیا ہوں میزانِ فاعلات
اب کے ہمارا سامنا اس نکتہ داں سے تھا

یہ مفلسی کی آنچ میں جھلسی ہوئی غزل
رشتہ یہ کس غریب کا اردو زباں سے تھا
اناقاسمی 


؛: 5 :: 

غزل 

رہتا ہے مشغلہ جہاں بس واہ۔واہ کا
میں بھی ہوں اِک فقیر اسی خانقاہ کا

صد شکر حسن اور شبِ بے پناہ کا
ویسے اِرادہ کچھ بھی نہیں ہے گناہ کا

مجھ سے ملے بغیر کہاں جائیے گا آپ
اِک سنگ میل ہوں میں محبت کی راہ کا

یا رب ہر اِک کو اتنی مصیبت ضرور دے
مطلب سمجھ سکے وہ غریبوں کی آہ کا

منصف کی بات اور ہے حق کا مزاج اور
دعوہ ہو خود دلیل تو پھر کیا گواہ کا

تم کو بھی فُرصتں ملیں مجھ کو بھی تھوڑا وقت
سوچیں گے کوئی راستہ پھر سے نباہ کا


امید ہے کہ کوئی نیا گل کھلائیگا
یہ سلسلہ بڑھے جو تِری رسم و راہ کا

مجبورو ناتواں کوئی انساں نظر نہ آئے
گذریگا یاں سے قافلہ عالم پناہ کا

دنیا کہیں بھی جائے، کہیں جا کے لو لگائے
میں بس اُمیدوار ہوں تیری نگاہ کا

شاید کے اب بھی لڑکیاں اُنگلیں تراش لیں
پانی پیا ہے میں نے بھی یوسف کے چاہ کا

کالر پہ جچ رہا ہوں بہت ہی مگر انا 
ٹوٹا ہوا میں چاند ہوں اک کجکلاہ کا
اناقاسمی




::6:: 

غزل 

کھینچی لبوں نے آہ کے سینے پہ آیا ہاتھ
بس پر سوار دور سے اس نے ہلایا ہاتھ

محفل میں یوں بھی بارہا اس نے ملایا ہاتھ
لہجہ تھا نا شناس مگر مسکرایا ہاتھ

پھولوں میں تیری سانس کی آہٹ سنائی دی
باد صبا نے چپکے سے آکر دبایا ہاتھ

یوں زندگی سے میرے مراسم ہیں آجکل
ہاتھوں میں جیسے تھام لے کوئی پرایا ہاتھ

میں تھا خموش جب تو زباں سب کے پاس تھی
اب سب ہیں لاجواب تو میں نے اُٹھایا ہاتھ

اناقاسمی
::7::

غزل 

یہ فاصلے بھی ساتھ سمندر سے کم نہیں
اس کا خدا نہیں ہے، ہماراصنم نہیں

کلیاں تھرک رہی ہیں، ہواؤں کے ساز پر
افسوس میرے ہاتھ میں کاغذ قلم نہیں

پیکر تو دیکھ اس میں ہی کل کا ئنات ہے 
جامِ سفال گرچہ مِرا جامِ جم نہیں

تم کو اگر نہیں ہے شعورِ وفا تو کیا
ہم بھی کوئی مسافر دستِ الم نہیں

ٹوٹے تو یہ سکوت کا عالم کسی طرح
گر ہاں نہیں تو کہہ دوخدا کی قسم نہیں

اِک تو کہ لا زوال تِری ذاتِ بے مثال
اِک میں کہ جس کا کوئی وجودو عدم نہیں
اناقاسمی 
::8::
غزل 
بہت ویران لگتا ہے تِری چلمن کا سنّاٹا
نیا ہنگامہ مانگے ہے یہ شہرِفن کا سنّاٹا

مجھے تاریک راتوں میں صدائیں اب بھی آتی ہیں
میاں تم نے کبھی جھیلا نہیں بچپن کا سنّاٹا

کوئی پوچھے تو اس سوکھے ہوئے تلسی کے پودے سے
کہ اس پر کس طرح بیتا کھلے آنگن کا سنّاٹا

تِری محفل کی رودادیں بہت سی سن رکھی ہیں پر
تِری آنکھوں میں دیکھا ہے ادھورے پن کا سنّاٹا

سیانی مفلسی پھٹپاتھ پر بے خوف بکھری ہے
کہ دس تالوں میں رہتا ہے بچارے دھن کا سنّاٹا

خدایا ا س جہاں پر تو تِرے بندوں کا قبضہ ہے
تو ان تاروں سے پر کر دے مِرے دامن کاسنّاٹا


مری اس سے کئی دن سے لڑائی بھی نہیں پھر بھی
عجب خوشبو بکھیرے ہے یہ اپنے پن کا سنّاٹا

تمہیں یہ نیند کچھ یوں ہی نہیں آتی انا  صاحب
دلوں کو لوریاں دیتا ہے ہر دھڑکن کا سنّاٹا
اناقاسمی 
:: 9 ::

غزل 
خاموش یوں کھڑے ہیں شجررہگذر کے بیچ
جیسے کے منتظر ہو کوئی بام و در کے بیچ

سو حادثے ٹلے ہیں اگر سے مگر کے بیچ
تب راستہ کھلا ہے نظر سے نظر کے بیچ

بچے مرے ببول کے سائے طلے پلے
رکھتے نہیں ہیں فرق وہ خار و ثمر کے بیچ

اتنے ہی میرے عظم و یقیں کے ہیں مرہلے
جتنی کہ زندگی ہے دعا و اثر کے بیچ

شب چاندنی تھی چھت پہ کھڑی میری منتظر
گھلتا رہا بدن مرا شام و سحر کے بیچ

الفاظ زیر لب ہی سسک کر کے رہ گئے
آواز اس کی ڈوب گئی چشمِ تر کے بیچ

تجھکو انا یہ عظم فناکر نہ دے کہیں
پتوار کے بغیر کہاں اس بھنور کے بیچ

اناقاسمی 
:: 10 ::
غزل 
شام کے شانہِ سے جب آنچل ڈھلے
چاندنی کے رتھ پہ تم آنا چلے

رات کچّی نیند میں تم کو جگاؤں 
تو حنائی ہاتھ سے آنکھیں ملے

تو سرورِ رقص میں بل کھائے یا
چاند لہروں کے تلے انگڑائی لے

ہو چلے ناسور جب زخمِ امید
تب تری آواز کے نشتر چلے

ہم فقیروں کی کہاں منزل یہاں
مرحلے در مرحلے در مرحلے

آؤ چلکر بسترِ خاکی پہ سوئیں
نیلگوں آکاش کے سائے تلے

چڑھ رہے ہیں یاس کے سایے بہت
یوں سمٹتے جا رہے ہیں فاصلے

آپ کیسے شاعروں کے غول میں
آدمی تو آپ تھے اچھے بھلے

ٹوٹ جائے رات کا بند قبا
سینۂ خرشیدسے چادر ڈھلے

روشنی کے اس تعاقب میں انا 
جب جلے اپنے ہی بال و پر جلے
اناقاسمی 
:: 11 ::
غزل
قتعات

ابر بیتاب ہوکے چیخ پڑا
برق انگڑائی لے کے جاگ اُٹھی
قطرہ قطرہ جگر سے خوں ٹپکا
رات تنہائی لے کے جاگ اُٹھی



خوب ہریایے ہیں چنے کے کھیت
بیریاں پھل رہی ہیں آ جاؤ
فرصتوں کے بھی کچھ تقاضے ہیں
چھٹیاں چل رہی ہیں آجاؤ





:: 12 ::

غزل
روٹھنا مجھ سے مگر خود کو سزا مت دینا
زلف رُخسار سے کھیلے تو ہٹا مت دینا

میرے اِک جرم کی قسطوں میں سزا مت دینا
بے وفائی کا صلہ یار وفا مت دینا

کون آئیگا دہکتے ہوئے شعلوں کے پرے
تھک کے سو جاؤں تو اے خواب جگا مت دینا

ساری دنیا کو جلا دیگاتِرا آگ کا کھیل
بھڑکے جزبات کو آنچل کی ہوا مت دینا

خون ہو جائے نہ قسمت کی لکیریں تیری
میلے ہاتھو کو کبھی رنگ حنا مت دینا

اوچھی پلکوں پہ حسیں خواب سجانے والے
میری آنکھو سے میری نیند اُڑا مت دینا

سوچ لینا کوئی تاویل مناسب لیکن
اس ہتھیلی سے مرا نام مٹا مت دینا

اناقاسمی 
:: 13 ::
غزل 
جب کوئی اس پہ جان دینے لگے
جا ن کی وہ امان دینے لگے

آنکھ بستر پہ اُس گھڑی جھپکی
جب پرندے اذان دینے لگے

اس کے لہجے میں دھار آنے لگی
لفظ دل پر نشان دینے لگے

ٹوٹ جائے نہ یہ بدن کا کساو
تیر کو کیوں کمان دینے لگے

آؤ باہر ذرا ٹہلکر آئیں
اب یہ بستر تھکان دینے لگے

میری غزلیں سمجھ میں آنے لگیں
اب ادھر بھی وہ دھیان دینے لگے
اناقاسمی 

:: 14 ::

غزل 
کس سے پوچھوں ائے فلک حالات کا سورج ہے کون
تلملاتا کیوں اُٹھا ہے بات کا سورج ہے کون

دے گیا آنکھوں کو سپنے، لے گیا آنکھوں کا نور
تو زمیں کی تہہ میں ڈوبا، رات کا سورج ہے کون

تیرے جاتے ہی یہ ذرّے آسماں پیماں ہوئے
سب یہ کہتے ہیں بتا ظلمات کا سورج ہے کون

ہے کہاں اب مشرق و مغرب کا وہ تابنداگر
ان گھٹاؤں کے تلے برسات کا سورج ہے کون

آخرش اس کا بھی سر خو سے شفق رنگ جائیگا
یہ جہانگیری ہے کس کی ذات کا سورج ہے کون

روشنی کے پر سمیٹے شام کی دہلیز پر
زندگی کے آخری لمحات کا سورج ہے کون

کچّی فصلوں کا لہو برسوں سے پی جاتا ہے کیوں
بادلوں میں چھپ کے بیٹھا گھات کا سورج ہے کون

یہ دھکتی آگ اور یہ آبلہ پائی تری
ائے انا دل میں تِرے جزبات کا سورج ہے کون
اناقاسمی 

:: 15 ::.
غزل 
جا چکا ہے سب تو اب کیا جائیگا
یار پانسہ پھینک دیکھا جائیگا

خود تراشیدہ لکیریں ہی نہ پڑھ
بول جوگی سال کیسا جائیگا

ہے کڑی یہ دھوپ کچھ سایہ بھی ہو
ورنہ یہ پودھا تو کملا جائیگا

تشنگی میری ہنسیگی اور سُن
اب کی رُت میں ابر پیاسا جائیگا

اور بڑھ جائیگی دھرتی کی تھکان
بوڑھے برگد کا جو سایہ جائیگا

دل وہ شے ہے شاعری کے شہر میں
جس قدر ٹوٹیگا، مہنگا جائیگا
اناقاسمی 
:: 16 ::
غزل 
زخم مہکیں گے تو آہوں میں اثر بھی آئیگا
رفتہ رفتہ شعر کہنے کا ہنر بھی آئیگا

منزلوں کے ذکر کو مٹنے نہ دینا واعظو
حوصلہ زندہ ہے تو عظم سفر بھی آئیگا

رو پڑیگی چشمِ دوراں اپنا چہرا دیکھ کر
جب قلم کی نوک پر خون جگر بھی آئیگا

کھا رہا ہوں ایک مدّت سے فریبِ زندگی
سوچتا ہوں کوئی لمحہ معتبر بھی آئیگا

ائے اناؔ اپنے لئے چن لے صراطِ مستقیم
ہاں مگر کچھ راستہ ذیرو زبر بھی آئیگا

جستجو میں جسکی جو ہے پاہی لیگا ایک دن
ائے خدا اِک دن نہ اِک دن تو نظر بھی آئیگا
اناقاسمی 
:: 17 ::
غزل 
کجکلاہی سے نہ مطلب ریشمی شالوں سے ہے
دوستانہ یار میرا صرف متوالوں سے ہے

شاعری کا شوق تو تازہ ہے لیکن دوستو
سلسلہ تو حُسن والوں سے مرا سالوں سے ہے

اُڑ کے جائیگا بھلا وہ جنگلی پنچھی کہاں
جسکی سریانوں میں خوشبو آم کی ڈالوں سے ہے

پر کٹے پنچھی چمن میں رینگتے سے دیکھ کر
جانے کیوں اِک خوف سا ہر دم تِرے بالوں سے ہے

ہم کہ تج دیں زیندگی تک اُس پری پیکر کے نام
پھر بھی اس کو بیر سا ہم چاہنے والوں سے ہے
اناقاسمی 



:: 18 :: 
غزل 
دوزخ سی یہ دنیا بھی سہانی ہے کہ تم ہو
یہ بارے غمِ زیست اُٹھانی ہے کہ تم ہو

لفظوں میں وہی روح مُعانی ہے کہ تم ہو
غزلوں میں وہی شعلہ بیانی ہے کہ تم ہو

کچھ یوں ہی نہیں روح میں اُتری ہے یہ خوشبو
بولو تو سہی، رات کی رانی ہے کہ تم ہو

محفل میں غزل پڑھنے کا یارا تو نہیں ہے
ہاں تم کو کوئی بات سنانی ہے کہ تم ہو

آنچل ہے ترا، یا کہ ہیں سب رنگ دھنک کے
یہ وادیء خوش رنگ ہی دھانی ہے کہ تم ہو

اب رُخ سے نقاب اپنے اُلٹ دے مرے قاتل
کیا فرق ہے اب دشمنِ جانی ہے کہ تم ہو
اناقاسمی 
:: 19 ::
غزل 
واقعہ ہے یا کے تیرا ذکر افسانوں میں ہے
بات کچھ تو ہے کے تو اخبار کے خانوں میں ہے

نصف شب تو غرق میری جام و پیمانوں میں ہے
اور باقی جوہے وہ تسبیح کے دانوں میں ہے

ہم متن پڑھتے رہے لیکن اب آیا یہ دماغ
لطف تو سارے کا سارا حاشیہ خانوں میں ہے

یوں نہیں، اب ان لبوں کو بھی تو زحمت دیجئے
کیوں گھمے یہ ہاتھ کیوں جمبش ترے شانوں میں ہے

کیا کہیں اس کو سرمقتل تھا جو خنجر بکف
وہ برہنہ سر ہمارے مرثیہ خوانوں میں ہے

سر بکف پھرتا ہوں تیرے شہر میں تنہا کہ سن
خوف کس کا جب کے وہ میرے نگہبانوں میں ہے
اناقاسمی 
:: 2 :

غزل 
مسلہت خیز یہ ریاکاری
زندگانی کی ناز برداری

قیصری تیری میرا دشتِ نجد
اپنے اپنے جہاں کی سرداری

کیسے ناداں ہو کاٹ بیٹھے ہو
ایک ہی رو میں زندگی ساری

ہو جو ایماں تو بیٹھتا ہے میاں
ایک انساں ہزار پر بھاری

کاروبارے جہاں سے گھبراکر
کر رہا ہوں جُنوں کی تیاری

ذہن و دل میں چُبھن سی رہتی ہے
شاعری ہے عجیب بیماری

مسکرا کیا گئی وہ شوخ ادا
دل یہ گویا چلا گئی آری

اناقاسمی 
:: 21 ::
غزل 
مری خاطر یہ نادانی کروگے
تم اپنی آنکھ کو پانی کروگے

مری ٹوپی کی قیمت پوچھتے ہو
میرے تم در کی دربانی کروگے

اُتر کر دل سے خنجر پوچھتا ہے
کہو کسکی ثناخوانی کروگے

جنوں حد سے گزرتا جا رہا ہے
تم اب صحرا میں سلطانی کروگے

عداوت میں بہت کچھ کر چکے ہو
محبت میں بھی منمانی کروگے

پھلوں سے شاخ اب جھکنے لگی ہے
کہاں تک تم نگہبانی کروگے
اناقاسمی
:: 22 ::
غزل 
قطعات

چلے پون تو وہ آنچل نہ پیچ کھائے کہیں
دھرا ہے ہاتھ نہ عارض پہ بوند آئے کہیں

منانے آئے ہیں فصل بہار کی خوشیاں
اس احتیاط سے ساری نہ بھیگ جائے کہیں

***

وہ شخص انا نیدن سے آگوش میں ہوگا
اِک تم ہو کہ سؤ رات سے بس جاگ رہے ہو
کچھ ہاتھ نہ آئیگا بجوز رنگِ ندامت
تتلی کے تعاقب میں کہاں بھاگ رہے ہو
اناقاسمی 



:: 23 ::
غزل 
گیسو گھٹا ہیں، برق نظر میں سمائی ہے
اب کے بہار سانس کے جھونکوں میں آئی ہے

اِٹھلا کے آکے سامنے پایل بجائی ہے
ایماں پہ بن پڑی ہے قیامت وہ ڈھائی ہے

سہمے ہوئے ہیں لفظ بعنوانِ عرض شوق
پہلے پہل کسی سے مری آشنائی ہے

بچپن کی اِیک جھینپی سی تصویرِ حسن آج
احساس شاعری میں جواں ہوکے آئی ہے

رگ رگ میں جیسے لمس کی کلیاں چٹک اُٹھیں
رہ رہ کے ہر نفس میں وہ یوں مسکرائی ہے

نکلے ابھی نہیں ہیں پرو بال بھی مگر
باندھا ہے وہ خیال فضا تھرتھرائی ہے


ڈر ہے کہ ذاہدوں کا نہ ایمان ڈوب جائے
کافر کے مدّعا میں بلا کی صفائی ہے

ایسی ہی بات تھی نہ خدا سے کہی گئی
جا جا کے بس مزار پہ چادر چڑھائی ہے

کانٹوں پہ چل کے پانوں رنگے ہے کوئی اناؔ 
تم یہ سمجھ رہے ہو کہ مہندی رچائی ہے
انا قاسمی 










:: 25 ::
غزل 
کب نہیں خونِ جگر چھڑکا تِرے عُنوان پر
ہاتھ رکھ کر تو ہی کہ دے میر کے دیوان پر

پھر گیا ہے آج پانی میرے سب ارمان پر
دیکھ کر اسکی عنایت اجنبی مہمان پر

جسم ہی کیا روح میں سرگوشیاں تحلیل ہیں
لب رکھے ہیں جب سے اُس نے اپنے میرے کان پر

سب بیاضیں طول دیں جس نے مری ردی کے بھاو
شاعری ہے منحصر میری اُسی نادان پر

اپنی ہی آواز سے ڈر کر کبھی ایسا لگا
ٹوٹ کر جیسے گرے بجلی کسی چٹّان پر

روزِ محشر کا تصور ہو گیا بالا نے  طاق
وہ قیامت ڈھائی ہے انسان نے انسان پر


آپکی بھی بات نکلی دیر تک صحبت رہی
چل پڑا تھا تبصرہ کل رات کو شیطان پر

گولیاں چلنے کی آوازیں بتاتی ہیں اناؔ 
آ گئی ہے بات چلکر پھر کسی کی آن پر
اناقاسمی 













:: 26 ::

غزل 
ایک جانب سے کہاں ہوتی ہیں ساری غلطیاں
آپکی کچھ غلطیاں ہیں کچھ ہماری غلطیاں

اِک ذرا سی لغزش آدم پہ یہ کیا ہو گیا
بخشنے کو بخش دی جاتی ہیں بھاری غلطیاں

وہ لڑکبن کی خطائیں وہ خطاؤں کا سُرور
میٹھی میٹھی لغزشیں وہ پیاری پیاری غلطیاں

اب وہ طوبہ کر رہے ہیں مسجدوں میں بیٹھکر
جبکہ بوڑھی ہو چکی ہیں وہ کُنواری غلطیاں

بارہا ٹھوکر لگی گرتے رہے پڑتے رہے
پھر بھی ہم سدھرے نہیں پھر بھی ہیں جاری غلطیاں

غلطیاں بھی خوبیوں میں اب گنی جانے لگیں
اس نئی تہذیب نے ایسے سنواری غلطیاں

وقت ہے اب بھی سدھر جاؤ انا ورنہ سنو
تمکو اب مہنگی پڑینگی یہ تمھاری غلطیاں
اناقاسمی

:: 27 ::
غزل 
کون باتوں میں آتا ہے پگلے
کس کو دُکھڑا سُناتا ہے پگلے

کیا بچایا ہے میں نے تیرے سوا
تو مجھے آجماتا ہے پگلے

زخم بھی کھِل کھِلا کے ہنستے ہیں
درد بھی مسکراتا ہے پگلے

اپنی کٹیا سُدھارنے کی سوچ
چاند پر گھر بناتا ہے پگلے

بک چکے ہیں وہ دست و سہرا سب
اب کہاں پر تو جاتا ہے پگلے

اُ س پری رُخ کے اُلٹے پانو بھی دیکھ
یہ کہاں دل لگاتا ہے پگلے
اناقاسمی 
:: 28 ::

غزل 
کیا ہے شاعری کا شوق پھر کیا یار شرمانا
سُنانا ہو غزل کوئی تو میرے گھر چلے آنا

یہ بستی منچلوں کی ہے یہاں مت وعظ فرمانا
کہاں لفڑے میں پڑتے ہو چلو گھر جاؤ مولانا

میں تھک کر سارا اپنا بوجھ آنکھوں سے بہا دیتا
مرے ماتھے کو بھی ہوتا اگر اِک پھول سا شانا

چلو اب عشق کا یہ مسئلہ بھی طے ہی ہو جائے
کہ شمع کون ہے ہم میں سے اور ہے کون پروانہ

اسی ردّو قدہ میں عمر اس منزل کو پہنچی ہے
کبھی اقرار کر لینا، کبھی انکار کر جانا

یہی دو حادثے اس زندگی میں سب سے بڑھکر ہیں
ترا آنچل سرک پڑنا، ہمارا دل دھڑک جانا

شرابِ عشق یزداں کی خماری دیکھتے کیا ہو
تمہاری وہ جو مسجد ہے ہمارا ہے وہ میخانہ

اناقاسمی 
:: 29 ::

غزل 

مری تباہی کا وہ ہی ارادہ رکھتے ہیں
مجھی سے جو شرف استفادہ رکھتے ہیں

اُٹھائیے کبھی زحمت غریب خانہ کی
مکان چھوٹا مگر دل کُشادہ رکھتے ہیں

دلوں میں رکھتے ہیں طوفان حسرتوں کے وہیں
جو اپنے حسن کے تیور کو سادہ رکھتے ہیں

اِدھر بھی کم نہیں رکھتے ہیں داغ سینے پر
یہ بات اور ہنر وہ زیادہ رکھتے ہیں

یہ بھاگتی ہوئی دنیا یہ سبقتوں کا دور
مگر ہیں ہم کہ سفر پا پیادہ رکھتے ہیں

وہی ہے عشق مرا میری حسرتوں کو بیاں
ورق کتاب کا پہلا جو سادہ رکھتے ہیں
اناقاسمی 
:: 30 ::
غزل 
آنکھوں میں پڑھ رہا ہے محبت کے باب کو
پانی میں دیکھتا ہے کوئی آفتاب کو

بس یوں سمجھئے شوقِ طلب کے عِتاب کو
شعلوں پہ رکھ دیا ہے شگفتہ گلاب کو

جوبن کو ، بانکپن کو، حیا کو، شباب کو
آنکھوں سے پی رہا ہوں چھلکتی شراب کو

شرما رہا ہے چھوکے ترا جسم کس طرح
نظریں اُٹھا کے دیکھ ذرا ماہتاب کو

اک عمر تری راہ میں برباد کر چکا
اِ ک عمر رہ گئی ہے حساب و کتاب کو

فانی ہوں میں حقیر ہو کچھ بھی نہیں ہوں میں
میں کیا کروں گالے کے عذاب و ثواب کو

جو عکس اس میں آیا اُترتا چلا گیا
آخر میں کیا کروں دلِ خانہ خراب کو

اب کے ترا صنم بھی جواں ہو چلا اناؔ 
سرکا کے جھانکتا ہے غزل کے حجاب کو
اناقاسمی 

:: 31::

غزل 
رموز رنگ خوشبو کی زباں کو کون سمجھے گا
گلِ صدبرگ کی طرزفغاں کو کون سمجھے گا

میری آنکھیں بھی نم ہیں باوضو ہے اس چہرا بھی
بجزرندوں کے اس پیرِ مغاں کو کون سمجھے گا

بجھیگی پیاس تو تشنہ لبوں پر برق کھیلے گی
ہے کیوں پیہم دواں آبِ رواں کو کون سمجھے گا

نہیں تو اِک شکستِ خاموشی کا حرفِ اوّل ہے
پس انکار مضطر اس کی ہاں کو کون سمجھے گا

وہ تعمیرِ جہاں کی بات اب قصہ کہانی ہے
مگر اقبال کے خوابِ گراں کو کون سمجھے گا

فلک کی بات تو اہل خرد سب جان بیٹھے ہیں
جُنو کو فکرہے کہ اس جہاں کو کو ن سمجھے گا

ہوئی بارش تو ہر دیوارو در سے میہ برسیگا
مکیں ہوں میں جہا ں اب اس مکاں کو کون سمجھے گا
اناقاسمی
:: 32 :: 

غزل 
گل جو دامن میں سمیٹے ہیں شرر دیکھ لیا
لاکھ رنگوں نے چھپایا بھی مگر دیکھ لیا

میری آنکھیں کہ لئے پھرتی ہے بادل میں ہوا
سیپ کے ہونٹ ہوئے وا کہ گہر دیکھ لیا

میری پلکوں پہ ندامت کے پھر آنسو نہ تھمے
میرے قاتل نے مرا دامنِ تر دیکھ لیا

خوف سا ہے مرے پہلو کی ہر اِک شے پہ محیط
دل کا غم بھی ہے مگر چور نے گھر دیکھ لیا

اسنے غزلیں میری تاروں کی زبانی سن لیں
میں تھا حیراں کہ کہاں تابِ ہنر نے دیکھ لیا

زندگی نے مجھے بس اتنی ہے مہلت دی ہے
شام کی شام تجھے ایک نظر نے دیکھ لیا

کون رکّھیگا یہاں قید بھلا میری اناؔ
ابکی یہ زلفِ دُتا تیرا بھی سر دیکھ لیا

اناقاسمی 
:: 33 ::

قطعات

یہ حقیقت ہے ائے دلِ ناداں
تجھکو یہ ماننا بھی مشکل ہے
چہرے اتنے بدل چکا اب تک
خُد کو پہچاننا بھی مشکل ہے


***

پھر نیا زخم نئی ایک غزل کی صورت
جیسے ممتاز کا غم تاج محل کی صورت
آج بھی کتنے مسیحا لئے پھرتے ہیں صلیب
دیکھ مزدور کے کاندھے پہ یہ ہل کی صورت





:: 34 ::
غزل 
اس شخص کی عجیب تھیں جادو بیانیاں
ایمان میرا لے گئیں جھوٹھی کہانیاں

میں اس کو پاکے، اب بھی ہوں اس کی تلاش میں
سوچا تھا، ختم ہو گئیں سب جاں فشانیاں

یہ بات بھی بجا کے کہا تم نے کچھ نہ تھا
پھر بھی تھیں تیری ذات سے کچھ خُوش گمانیاں

راتوں کو چاندنی سے بدن جل اُٹھا کبھی
دن کو مہک اُٹھی ہیں کبھی رات رانیاں

تھا پارسا تو میں بھی مگر اسنے جب کہا
آتی کہاں ہیں لوٹ کہ پھر یہ جوانیاں
اناقاسمی 


:: 35 ::
غزل 
یہ جملہ بہت پہنچے فقیروں نے کہا ہے
آہوں سے غریبوں کی فلک جھول رہا ہے

اِک میں ہوں کہ جنّت کی فضاء بھول چکا ہوں
اِ ک تو ہے کہ مدّت سے مجھے ڈھونڈھ رہا ہے

میں اپنے تغافل پہ پشیماں ہوں کہ ہوں انساں
وہ اپنے اِشارے پہ اٹل ہے کہ خدا ہے

اب میری لڑائی یہ مرے بچے لڑیں گے
شاخیں تو سبھی سوکھ چُکیں زخم ہرا ہے

دل اور ،دماغ اور، نظر اور، زباں اور
اس دور کا انساں کئی حصّوں میں بٹا ہے

دنیا ترے ایماں کے تعاقب میں لگی ہے
یہ سوچ کہ دل تھام کے یہ غار ہرا ہے

اناقاسمی 
:: 36 ::
غزل 
شہر دل ہے کے قریہ  جاں ہو
درد تیرا کہیں تو مہماں ہو

ہم فقیروں کو سب برابر ہے
قصرِ شاہی ہو یا بیاباں ہو

چند زخموں کا قرض کیا رکّھوں
وار اب کے حیات پیماں ہو

اشک میرے گہر بھی ہو جائیں
کاش آنکھوں کو تیرا داماں ہو

بیوفائی اسے ہے راس آئی
پھر وفا کرکے کیوں پشیماں ہو

ہے پریزاد کی نظر تجھ پر
اب خدا ہی ترانگہواں ہو

اناقاسمی 
:: 37 ::

غزل

یہ بھیانک سیاہ رات نکال
دولتِ حسن کی ذکات نکال

اس نے ہاں کر دی ہے تو ائے دنیا
قوم کی بات کر، نہ ذات نکال

حضرتِ خضر، راستہ نہ بتا
اس اندھیرے میں اپنا ہاتھ نکال

ہاتھ لگ جائے اِک فسانہ اور
ہر کہانی میں ایسی بات نکال

ذکر فرہادو قیس رہنے دے
شاخِ آہو پہ مت بارات نکال

خوُد عبارت وجود کھو بیٹھے
اتنے زیادہ نہ اب نکات نکال

اناقاسمی 
:: 38 ::
غزل 
اس کی رحمت کا سحاب اترے
میرے کاندھوں سے پھر حساب اُترے

خوُد سے پوچھو تباہیوں کا سبب
آسمانوں سے کیوں جواب اُترے

چشمِ اقرار کی چمک مت پوچھ
جھیل میں جیسے ماہتاب اُترے

تیری پازیب کی جھنک گونجی
تاکِ نسیاں سے پھر رُباب اُترے

عشق شعلہ بجاں ہو سینا پر
ملکۂ حسن پر کتاب اُترے

روشنی شہرِ جاں میں پھیلے کچھ
مطلع دل پہ آفتاب اُترے

انا قاسمی 
:: 39 ::

غزل 

تخیّلات کی تیرہ شبی بھی لیتا جا
جفاء دوست غمِ دوستی بھی لیتا جا

گرا لیا ہے جو چلمن تو اے نشینِ سخن
تصورات کی آوارگی بھی لیتا جا

شکستِ ساگرو مینا وجام سے پہلے
جو ہو سکے تو مری سرخوشی بھی لیتا جا

نئے شباب نئی دلبری کے صحرا میں
کشاں کشاں مری تشنہ لبی بھی لیتا جا

تری نواں نے بساطِ سخن دیا ہے جنہیں
انہیں سے طعنۂ کم مائگی بھی لیتا جا

مرا جُنوں ہے تری وسعتِ نظر کا حریف
جو بن پڑے تو یہ دیدہ وری بھی لیتا جا

تمام رات ستاروں سے کھیلنے والے
سحر کی آنکھ سے تھوڑی نمی بھی لیتا جا

اناؔ بہت ہوئی جاتی ہے اور رہنے دے
لے اپنی غزلوں کی یہ ڈائری بھی لیتا جا
اناقاسمی 
:: 40 ::

غزل 
ہے کوئی جو اس غرورِ حسن کا سودا کرے
تختِ شاہی کے مقابل کام اِک تیشہ کرے

میرے کاسہ میں ہے دیکھو یار ساری کائنات
جامِ جمشیدی میں کوئی کل جہاں دیکھا کرے

موسموں کے ساتھ تو بادل جھکیں گے اور بھی
تو مگر اس دوپہر کے حبس کو توڑا کرے

پڑھنا کیامشکل ہے ائے دل، ان گلوں کی داستاں
تتلیوں کے پر پہ لکھی بات گر سمجھا کرے

اور تو سب ٹھیک ہے، لیکن ذرا اسکو کہو
خط اگر بیجا کرے تو نام نا لکھا کرے

کیا اکیلا ،کیسا راوی ،کون سنجے، چھوڑ یار
سارے شاعر ہو گئے دلکش، اناؔ اب کیا کرے
اناقاسمی 
:: 41 ::
غزل 
اشک اتنے ہم نے پالے آنکھ میں
پڑ گئے ہیں یار چھالے آنکھ میں

جاگتی آنکھوں کو بھی فرصت نہیں
تمنے اتنے خواب ڈالے آنکھ میں

اس گلی کے بعد تاریکی ہے دیکھ
کچھ بچا رکھنا اُجالے آنکھ میں

پتھروں پر نیند بھی آ جائیگی
بستروں پرگل بچھا لے آنکھ میں

کچھ بکھرتا ٹوٹتا جاتا ہوں اب
کوئی تو مجھکو چھپا لے آنکھ میں

بوڑھی آنکھوں میں کوئی رہتا نہیں
مکڑیاں بنتی ہیں جالے آنکھ میں

اناقاسمی
:: 42 ::
غزل 
یہ اپنا ملن جیسے اِک شام کا منظر ہے
میں ڈوبتا سورج ہوں تو بہتا سمندر ہے

جو دور سے چمکے ہیں وہ ریت کے ذرّے ہیں
جو اصل میں موتی ہے وہ سیپ کے اندر ہے

دو دوست میسر ہیں اس پیار کے رستے میں
اِک میل کا پتھر ہے اِک راہ کا پتھر ہے

سب بھول گیا آخر پیراک ہنر اپنے
اب جھیل سی آنکھوں میں مرنا ہی مقدّرہے

دل اور بھی لیتا چل پہلو میں جو ممکن ہو
اس شوخ کے رستے میں اِک اور ستمگر ہے

سونے کا صنم تھا وہ سب نے اس پوجا ہے
اس نے جسے چاہا ہے وہ ریت کا پیکر ہے

اب کون اُٹھائیگا اس بوجھ کو کشتی پر
کشتی کے مسافر کی آنکھوں میں سمندر ہے

الجھے ہو انا سے اب آسار فنا کے ہیں
جو پھونک دے آہوں سے وہ مردِ قلندر ہے
اناقاسمی 

:: 43 ::

غزل 
کبھی وہ شوخ میرے دل کی انجمن تک آئے
میرے خیال سے گذرے میرے سخن تک آئے

جو آفتاب تھے ایسے ہوا ترے آگے
تمام نور سمیٹا تو اِک کرن تک آئے

کہے ہیں لوگ کہ میری غزل کے پیکر سے
کبھی کبھار تری خوشبوئے بدن تک آئے

جو تو نہیں تو بتا کیا ہواہے رات گئے
مری رگوں میں ترے لمس کی چبھن تک آئے

اب اشک پونچھ لے جاکر کہو یہ نرگس کو
اگر تلاشِ نظر ہے مرے چمن تک آئے

تمام رشتے بھلاکر میں کاٹ لونگا اِنہیں
اگر یہ ہاتھ کبھی مادرِ وطن تک آئے

جو عشق روٹھ کے بیٹھے تو اس طرح ہو اناؔ
کہ حسن آئے منانے تو سو جتن تک آئے

اناقاسمی 
:: 44 ::
غزل 
قطعات

سائے بڑھے تو گھاٹ فنا کے اُتر گئے
سورج تھکا تو تھک کے پہاڑوں پہ گر گیا
میں نامراد آس کے چتھڑے سمیٹ کر
پلٹا تو زندگی کے دُھندھلکے میں گھر گیا


****


پریاں فلک پہ رقص کُناں جیسے ہو اُٹھیں
آنچل ہوا کا تھام کے بادل نکل پڑے
یوں چاند نکلا چھپتا چھپاتا کے جس طرح
معشوق کوئی کوچۂ جانا میں چل پڑے




:: 45 ::

غزل
مجھے دیکھا تو وہ کچھ اس طرح سے مسکرائے ہیں
لبِ اظہار سے حرفِ شکایت لوٹ آئے ہیں

کبھی ایسا ہواسارا جہاں اپنا لگا ہم کو
کبھی ایسا کہ اپنی ذات سے ہم خودپرائے ہیں

بنائی جا رہی ہیں پھر سے دیوانوں کی فہرستیں
تیرے کوچے سے اب کی کچھ نئے بھی نام آئے ہیں

بہاریں دیکھتیں تو چوم لیتیں میرے ہونٹھوں کو
وہ میری جس جراست پر شکن ماتھے پہ لائے ہیں

گلوں کے کان میں تتلی نے کیسا رس یہ گھولا ہے
دہک اُٹّھے ہیں عارض لب ذرا کچھ تھرتھرائے ہیں

پکار آئی فلک سے جانے اب پھر کس مسیحا کی
جہاں والے اُٹھاکر پھرصلیب ودار لائے ہیں[

وہی اپنا مدائے الم ٹھرا ہے صدیوں سے
کہ جس کے ہاتھ کے نشتر سے دل پر زخم کھائے ہیں

اجازت ہو تو دربارِ اناؔ تک بھی رسائی ہو
قلم محتاجِ آبرو ہے کہ مصرعے سر جھکائے ہیں

اناقاسمی 
:: 8 ::
غزل 
چپ سے نہیں کھُلے ہے نہ ہی تیری ہاں کھُلے
اچھا ہو اب حضور اگر یہ زباں کھُلے

میں اس کے دل سے گرد ہٹانے کی دھون میں ہوں
آخر کبھی تو مجھ سے مرا بدنماں کھُلے

اس رند بادہ نوش کو پینے سے ہے غرض
پلکیں اُٹھیں تمہاری کہ مے کی دکاں کھُلے

دریا میں ہم بھی پھینک دیں ترکش کے سارے تیر
پر اس کے بعد پھر نہ کسی کی کماں کھُلے

خالد سا جاں فروش ہو میرِ حجاز پھر
ائے کاش پھر وہ سبزعُقابی نشاں کھُلے

میں بھی شریک بزم سخن ہوں مرے حضور
ابرو سے بل ہٹیں تو یہ آشفتہ جاں کھُلے

اناقاسمی 
:: 47 :
غزل 
مرحلے آئیں گے وہ بھی زندگی کے درمیاں
غم سے آنکھیں رو پڑیں گی جب خوشی کے درمیاں

تری آنکھیں نم ہیں کیوں ائے زندگئ ناصُبور
کون سا رشتہ ہے باقی اب کسی کے درمیاں

یوں تو ملنے کو سبھی ملتے ہیں لیکن کیا کہیں
کیسی دیواریں کھنچی ہیں آدمی کے درمیاں

دوستی کی کچھ رمق باقی تھی، شاید اسلئے
شدّتیں اتنی بڑھی ہیں دشمنی کے درمیاں

زندگی کچھ اس طرح محسوس اب ہونے لگی
جیسے ہنس دے کوئی ناداں برہمی کے درمیاں
اناقاسمی 
:: 48 ::

غزل 

مغموم شمع راکھ پتنگے اُداس رات
جتنے طرح کے لوگ تھے اُتنی طرح کی بات

یہ درد، یہ خلش، یہ سبھی کچھ وہی تو ہے
یہ منظرِ خموش ہے شاید مری حیات

اِک پرتوِ جمال ہے تیرا یہ ہست و بود
کرتا ہے تو سنگار، سنورتی ہے کائنات

وہ قیسِ سامری ہو ،کے ہو کوہِ کن کوئی
سمجھا نہیں ہے عشق کے کیا ہیں مہرّکات

شاید ہمارے درد کا درما ہو دردِ دل
بڑھ جائے دل کا درد تو کم ہوں یہ مشکلات
اناقاسمی 


:: 49 ::

غزل

سُکوتِ شب سے نہ سورج کے سر اُٹھانے سے
ہے نظمِ شام و سہر تیرے مسکرانے سے

مرے قریب ہی سرگوشیاں وہ سنتا ہے
ہے انتظار مجھے جس کا اِک زمانے سے

تمہارے بعد کئی اور لوگ آئے ہیں
مگر یہ بات الگ ہے ترے فسانے سے

میں تیری مانگ کو تارے سمیٹ لایا ہوں
چلے گا کام نہ اب کچھ بھی سر ہلانے سے

یہ انقلاب دعاؤں کی دسترس میں کہاں
اذان صبح سُنی ہے شراب خانے سے

عجب تماشہ ہستی ہے سوچئے صاحب
وجودِ خلق ہے گیہوں کے ایک دانے سے

اناقاسمی 
:: 50 :
غزل 
کتنا دلچسپ ہے ہر بات پہ بل کھاناترا
تھوڑا ہنسنا ترا باریک سا مسکانہ ترا

ایسے ویرانے میں تجھکو بھلا پیش کروں
رات ہے، جھیل ہے یہ چاند ہے نذرانہ ترا

ہم تو سمجھے تھے کہ اب رات گئی بات گئی
اپنا سوبھاگیہ ہے اس بظم میں پھر آنا ترا

جتنی پیتا میں گیا نشّہ اُترتا ہی گیا
کیسے تریاک میں ڈوبا ہے یہ پیمانہ ترا

میں محبت کا پجاری میں وفاؤں کا اثیر
پر میں کیا کرتا کہ تھا شہرِ حریفانہ ترا
اناقاسمی 


:: 51 ::
غزل 
ذرا سا جوٹھا کیا میں نے پھر پیا اس نے
سبوط اپنی محبت کا یوں دیا اس نے

بدل گئے ہیں سبھی ہم نشینِ بزمِ حیات
جو کام شہرِ منافق کا تھا کیا اس نے

چکا لیا مری ہستی سے بوند بوند کا قرض
اب اسکا اور دھرا کیا ہے کیا دیا اس نے

عجیب لطف کی محفل رہی ہے آج کی شب
ردیف میں نے کہی ہے تو قافیہ اس نے
اناقاسمی 

:: 51 ::
غزل 
نہ شرافتوں کا فریب دے، نہ عنایتوں کو بچا کے رکھ
نہ چھپا کے چھیڑ یوں سازِ دل، ذرا اُنگلیوں کو دکھا کے رکھ

یہ محبتیں ہیں کہ رفرتیں کبھی یوں بھی اسکا جواب دے
مرا نام اپنی کتاب میں نہ دیئے کی لو سے جلا کے رکھ

مری عمر بھر کی مصحفیں تو کیا کریگی تلاوتیں
کہیں میرا نام بھی آئے گا اُسے اپنے لب سے ہٹا کے رکھ

کبھی ملطفت کبھی بے روخی یہ محبتوں کے مزاج ہیں
جو چراغ ہے وہ چراغ ہے تو جلا کے رکھ یا بجھا کے رکھ

یہ جو مصلحت کے نقاب ہیں یہی منفعت کے لباس ہیں
جو نہ چاہ اس کو سُنائے جا، جوہوں خواہشیں وہ دبا کے رکھ

نیا کینوس، نیا عکس ہے، نئے رنگ ہیں نئے ڈھنگ ہیں
میں جو اِک پرانا خیال ہوں اُسے میز پر سے اُٹھا کے رکھ

اناقاسمی 
:: 53 ::
غزل 
نازک سماعتوں پہ شرربار ہو گئے
نکلی زباں سے بات کہ گل خار ہو گئے

رحمت کے تیری اور طلبگار ہو گئے
طوفاں مین جب یہ ہاتھ ہی پتوار ہو گئے

اِک مہجبیں نے زخم یہ مرحم دھرا ہی تھا
اس بختِ ناسپاس کے پھر وار ہو گئے

خوابوں کی زندگی کا مزا اور تھا مگر
اچھا ہوا کہ جلد ہی بیدار ہو گئے

انکار کی ادا کا کرشمہ بھی دیکھئے
وہ پارسا ہے، لفظ گنہگار ہو گئے

تھے جو سفر میں ساتھ خدا جانے کیا ہوا
سب دخترِ عناب کے بیمار ہو گئے

اناقاسمی 
:: 54 ::
غزل 
کریں گے کوہِ انا کو بھی ہم عبور چلیں
تھکن سے پانو اگرچہ ہیں چور چور چلیں

جہاں کا قرض چکا دیں کہ ہم بھی سوچتے ہیں
گرفت شام و سحر سے نکل کے دور چلیں

ہماری بزم میں صاحب سے تذکرے ہیں بہت
کہ پائے ناز اُٹھائیں ذرا حضور چلیں

تجلّیات سے آنکھیں ذرا نہیں بھرتیں
نبھاؤ ساتھ کہ ائے دوست کوہِ طور چلیں

وفا شعارو اُٹھو دار نے صدا دی ہے
قصوروار نہ جائیں تو بے قصور چلیں

سفر ہے گر چے بہت سخت تیری جنّت کا
مگر ہے ہم سفر شوق کوئی حور چلیں

اناقاسمی 
:: 55 ::
قطعات

چند لفظوں کے پیچ و تاب میں ہے
ذکر میرا تری کتاب میں ہے
یاد پڑتے تو ہیں حوالے کچھ
ہاں کہ شاید وفا باب میں ہے


****

جب بھی سوچا ہے وہی ٹوٹتے رشتوں کی چٹخ
برق بن کر دلِ مضطر پہ گری ہے ایسے
جیسے دھرتی کا جگر چیر دے آکاش کی آگ
مامتا پھیک دے اِک پاپ کا پتلا جیسے
اناقاسمی 


:: 56 ::
غزل 
کہنی نہ پڑے بات مجھے اپنی زباں سے
ہو قصہ شروع آج سنو آپکی ہاں سے

ممکن ہے کہ ہچکی تمہیں آئی ہو وہاں پر
آواز مرے کانوں میں آئی ہے کہاں سے

ہے بات بجاقید ہوں میں سیپ میں لیکن
رشتہ تو پرانا ہے مرا آبِ رواں سے

میں اپنی ہی ہستی کے تماشے میں مگن ہوں
کیا کام بھلا مجھکو ترے کارِ جہاں سے

یہ بوجھ، مری خواہشیں کمنے نہیں دیتیں
دہری ہوئی جاتی ہے کمر بار گراں سے

جب قتل ہی کرنا تھا تویہ کیسی مروّت
پوچھو تو ذرا جاکے مرے مرثیہ خواں سے

اناقاسمی 
:: 57 ::

غزل 

یوں تو اشعار میں کچھ اور بھی غم ہوتے ہیں
قابلِ داد مگر تیرے ستم ہوتے ہیں

بس وہی شعر بچا رکھتے ہیں کچھ اپنا وجود
وہ جو کاغذ پہ نہیں دل پہ رقم ہوتے ہیں

یوں بھی ہم جیت تے آئے ہیں وفا کی جنگیں
تختِ شاہی پہ عدو، دار پہ ہم ہوتے ہیں

جنکی ٹھوکر سے سمبھل جاتے ہیں مخمورِ حیات
در حقیقت وہیں اروابِ کرم ہوتے ہیں

تم تو سلجھانے میں اِک عمر گواں بیٹھے انا
اتنے پرپیچ کہاں زلف کے خم ہوتے ہیں
اناقاسمی 
:: 58 ::
غزل 
اس قدر ناراز کیوں ہو اِک ذرا سی بات پر
مرثیہ لکھنے چلے ہو اس بھری برسات پر

اِس کے آگے اب بھلا کچھ سوچنے کا ذکر کیا
ہاتھ جب رکھ ہی دیا ہے تم نے میرے ہاتھ پر

تیرے سینے پر کھنچا خنجر لگے اِک شاخِ گل
اس قدر تو کر بھروسہ اس خدا کی ذات پر

کیا خبر کل پھر مرے اخبار کی ہولی جلے
لکھ رہا ہوں تبصرہ پھر آج کے حالات پر
اناقاسمی 
:: 59 ::
غزل 
آخرش آپ کا کہا نکلا
وہ بھی بیگانہ ئے وفا نکلا

یو نکلنا یہ تیرا رات گئے
اُف کلیجہ بھی منھ کو آ نکلا

وقت کے سینۂ سمندر سے
غرق صدیوں کا قافلہ نکلا

آج کا دن بہت مبارک ہے
آج سورج جو بے صدا نکلا

آپکی بات جب کبھی نکلی
میرا چرچا بھی جا بجا نکلا

آس کے چشمہ مروّت سے
درد کا ایک سلسلہ نکلا

اناقاسمی 
:: 60 ::
غزل 
یوں ہوئی تعبیر شرمندہ خود اپنے خواب پر
کاکل شب رنگ لہرائی رخِ مہتاب پر

تبصرہ کرنے چلے ہیں گوہرِ نایاب پر
مار کر دو ہاتھ آئے ہیں جو سطحِ آب پر

بات جو کچھ سچ ہے کہ دوں اور پھر ایسا بھی ہو
بار خاطر بھی نہ گزرے وہ مرے احباب پر

سوچتا ہوں وہ پرانی ساری قدریں اُٹھ چکیں
اِک نیا مضمون لکھوں عشق کے آداب پر

ایک مٹّی کا دیا ہے خون سے جلتا ہوا
روشنی ڈالیکا محفل میں جو عالم تاب پر

لشکرِ فرعون پیچھے سامنے دریائے نیل
وہ عصاء ہی گم ہے لیکن مارتےِ جو آب پر

انا قاسمی 
:: 61 ::

غزل 
ایسے کچھ لوگ بھی اس راہ میں اکثر ٹھہرے
جن کو قالین کہا پانؤں کے کنکر ٹھہرے

نیچے اُڑتا تو بکھر جاتا کبھی کا تھک کر
اتنی اُونچائی پہ آیا ہوں تو یہ پر ٹھرے

میں بھی کچھ عرض کروں کوئی مداوا چاہوں
گر تری آنکھ مرے دیدہء تر پر ٹھہرے

آپ تعداد پہ نازاں ہمیں ایماں پہ غرور
سو پہ ہم ایک رہے اور برابر ٹھہرے

میرے ہاتھوں میں رہے گر تو گلِ تر کہلائے
تیرے ہاتھوں میں چلی جائے تو خنجر ٹھہرے

تم سے نقّاد وہاں پر بھی گراں قدر رہے
ہم سے نہ اہل اسی طرح سخنور ٹھہرے

اب اس عالم سے نکل آنا ہی بہتر ہے اناؔ
وادیئے دل میں کوئی اور نہ چکّر ٹھہرے

اناقاسمی 
:: 62 ::
غزل 
دل دیا ہے تو اعتبار بھی کر
میرا کچھ دیر انتظار بھی کر

سرفروشی ہمارا شیوہ ہے
اہتمام فرازدار بھی کر

قحط بخشا تو بارشیں بھی دے
دل کے سحرا کو لالہ زار بھی کر

قہقہوں کو مدارِ زیست نہ مان
اپنی پلکوں کو اشکبار بھی کر

جسدِ خاکی کو منتشر فرما
کن سے ماقبل کا غبار بھی کر
اناقاسمی 
:: 63 ::
غزل 
خبر ہے دونوں کو دو نو سے دل لگاؤں میں
کسے فریب دوں کس سے فریب کھاؤں میں

نہیں ہے چھت نہ سہی آسماں تو اپنا ہے
کہو تو چاند کے پہلو میں لیٹ جاؤں میں

یہی تو شے ہے کہیں بھی کسی بھی کام میں لو
اُجالا کم ہو تو بولو کہ دل جلاؤں میں

نہیں نہیں یہ تری ضد نہیں ہے چلنے کی
ابھی ابھی تو وہ سویا ہے پھر جگاؤ ں میں

بچھڑ کے اس سے دعا کر رہا ہوں ائے مولیٰ
کبھی کسی کی محبت نہ آزماؤں میں

ہر ایِک لمحہ نیاپن ہماری فطرت میں
جو تم کہو تو پرانی غزل سناؤں میں
اناقاسمی 

:: 64 ::
غزل 
نظریں ملا کے آپ ذرا پھر وہی کہیں
میری خوشی اسی میں ہے بس آپ خوش رہیں

وہ جو بساطِ علم سے بڑھکر زباں رکھے
کیا انسے ہم کلام ہوں کیا انکے منھ لگیں

انساں کا خوف بند حویلی میں لے گیا
بچے ہمارے شہر کے بھوتوں سے کیا ڈریں

اس آئنے کی گرد پہ صاحِب نہ جائیے
اسکو کریں جو صاف تو چہرے کو کیا کریں

آنسو بھی گرگریں تو کوئی گل کھلائے جایں
غزلوں کی اس زمین پہ یوں مرثیہ لکھیں

سمتیں نہیں تو کیسا سفر کیسی زندگی
ممکن نہیں کے وقت کے دھارے میں ہم بہیں

اخبار اِک غبار ہے پیاسی زمین کا
اوراقِ مفلسی پہ لکھی یہ خبر پڑھیں

مدّت سے اس خیال سے ٹھہرے ہوئے تھے ہم
چھٹ جائے تھوڑی بھیڑ تو آگے کو ہم بڑھیں

یہ زندگی جو ایک امانت خدا کی ہے
اسکو رسولِ پاک کی سنت میں ڈھال دیں

انا قاسمی 
:: 65 ::
غزل 
لہجے میں کچھ خمار سا باقی تھا رات کا
اتنا بُرا نہ مانیئے اتنی سی بات کا

دل میں ہے تیری یاد مگر اس طرح سنو
کعبہ میں جیسے کوئی دیا سومناتھ کا

آندھی کے ساتھ تم ہو چراغوں کے ساتھ ہم
دھک دھک کرے ہے آج کلیجا بھی رات کا

کچھ لغزشوں کی چھوٹ وہ دیکر چلا گیا
لینے کو آیا تھا جو سبق فایلات کا

الفاظ تیری حمد کے سایاں کہاں سے لاؤں
اِک ذرّۂ حقیر ہوں میں کائنات کا
اناقاسمی 
:: 66 ::
غزل 
میں بھی کہ دوں جو میری بات نہ ٹالی جائے
اب یہ برّاق دشہرے میں نکالی جائے

اس کے گھر پوچھ کہیں آج کافاقہ تو نہیں
خالی کاسہ لئے جس در سے سوالی جائے

یا مری سمت کوئی تیر نہ تلوار اُٹھے
یا تو پھر یہ کہ ترا وار نہ خالی جائے

تیری آمد ہو دروبام پہ کلیاں چٹخیں
سوچ کے رنگ ڈھلیں عکس خیالی جائے

شعر کہنے کو فقط زخمِ جگر ٹھیک نہیں
میری مانو تو حسینوں کی دعا لی جائے
اناقاسمی 
:: 67 ::
غزل 
یوں اس دل ناداں سے رشتوں کا بھر ٹوٹ گیا
ہو جھوٹھی قسم ٹوٹی یا جھوٹھا سنم ٹوٹا

ساگر سے اُٹھیں آہیںآکاش پہ جا پہنچیں
بادل سا یہ غم آخر با دیدۂ نم ٹوٹا

یہ ٹوٹے کھنڈہر دیکھے تو دل نے کہا مجھ سے
مسنوعی خداؤں کے ابرو کا ہے خم ٹوٹا

باقی ہی بچا کیا تھا لکھنے کے لئے اسکو
خط پھاڑ کے بھیجا ہے، الفاظ کا غم ٹوٹا

اس شوخ کے آگے تھے سب رنگ دھنک پھیکے
وہ شاخِ بدن لچکی تو میرا قلم ٹوٹا

بیچوگے انا اپنی بیکار کی شے لیکر
کس کام میں آئیگا جمشید کا جم ٹوٹا

اناقاسمی 
:: 68 ::

غزل 
خود کی پہچان بھی گنواں بیٹھے
ہم تجھے ڈھونڈھنے کو نکلے تھے

سب کی اپنی الگ کہانی ہے
یہ کروڑوں جدا جدا چہرے

جانے کیا کھوجنے نکلتے ہیں
شام ساحل پہ سرمئی سائے

مُڑ کے دیکھا کیئے ہیں پتھر تک
ہم ترے راستے سے جب گذرے

بام پر کوئی آفتاب آئے
چاند جھانکے کسی دریچے سے

کچھ زمین نے بھی لاوا چھوڑا تھا
کچھ اِشارے تھے آسمانوں کے

دیکھ کر سب ہی چونک جاتے ہیں
اپنے گاؤں میں اجنبی چہرے

کیوں فسردہ ہو تم اناؔ صاحِب
آبگینے تو کب نہیں ٹوٹے

اناقاسمی 
:: 69 ::
غزل 
بجھ گیا جب دل تو پھر کیا چشمِ تر کا سوچنا
ان سرابوں میں تو بیجا ہے بھنور کا سوچنا

کیا کہوں تجھ سے کہ اب کس موڑ پر لائی حیات
سامنے منزل نہیں ہے اور سفر کا سوچنا

کچھ تذبذب کے اندھیرے کچھ تکلّف کے حجاب
مجھکو اندھا کر گیا ہے اپنے گھر کا سوچنا

مجھ نہتّے کو الم بخشہ گیا ہے دوستو
دشمنوں کا کام ہے اب میرے سر کا سوچنا

قینچیاں صیّاد پھیرے یا رسن سے کا لے
چھن گئی پرواز پھر کیا بال و پر کا سوچنا

یا خدا تو ہی کوئی اچھا سا رستہ سونپ دے
جانے کیسا موڑ لے اس بے ہنر کا سوچنا

مصلحت کچھ اور تھی کچھ اور تھا آدابِ حسن
سوچنا دل کا تو کچھ تھا کچھ نظر کا سوچنا

اپنی چھیلوں کی طرح سے ہم کھلے رکّھیں گے دل
ائے پرندو اگلے جاڑے پھر اِدھر کا سوچنا

سارے شاعر ہنس پڑیں گے تیرے اس پیوند پر
اس صدی میں تو انا ،اور بخیہ گر کا سوچنا
اناقاسمی 
:: 7:
غزل 
زندگی میں سراب رہنے دے
نوکِ مزگاں پہ خواب رہنے دے

کچھ تو تسکیں ملے سوالوں کو
صرف سُن لے جواب رہنے دے

بات کہنے دے کھل کے محفل میں
بس غزل کا حجاب رہنے دے
گھاو ناسور بن نہ جائیں کہیں
رخ پہ قاتل نقاب رہنے دے

مجھ کو پڑھ لے سبھی حوالوں سے
ایک دل کی کتاب رہنے دے

چند لمحوں کا قرض لیتا جا
عمر بھر کا حساب رہنے دے

خاک کو خاک کر مرے مولیٰ
یہ عذاب و ثواب رہنے دے

اناقاسمی 
:: 71 ::
غزل 
یہ اپنا ملن جیسے ایک شام کا منظر ہے
میں ڈوبتا سورج ہوں تو بہتا سمندر ہے

سونے کا صنم تھا وہ، سب نے اسے پوجا ہے
اس نے جسے چاہا ہے وہ ریت کا پیکر ہے

جو دور سے چمکے ہیں وہ ریت کے ذرّے ہیں
جو اصل میں موتی ہے وہ سیپ کے اندر ہے

دل اور بھی لیتا چل پہلو میں جو ممکن ہو
اس شوخ کے رستے میں ایک اور ستمگر ہے

دو دوست میسر ہیں اس پیار کے رستہ میں
ایک میل کا پتھر ہے، ایک راہ کا پتھر ہے

سب بھول گیا آخر پیراک ہنر اپنے
اب جھیل سی آنکھوں میں مرنا ہی مقدّر ہے

اب کون اُٹھائیگا اس بوجھ کو کشتی پر
کشتی کے مسافر کی آنکھوں میں سمندر ہے

اناقاسمی 
:: 72 ::
غزل 
دل کی ہر دھڑکن ہے بتّس میل میں
ہم ضلعے میں اور وہ تحصیل میں

اس کی آرائش کی قیمت کیسے دوں
دل کو تولا ناک کی اک کیل میں

کچھ رہین مے نہیں مستِ خرام
سب نشہ ہے سینڈل کی ہیل میں

یک بیک لہروں میں دم س آ گئی
لڑکیایوں نے پانو ڈالے جھیل میں

عمر اداکاری میں ساری کٹ گئی
اِک ذرا سے جھوٹ کی تاویل میں

آپ کہکر دیکھئیے گا تو حضور
سر ہے حاضر حکم کی تعمیل میں

سیکڑوں غزلیں مکمل ہو گئیں
اِک ادھورے شعر کی تکمیل میں
اناقاسمی