मौलाना हारून 'अना' क़ासमी
संक्षिप्त परिचय
नाम ः मौलाना हारून 'अना' क़ासमी
जन्म : 28 फरवरी 1966
जन्म स्थान : छतरपुर (म.प्र.)
पिता का नाम : हाजी मुहम्मद जमील निज़ामी
माता का नाम : मरियम खातून
शिक्षा : फाज़िल (दारूल-उलूम देवबन्द)
लेखन विधाएं : ग़ज़ल एवं नज़्म
उपलब्धियां : ग़ज़ल संग्रह 'हवाओं के साज़ पर प्रकाशित
देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में रचनाएं
प्रकाशित ।
विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
सम्पर्क : हेल्प लाइन कम्प्यूटर एसेसिरीज,
आकाशवाणी तिराहा, छतरपुर (म.प्र.) पिन-471001
मोबाइल नम्बर : 9826506125
मौलाना हारून अना क़ासमी ऐसे नौजवान ग़ज़ल के शायर हैं जिनके फिक्रोफ़न में इनकी सच्ची रियाज़त वसीअ मुतालआ शायराना सदाकत है ।
इनके अच्छे शेरों में ग़ज़ल की सदियों कबी परम्पराएं अपने ज़माने से बड़े प्यार
से गले मिल रही हैं । इन रिवायतों में नया लबो-लहज़ा इनकी अपनी पहचान बनाने में पूरी तरह कामयाब हो रहा है । इनके कुछ अच्छे शेर सुब्ह की धूप में
मुस्कुराते फूलों की तरह उजले उजले हैं ।
मुझे यकीन है कि हमारे हिन्दी के नौजवान दोस्त भी इस मजमूए को ज़रूर पसन्द करेंगे ।
-डा. बशीर बद्र
....................................................................................................................................................................
1 ग़ज़ल
कभी हाँ कुछ, मेरे भी शेर पैकर1 में रहते हैं
वही जो रंग, तितली के सुनहरे पर में रहते हैं|
निकल पड़ते हैं जब बाहर, तो कितना ख़ौफ़ लगता है,
वही कीड़े, जो अक्सर आदमी के सर में रहते हैं|
यही तो एक दुनिया है, ख़्यालों की या ख़्वाबों की,
हैं जितने भी ग़ज़ल वाले, इसी चक्कर में रहते हैं|
जिधर देखो वहीं नफ़रत के आसेबां2 का साया है,
मुहब्बत के फ़रिश्ते अब कहाँ किस घर में रहते हैं|
वो जिस दम भर के उसने आह, मुझको थामना चाहा,
यक़ीं उस दम हुआ, के दिल भी कुछ पत्थर में रहते हैं|
1 साचाँ 2 भूत
2 ग़ज़ल
माने जो कोई बात, तो इक बात बहुत है,
सदियों के लिए पल की मुलाक़ात बहुत है|
दिन भीड़ के पर्दे में छुपा लेगा हर इक बात,
ऐसे में न जाओ, कि अभी रात बहुत है|
महिने में किसी रोज, कहीं चाय के दो कप,
इतना है अगर साथ, तो फिर साथ बहुत है|
रसमन ही सही, तुमने चलो ख़ैरियत पूछी,
इस दौर में अब इतनी मदारात1 बहुत है|
दुनिया के मुक़द्दर की लक़ीरों को पढ़ें हम,
कहते है कि मज़दूर का बस हाथ बहुत है|
फिर तुमको पुकारूंगा कभी कोहे 'अना'2 से,
अय दोस्त अभी गर्मी-ए- हालात बहुत है|
1.हमदर्दी 2. स्वाभिमान
3 ग़ज़ल
बहुत वीरान लगता है, तिरी चिलमन का सन्नाटा,
नया हंगामा माँगे है, ये शहरे-फ़न का सन्नाटा|
कोई पूछे तो इस सूखे हुए तुलसी के पौधे से,
कि उस पर किस तरह बीता खुले आँगन का सन्नाटा|
तिरी महफ़िल की रूदादें बहुत सी सुन रखीं हैं पर,
तिरी आँखों में देखा है, अधूरेपन का सन्नाटा|
सयानी मुफ़लिसी फुटपाथ पर बेख़ौफ़ बिखरी है,
कि दस तालों में रहता है बिचारे धन का सन्नाटा|
ख़ुदाया इस ज़मीं पर तो तिरे बंदांे का क़ब्ज़ा है,
तू इन तारों से पुर कर दे मिरे दामन का सन्नाटा |
मिरी उससे कई दिन से लडा़ई भी नहीं फिर भी,
अ़जब ख़श्बू बिखेरे है, ये अपनेपन का सन्नाटा |
तुम्हें ये नींद कुछ यूँ ही नहीं आती 'अना ' साहिब,
दिलों को लोरियाँ देता है हर धड़कन का सन्नाटा |
4 ग़ज़ल
ये फ़ासले भी, सात समन्दर से कम नहीं,
उसका ख़ुदा नहीं है, हमारा सनम नहीं |
कलियाँ थिरक रहीं हैं, हवाओं के साज़ पर,
अफ़सोस मेरे हाथ में काग़ज़ क़लम नहीं |
पी कर तो देख इसमें ही कुल कायनात है,
जामे-सिफ़ाल1 गरचे मिरा जामे-जम2 नहीं |
तुमको अगर नहीं है शऊरे-वफ़ा तो क्या,
हम भी कोई मुसाफ़िरे-दश्ते-अलम3 नहीं |
टूटे तो ये सुकूत4 का अ़ालम किसी तरह,
गर हाँ नहीं, तो कह दो ख़ुदा की क़सम,नहीं |
इक तू, कि लाज़वाल5 तिरी ज़ाते-बेमिसाल,
इक मैं के जिसका कोई वजूदो-अ़दम6 नहीं|
1. मिट्टी का प्याला 2. जमशेद बादशाह का,
वो प्याला जिसमें वो सारा संसार देखता था |
3. मुसीबतों के जंगल का राही 4. ख़ामोशी
5. अमिट 6. अस्तित्व एवं नश्वरता
5 ग़ज़ल
कभी वो शोख़ मेरे दिल की अंजुमन तक आये
मेरे ख़्याल से गुज़रे मेरे सुख़न1 तक आये
जो आफ़ताब थे ऐसा हुआ तेरे आगे
तमाम नूर समेटा तो इक किरन तक आये
कहे हैं लोग कि मेरी ग़ज़ल के पैकर2 से
कभी कभार तेरी ख़ुशबू-ए-बदन तक आये
जो तू नहीं तो बता क्या हुआ है रात गये
मेरी रगों में तेरे लम्स3 की चुभन तक आये
अब अश्क पोंछ ले जाकर कहो ये नरगिस4 को
अगर तलाशे-नज़र है मेरे चमन तक आये
तमाम रिश्ते भुलाकर मैं काट लंूगा इन्हें
अगर ये हाथ कभी मादरे-वतन तक आये
जो इश्क़ रूठ के बैठे तो इस तरह हो 'अना'
कि हुस्न आये मनाने तो सौ जतन तक आये
1 कवित्व 2 सांचा 3 स्पर्श 4 घने जगंल में खिलने वाला फूल
6 ग़ज़ल
ख़बर है दोनों को दोनों से दिल लगाऊँ मैं
किसे फ़रेब दूँ किस से फ़रेब खाऊँ मैं
नहीं है छत न सही आसमाँ तो अपना है
कहो तो चाँद के पहलू में लेट जाऊँ मैं
यही वो शय है कहीं भी किसी भी काम में लो
उजाला कम हो तो बोलो कि दिल जलाऊॅं मैं
नहीं नहीं ये तिरी ज़िद नहीं है चलने की
अभी अभी तो वो सोया है फिर जगाऊँ मैं
बिछड़ के उससे दुआ कर रहा हूँ अय मौला
कभी किसी की मुहब्बत न आज़माऊँ मैं
हर एक लम्हा नयापन हमारी फ़ितरत है
जो तुम कहो तो पुरानी ग़ज़ल सुनाऊँ मैं
7 ग़ज़ल
यूँ इस दिले नादाँ से रिश्तों का भरम टूटा
हो झूठी क़सम टूटी या झूठा सनम टूटा
सागर से उठीं आहें, आकाश पे जा पहुँचीं
बादल सा ये ग़म आख़िर बा दीदा-ए-नम टूटा
ये टूटे खंडहर देखे तो दिल ने कहा मुझसे
मसनूई1 ख़ुदाओं के अबरू का है ख़म टूटा
बाक़ी ही बचा क्या था लिखने के लिए उसको
ख़त फाड़ के भेजा है, अलफ़ाज़ का ग़म टूटा
उस शोख़ के आगे थे सब रंगे धनक फीके
वो शाख़े बदन लचकी तो मेरा क़लम टूटा
बेचोगे 'अना' अपनी बेकार की शय2लेकर
किस काम में आयेगा जमशेद3 का जम4टूटा
1 झूठे 2 चीज़ 3 एक बादशाह 4 उसका मशहूर प्याला
8 ग़ज़ल
ये अपना मिलन जैसे इक शाम का मंज़र है
मैं डूबता सूरज हूं तू बहता समन्दर है
सोने का सनम था वो, सबने उसे पूजा है
उसने जिसे चाहा है वो रेत का पैकर है
जो दूर से चमके हैं वो रेत के ज़र्रे हैं
जो अस्ल में मोती है वो सीप के अन्दर है
दिल और भी लेता चल पहलू में जो मुमकिन हो
उस शोख के रस्ते में एक और सितमगर है
दो दोस्त मयस्सर हैं इस प्यार के रस्ते में
इक मील का पत्थर है, इक राह का पत्थर है
सब भूल गया आख़िर पैराक हुनर अपने
अब झील सी अंाखों में मरना ही मुक़द्दर है
अब कौन उठाएगा इस बोझ को किश्ती पर
किश्ती के मुसाफ़िर की अंाखों में समन्दर है
9 ग़ज़ल
दिल की हर धड़कन है बत्तिस मील में
हम ज़िले में और वो तहसील में
उसकी आराइश1 की क़ीमत कैसे दूँ
दिल को तोला नाक की इक कील में
कुछ रहीने मय2 नहीं मस्ते ख़राम
सब नशा है सैण्डिल की हील में
यक-ब-यक लहरों में दम सी आ गई
लड़कियों ने पाँव डाले झील में
उम्र अदाकारी में सारी कट गई
इक ज़रा से झूठ की तावील3 में
आप कहकर देखियेगा तो हुज़ूर
सर है ह़ाज़िर हुक्म की तामील में
सैकड़ों ग़ज़लें मुकम्मल हो गईं
इक अधूरे शेर की तकमील4 में
1 श्रंगार 2 शराब की अहसानमंद 3 बात घुमाना 4 पूरा करने की कोशिश
10. ग़ज़ल
खैंची लबों ने आह कि सीने पे आया हाथ
बस पर सवार दूर से उसने हिलाया हाथ
महफ़िल में यूँ भी बारहा उसने मिलाया हाथ
लहजा था ना-शनास1 मगर मुस्कुराया हाथ
फूलों में उसकी साँस की आहट सुनाई दी
बादे सबा2 ने चुपके से आकर दबाया हाथ
यूँ ज़िन्दगी से मेरे मरासिम3 हैं आज कल
हाथों में जैसे थाम ले कोई पराया हाथ
मैं था ख़मोश जब तो ज़बाँ सबके पास थी
अब सब हैं लाजवाब तो मैंने उठाया हाथ
1 अपरिचित 2 सुबह की खुश्बूदार हवा 3 तअल्लुक़ात
No comments:
Post a Comment