डा. लखन लाल खरे
बुन्देलखण्ड का अज्ञात सूफी कवि: हाजी वली शाह
बुन्देलखण्ड के तमाम अंचल अब भी ऐसे हैं जहाँ अनेक स्वनामधन्य कवियों की प्राचीन पाण्डुलिपियाँ यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। इतना ही नहीं, अनेक पोथियाँ ऐसी हैं जो बस्तों में बन्द दीमकों का आहार बन रहीं हैं। वर्तमान उच्च प्रौद्योगिकी के समय में, जब साहित्य से आज के युवा की दूरी बढ़ती जा रही है, प्राचीन ग्रंथों के लक्षण का विषय चिन्तनीय है। ऐसा ही कुछ मध्यकाल के सूफी कवि हाजी वली शाह के साथ है।
मध्यप्रदेष के षिवपुरी जिले की कोलारस तहसील में ‘रन्नौद’ नामक कसबा स्थित है। यह अत्यन्त प्राचीन स्थल है और किसी समय बहुत बड़ा नगर रहा है। इसका प्राचीन नाम अरणिपद्र है जो परिवर्तित होत-होते रन्नौद हो गया। मध्ययुग में रन्नौद शैवधर्म का एक शक्ति केन्द्र था। शैवों का बनवाया हुआ एक मठ अब भी अच्छी हालत में यहाँ विद्यमान है जो ‘खोखई मठ’ के नाम से जाना जाता है। मोहम्मद गौरी,, अलाउद्दीन खिलजी,, बाबर व औरंगजेब आदि जब आगरा और दिल्ली से मालवा, गुजरात तथा दक्षिणी प्रदेषों में आते-जाते थे, तब उनका इस नगर में पड़ाव होता था। रन्नौद में पहले अनेक मसजिदें रही होंगी परन्तु आज उनके भग्नावषेष ही हैं। इसी नगर में एक सूफी संत शेख हसन साहब का निवास था।
जनश्रुति है कि शेख हसन साहब जन्म से ही चमत्कारी थे। इनकी कीर्ति चंदेरी के प्रसिद्ध संत हाजी वली शाह तक पहुँची और ये हसन साहब से मिलने रन्नौद आ गये। घर पर पता चला कि हसन साहब खेलने गये हैं तो हाजी वली शाह ने कहा कि शेख हसन जब घर लौटें तो उनसे कहना कि उन्होंने खेलने के लिए जन्म नहीं लिया है। हसन साहब जब खेलकर लौटे तो माँ से सारा वृतान्त जाना। वृतान्त जानते ही उन्होंने अपने घर के आँगन की दीवार पर बैठकर उसे चलने के लिए कहा। वह चल पड़ी और शेख हसन साहब को लेकर चंदेरी के पास ‘ओर’ नदी के किनारे तक गयी। हाजी वली शाह जब नदी के तट पर पहुँचे तो उन्होंने दीवार पर एक बालक को बैठे देखा। कौतूहल के कारण वली साहब ने उस बालक से बातें की और इतने प्रभावित हुए कि उसे अपना गुरू बनाने की मंषा जाहिर कर दी। कम उम्र होने के कारण हसन ने वली साहब का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया, किन्तु वली साहब को यषस्वी होने का वरदान अवष्य दिया। वली साहब रन्नौद आ गये और यहीं बस गये।
आज भी रन्नौद में शेख हसन साहब की दालान, कोठरी, कुआँ और वह स्थल, जहाँ वे बैठकर नमाज पढ़ते थे; बना हुआ है। यहीं पर शेख हसन साहब की दरगाह है और इस दरगाह के पास हाजी वली शाह की दरगाह है। दोनों दरगाहों पर हजारों की संख्या में हिन्दू-मुसलमान आज भी जाते हैं।
हाजी वली शाह का जीवन परिचय अज्ञात है। तमाम प्रयास करने पर भी मुझे सफलता प्राप्त नहीं हुई। इनका लिखा हुआ एक ही ग्रंथ है- ‘प्रेमनामा’, परन्तु इस ग्रंथ में भी परिचय नहीं दिया गया है। ग्रंथ की प्रतिलिपि किन्हीं जनाब न्यामत खाँ ने सम्वत् 1931 (सन् 1874) में की थी। इस प्रतिलिपि की प्रति अधिक पुरानी नहीं है। रन्नौद निवासी सेवानिवृत्त षिक्षक ज़नाब तब्बार अहमद, जिनके सहयोग से मुझे उक्त प्रति प्राप्त हुई, हाजी वली शाह और उनके ‘प्रेमनामा’ का अनुमानित समय चार-साढ़े चार सौ वर्ष बतलाते हैं।
स्व. श्री गौरीषंकर द्विवेदी ‘षंकर’ ने अपने ग्रंथ ‘बुन्देल वैभव’ में जिन ‘हाजी’ का कवि के रूप में उल्लेख किया है, वे यही हाजी वली शाह हैं, क्योंकि द्विवेदी जी ने हाजी कवि की कविता के जो कतिपय उदाहरण दिये हैं वे हाजी वली शाहकृत ‘प्रेमनामा’ में हैं। द्विवेदीजी लिखते हैं- ‘‘हाजी कवि बुन्देखण्डी का जन्म और कविताकाल अनुमानतः क्रमषः विक्रम संवत् 1720 (सन् 1663) और संवत् 1760 (सन् 1703) माना जाता है। आप कहां के निवासी थे, कौन थे, इत्यादि बातें अधिक अनुसंधान करने पर भी नहीं मिल सकीं, किन्तु आपकी रचनाओं को देखने से तथा आपकी रचनाओं का बुन्देलखण्ड में अधिक प्रचार होने के कारण यह निष्चय है कि आप बुन्देलखण्ड ही के निवासी थे। आपकी स्फुट रचनाएँ भी यत्र-तत्र मैंने सुनी हैं। आपने (1) नायिका भेद पर अच्छा ग्रंथ लिखा है, कविता साधारण है।’’
मैंने इनके अन्य ग्रंथों की खोज की ; परन्तु मुझे ‘प्रेमनामा’ के अतिरिक्त और कोई दूसरा ग्रंथ नहीं मिला। द्विवेदी जी ने हाजी कवि के जो उदाहरण दिये हैं, वे सब ‘प्रेमनामा’ के हैं। नायिका भेद पर इन्होंने कौन सा ग्रंथ लिखा है, द्विवेदीजी ने न तो उसका शाीर्षक दिया है और न ही उक्त ग्रंथ में से कोई उदाहरण दिया है। एक और विसंगति द्विवेदीजी के शोध में परिलक्षित होती है। एक ओर तो जीवन परिचय के नाम पर वे लिखते हैं- अधिक अनुसंधान करने पर भी नहीं मिली ; दूसरी ओर जन्म और रचना काल के अनुमानित समय का उल्लेख करते हैं। इस अनुमान का आधार क्या है, यह उन्होंने स्पष्ट नहीं किया।
काव्य वैभव एवं प्रदेय
‘प्रेमनामा’ में प्रयुक्त ठेठ बुन्देली के शब्द वली शाह को बुन्देलखण्ड का कवि सिद्ध करते हैं- यह निर्विवाद है। ‘प्रेमनामा’ का प्रारम्भ जिस रीति से हुआ है, उससे पता चलता है कि इस ग्रंथ में सूफी सिद्धातों का प्रतिपादन किया गया है-
आद अलख अलख नसिका वो है यौं कैसा ।
रूप न रेख न सर न सबद न बरन न भैसा ।।
आया माया लोव धन तो कछू न लागे ।
हँसे न रोवै न मारे न सोवै न जागे ।।
हाज़ी खूबी हुष्न की कर परदा दूूजा ा
आपही देखा आप में तब आपई सूजा ।।
अल्लाह की स्तुति के पश्चात् हाजी, हजरत मोहम्मद साहब और उनके चार यार (चारों खलीफ़ा) की प्रषंसा करते हैं। उस समय की परिपाटी के अनुसार हाजी अपने पीर हसन मोहम्मद का शुक्रिया अदा करते हैंः-
हसन मोहम्मद बूंसईद सा पीर हमारा ।
धनपत गुनपत प्रेमपत दोऊ जग उजयारा ।।
एक स्थल पर हाजी ने जो संकेत दिया है, उससे यह तो निष्चित है कि ये चन्देरी के निवासी थे, जो बुन्देलखण्डान्तर्गत है। भले ही उन दिनों राजनीतिक दृष्टि से वह मालवा सूबे के अन्तर्गत हो-
हाजी सूबा मालवा सरकार चन्देरी ।
दिना चार रन्नौद में भई बैठक मेरी ।।
ग्रंथ पंथों में विभक्त है। ये पंथ हैं- पंथ जोगन का, पंथ सन्यासी का, पंथ पांचों दरसन का, पंथ विरहामन (ब्राह्मण) का, पंथ सूफी का, पंथ वैरागी का, पंथ बनिया का, पंथ किसान का, पंथ माली का, पंथ बरई का, पंथ कल्हार का, पंथ कलावत का, पंथ भट का, पंथ लोहार का, पंथ बढ़ई का, पंथ नाऊ का, पंथ कुम्हार का, पंथ धोबी का, पंथ चमार का, पंथ तुर्क का, पंथ सौदागर का और पंथ मोमिन का। इन पंथों के पथिकों के माध्यम से कवि ने प्रेम के महत्व को प्रतिपादित किया है। ‘पंथ नाऊ का’ में नाई के कार्मिक उपकरणों को प्रतीक बनाकर कवि कहता है-
प्रेम छुरा बनाय कें पथरी पर फेरा ।
हाजी कोरा मूंड़कर करन निहोरा ।।
जोग कतरनी जुगत की सिर सूधे हाथ चलाय ।
कागहीं गियान विचार के और के सुर साय ।।
हाजी ने प्रेम-निरूपण बड़ी विलक्षण रीति से किया है। लौकिक प्रेम-व्यंजनों में दो विपरीत लिंगी होने की अनिवार्यता है। हाजी ने पंथ में दर्षित जातियों के लिए प्रिय-प्रिया, नाई-नाइन, धोबी-धोबिन आदि को प्रेम-पंथ पर चलने के लिए सजग किया है। यही लौकिक प्रेम अलौकिक प्रेम में परिवर्तित होगा। शर्त यह है कि भावना पावन हो:
गंगाजी, सोंरों, हरिद्वार, जगन्नाथ दोऊ हैली ।
सपरत खोरत नित फिरीं पर मैली की मैली ।।
और जब कवि प्रेम-केवल प्रेम का संदेष दे रहा है तो इसमें हिन्दू-मुसलमान जैसे विभेद रहते ही नहीं । ग्रंथ का समापन करता हुआ कवि बड़ी मार्मिक उक्ति कथन करता है:
दाहिने हाथ कुरान धर बाँएं हाथ पुरान ।
बीच-बीच बनाय के हाजी बना निदान ।।
-स्पष्ट है कि कवि का व्यापक दृष्टिकोण है और वह मानवता की स्थापना के लिए सचेष्ट दिखाई देता है।
हाजी वली शाह के अन्य ग्रंथ यद्यपि उपलब्ध नहीं है, परन्तु प्रेमनामा में सूफी दर्षन को सामाजिक बनाने का स्तुत्य प्रयास किया गया है और सम्भवतः यह अपने आप में अनोखा तथा मौलिक कवि कर्म है। कवि ने ग्रंथ में न तो किसी की बुराई की है और न ही किसी को श्रेष्ठ बताया है। तत्समय में प्रचलित जातियों के कर्मो को आधार बनाकर प्रेम और भाईचारे का संदेष देना कवि की नूतन दृष्टि का परिचायक है।
हाजी वली शाह के कृतित्व पर साहित्य के अध्येताओं का ध्यान आकृष्ट होना ही चाहिए।
-विभागाध्यक्ष हिन्दी
शासकीय एस.एम.एस. महाविद्यालय
कोलारस जिला षिवपुरी
हज़रत मौलाना अब्दुल करीम नक़्शबन्दी मुजद्दी अलैह रहमा की हाथ से लिखी हुई पूरी किताब मेरे पास मौजूद है
ReplyDeleteडॉ. मुहम्मद हारून नक़्शबन्दी मुजद्दी जबलपुर