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Saturday 13 September 2014
Tuesday 18 February 2014
Monday 19 August 2013
RAJESH BAHUGUNA I A S KI KAVITAYEN
RAJESH BAHUGUNA
I A S
KI KAVITAYEN
कवि का संक्षिप्त परिचय
नाम- राजेश बहुगुणा
पिता का नाम-स्व. श्री वंशीधर बहुगुणा
जन्म- 11 अगस्त 1961
जन्म स्थान- शिकोहाबाद (उ.प्र.)
लेखन विधाएं- कविता, लेख
संप्रति - आई. ए. एस. अधिकारी
वर्तमान में - अपर आयुक्त, वाणिज्यकर इंदौर
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कुछ प्रतिनिधि कविताएँ:-
(1)
दुनिया को नहीं चाहिए सम्य बच्चे
बच्चे हंसते हुए अच्छे लगते हैं
कि उनका हँसना
चुनौती देता है
हर एक आदमी को
या कि समूची दुनिया को
हँसता हुआ बच्चा
उछलकर चढ़ जाता है
शाम को लौटे पिता के कंधों पर
पिता के कंधे जिनको दिन भर काम था
ज़िन्दगी भर है परिवार का भार उठाने का दायित्व
पिता के कंधे
जो रोटी और छत के लिए घिसकर कमज़ोर हो गये
पिता के कंधे
जो आगे आने वाले बोझ को सोच झुकने लगे
पिता के ये कंधे
हँसते बच्चे को पा पुनः मज़बूत होते हैं
कि कमज़ोर पैरों से सामने की दूरी सिर उठाकर नापते हैं
बच्चे हंसते हुए अच्छे लगते हैं
कि कल की चिंता करते पिता को मुस्कान देते हैं
हंसता हुआ बच्चा
लगता है उन सभी पर हँसता हुआ
कि जिसके कारण उसका पिता चुप रहता है
हर सुबह और हर शाम
कि जिसके कारण रहता है बच्चा दिनभर
घर में बंद
और माँ-बाप जाते हैं नियमित बसों में बैठ घर से दूर ऑफिस
कि जिसके कारण उसकी जवान होती बहन को शाम होने से पहले
घर आना पड़ता है
कि जिसके कारण हर समय हर एक के जेहन में भय रहता है
हँसता हुआ बच्चा किसी नियमितता से मुक्त है
भविष्य की आशंका से निःशंक
अनजाने भय से निर्भीक
बच्चे जिद्दी अच्छे लगते हैं
कि मानते नहीं किसी की बात
चाहे उसे बड़ा करने वाले माता-पिता ही क्यों न हों
नहीं स्वीकार करते किसी का आदेश
अपनी सोच पर ही क़ायम रहते हैं
और शक्ति भर प्रयास करते हैं
अपने विचारों पर दृढ़ रहने की
ज़िद्दी बच्चे
पिता को सिखाते हैं
अस्वीकार करने का साहस
दुनिया को बताते हैं
कि विरोध ख़त्म नहीं हुआ
कि द्वन्द्व समाप्त नहीं है
कि दुनिया अभी ज़िन्दा है
कि आग अभी बुझी नहीं
ज़िद्दी बच्चा
कितना सुन्दर है ज़िद करते समय
बच्चा रोता हुआ अच्छा लगता है
कि प्रकट कर देता है अपना विरोध
अपनी विवशता के साथ
आकर्षित कर लेता है हर एक व्यक्ति को
अपनी तरफ़
अपने रोते हुए मुख की तरफ़
जाता है जहाँ तक बच्चे के चिल्लाने का शोर
दुनिया ही थम जाती है
देखने लगती है बच्चे की ओर
कि क्या हुआ बच्चे को क्या हुआ
कौन है बच्चे को रूलाने वाला
कारण क्या है बच्चे के रोने का
और वे सभी लोग भी
जो सड़क पर चलते समय नहीं देखते किसी ओर
हँसते नहीं रोते भी नहीं
चलते हुए बाहर या बैठे हुए भीतर
किसी धीर-गम्भीर सन्यासी की तरह
रहते हैं चुप, केवल चुप
एक दूसरे की ओर देखने लगते हैं
आँखों ही आँखों में
सवाल लिये बच्चे के रोने का
जिसका जवाब भी उनके पास तब से है
जब से बंद कर दिया है
उन्होंने स्वयं का हँसना और रोना
मुझे वह शैतान बच्चा भी अच्छा लगता है
जो उठा लेता है घर के मंदिर से
दादी के ईश्वर को
कब्जे़ में कर लेता है ईश्वर
छोटी और मज़बूत मुट्ठियों में कैद कर लेता है ईश्वर
ईश्वर से नहीं डरता वह
दादी की चेतावनी नहीं मुक्त करा पाती ईश्वर को
ईश्वर
जो सभी के दिमाग़ पर राज करता है
कितना विवश हो जाता है वह बच्चे के हाथों में
अरे ! ये बच्चा कौन है
साफ़ कपड़े पहना है
कहीं दाग़ नहीं, न ही कहीं सिलवट
साफ़ चेहरा लिए बैठा है चुप सबके बीच
हँसता नहीं, रोता भी नहीं
ऊँचे कद के सामने आने पर खड़ा हो जाता है अदब से
झुकता है, सलाम करता है
माँ के कहने पर गाना सुनाने लगता है
एक के बाद एक रिकार्ड प्लेयर की तरह
पिता के मना करने पर
छोड़ देता है अपने मन की बात
नहीं करता ज़िद
समय पर हँसता है, रोता कभी नहीं
सड़क पर चलते समय
रास्ते के पत्थर पर जूते की ठोकर नहीं मारता
नहीं फेंकता पत्थर ऊपर
वृक्ष पर बैठी चिड़ियों को नहीं विवश करता
उड़ने को मुक्ताकाश में अपने पंखों को फैलाकर
अच्छा
तो ये बच्चा सभ्य है
बड़ों जैसी समझ है इसमें
इसीलिए चुप रहता है बड़ों की तरह
विरोध नहीं करता
स्वीकार लेता है परिस्थिति
और ढल जाता है उसके अनुसार
दुनिया को नहीं चाहिये सभ्य बच्चे
सभ्य बच्चे नहीं बदल सकते दुनिया
मेरे साथियो,
चुप रहने वाले पिताओं सुनो
तुम्हें अब चुप नहीं रहना है
तुम्हारे बच्चे अब सभ्य होने लगे हैं
तुम्हारे बच्चे भी अब तुम्हारे जैसे होने लगे हैं
कार्यवाही अभी से प्रारंभ कर देनी है तुम्हें
हँसने दो बच्चों को उनकी मर्ज़ी से
ज़िद करने दो
चिल्लाने दो
मेरे बच्चों,
हँसो कि मेरे चेहरे पर मुस्कान आये
चीखो कि दुनिया रूक कर खुद से सवाल करे ।
(2)
मैं कविता क्यों करता हूँ
मैं कविता क्यों करता हूँ
कलम लेकर काग़ज़ पर अपनी बेचैनी उतारना
इतना ज़रूरी भी नहीं
जब मालूम हो कि
अब किसी को भी फुरसत नहीं किसी को सुनने की
महीने के आखि़री दिनों पत्नी
जब गिनने लग आलमारी में जतन से रखे रूपये
तो उसके लिए नितान्त अर्थहीन हो जाता है
पति की कविता को सुनना ।
अपने बच्चों को सबसे आगे रखने की चाह में
जब पिता ही नहीं माता-पिता सभी
बन चुके हों हॉकी
और चाबुक लगाकर दौड़ा रहे हों बच्चों को घुड़दौड़ की तरह
और खुद ही दीर्घा में बुक लेकर कर रहे हों हिसाब
अपने घोड़े के प्रथम आने के अवसरों का
तब मेरा कविता लिखना बेमानी हो जाता है
उन बच्चों के लिए
जिनका बचपन भी बेमानी हो गया है
मेरे बुढ़ापे व उनकी जवानी को सुखकर बनाने के प्रयास में
मैं कविता क्यों करता हूँ
जब ईटों के सांचे में घर की तलाश हो
तलाश भी ऐसी कि आदमी बेघर हो जाये
अपने-अपने घेरों में घिरे रहकर
प्रयास करते हों सभी, दूसरे को अपने घेरे में लाने का
ज़िन्दगी की सफलता यदि यही हो जाये कि
किस प्रकार सुरक्षित रहा वह अपने घेरे में और
विवश कर दिया दूसरे को या कि
एकान्त द्वीपों में रह प्रतीक्षा करें
किसी दूसरे के पुल बनाने की
ज़िन्दगी की यह संकीर्णता जब
घर के भीतर घर पैदा कर दे और
घर के भीतर अनिकेतन हम सब
क्या ज़रूरी है ऐसे समय कविता
मैं कविता क्यों करता हँू
जब ज़रूरी नहीं रह गया है संवाद
और संवादहीनता की संवेदना भी प्रभावहीन हो चुकी हो
जब कार में एयरकण्डीशनर न होने का दुःख
सामने सड़क पर जा रहे बच्चे के स्कूल न जा सकने के प्रश्न से गंभीर हो जाये
या
बर्तन धोती बित्तो के ब्लाउज़ के फटे भाग से झांकते वक्षांश को देख
उसके बच्चे की उम्र का युवा मुस्कुराये और
मुस्कुराहट बित्तो जैसों के लिए रोटी की निश्चिन्तता हो
तब क्या कविता से बेहतर नहीं है एयरकण्डीशनर
या बित्तो का फटा हुआ ब्लाउज़
फिर मैं कविता क्यों करता हूँ
क्या कविता से पैदा करने के लिए एक टकसाल
या घुड़साल में घोड़े के रूप में रहेंगी मेरी कविताएँ
और बुढ़ापे को बनायेंगी आरामदेह
बच्चों की जवानी लूटेगी सुख मेरी कविता से
या कि कविता वह संवाद है जिससे
कोशिश है बनाने की पुल
अपने मन के घेरों के बीच
या कि कविता बनेगी स्कूल न जा सकने वाले बच्चों के
प्रश्नों की पुस्तक
या कि मेरी कविता है फटे ब्लाउज़ को
क़लम से सीने का प्रयास
क्या कविता बना सकती है एक घर
या घर की तलाश में बनाता हूँ रोज़ मैं
एक कविता
शायद
शायद टकसाल के लिए नहीं
और नहीं ही है वह एक पुल भी
किसी नंगी वास्तविकता को ढंकने का प्रयास भी नहीं है ये
फिर मैं कविता क्यों करता हूँ
शायद
इसी उत्तर की तलाश में करता हूँ एक निरर्थक कविता
शायद
एक सार्थक कविता की तलाश में बनती है एक कविता
(3)
चाँद
चाँद नहीं लगता अच्छा
पूर्णमासी का
कि हारता है सूरज से और खोने लगता है अपनी ऊर्जा
चाँद अमावस का
न होने के बावजूद अच्छा है
कि हिम्मत जुटाता है
सूरज से युद्ध की
शायद गया होता है सूरज के घर कहने
कि
सभी क्षण एक से नहीं होते
सभी चाँद एक से नहीं होते
क्या ऐसा हो सकता है
पूर्णिमा होती नहीं
अमावसी चाँद चमकता रहे आकाश में हर रात
हर दिन
(4)
जब मर जाएगी धरती
सुना था बहुत पहले
सूरज से अलग हुई थी धरती, अचानक
विक्षोभ में धरती की आग
घूमती नही अपनी ही धुरी पर
और फिर सूरज से अलग दिया जीने का मन्तव्य स्वयं को
बदल गयी पृथ्वी
आग के बाद बना पानी, मिट्टी, छोटी घास से विशाल वृक्ष
और मनुष्य
धरती ने दी सबको जीवन शक्ति
दिया सबको सहारा फलने फूलने का
हवा तक को बांधे रखा अपने चारों ओर
धरती खुश थी - मिट्टी, हवा, पानी से, वृक्षों-पत्तों-फूलों से
और थी प्रसन्न
विचरण कर रहे प्राणियों के साथ
- - - - - - - - - - - - - -
खुश था, शायद दादी के मुंह से
कहानियों के साथ पिताजी की कहानी
मृत्यु हो गयी थी दादाजी की
पिताजी हो गये थे अलग उनसे, अचानक
दुखी थे पिता लेकिन अस्तित्व के संघर्ष में घूमते रही लगातार
और धीरे धीरे बन गये वे पिता
जी हां पिता । उव समय
जब देखने थे एक बालक को सपने
आकाश में उड़ते हुये ,
पिता ने रख दिये उसी समय मज़बूती से पैर ज़मीन पर फैला दी
आकाश में बाँहें
भर लिया हर एक को बाँहों में, जो कोई गिरने को था
पिता की गोद में हर कोई खुश था और निश्ंिचत
खुश थे पिता भी देखते हुये सभी को प्रसन्न
**********************************
सुना था, पढ़ा भी था किताबों में
धीरे-धीरे धरती पर बढ़ने लगा जीवन-संघर्ष
सहजीविता धीरे-धीरे परिवर्तित होने लगी स्वत्व के लिए युद्ध में
धरती को बनना पड़ा अपने ही प्राणियों के कुरूक्षेत्र का साक्षी
जारी है लगातार सतह के नीचे, सतह पर और सतह के ऊपर
एक-एक ज़र्रे के लिए
धरती से अलग धरती से दूर
यह संघर्ष ठीक उसी तरह
जिस तरह जारी है धरती की बेबस घुटन
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देखा था, सुना भी है
बाँहों की गर्मी और गोद में पिता की,
कब बढ़ते चले गये वे सब, पता ही नहीं चला पिता को
और फिर
अलग-अलग शुरू हो गया सबका जीवन-संघर्ष
पिता से दूर, पिता से अलग
अन्दर ही अन्दर चलने लगे घात-प्रतिघात परस्पर
पिता थे चुप और बेबस
धीरे धीरे पिता हो गये थे सबसे दूर
भीतर की आग होने लगी थी शांत धीर धीरे
फ़र्क नहीं पड़ता था पिता को फिर किसी बात से
हो गये थे तटस्थ और विरागी धीरे धीरे
मरने लगे थे पिता शायद काफी पहले
फिर आया वह दिन
जब
कमरे में थे पिता पलंग पर
कमरे के बाहर था सभी का शोर
कहीं हर्ष, कहीं दबा हुआ क्षोभ
अन्तर कील आग पूरी तरह शांत हो गयी थी हमेशा के लिए
पिता अंतिम रूप से जा चुके थे हमारे बीच से
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देख रहा हूँ, पढ़ भी रहा हूँ
लगातार चल रहा है संघर्ष प्राणियों में परस्पर
चल रहा है प्रयास सर्वाधिक सुखों के लिए मनुष्य का
लगातार समाप्त होते जा रहे हैं अनेक पक्षी, कीट, पशु
लगातार समाप्त होते जा रहे हैं नदी, ताल, पहाड़, जंगल
ख़त्म होती जा रही है हवा
धरती देख रही है सब चुपचाप
क्या मरने लगी है धरती धीरे धीरे
क्या धरती भी मर जायेगी एक दिन चुपचाप
बिल्कुल पिता की तरह
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पिता की मृत्यु के बाद हम सब हैं धरती पर मौजूद
पर कहॉं जायेंगे हम और आप
जब मर जायेगी धरती
बताइये
कहाँ जायेंगे आप ?
Friday 16 August 2013
Thursday 15 August 2013
kamaluddin nizami qamar chhatarpur m.p.
kamaluddin nizami qamar chhatarpur m.p.
ANA QASMI KE GHAR EID KI GOSTHI
कमालुद्दीन निजामी कमर छतरपुर म. प्र .
मौलाना हारुन अना क़ासमी के घर ईद की एक नशिश्त पर कविता पाठ करते हुए
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