सहज व एकनिष्ठ प्रेम के समर्थक मधुरोपासक भक्त कवि हरिराम व्यास
- डॉ. बहादुर सिंह परमारअपनी आन-बान और शान के लिए विख्यात बुन्देलखण्ड वसुधा में जहाँ एक ओर आल्हा, ऊदल और छत्रसाल जैसे योद्धाओं ने जन्म लिया वहीं दूसरी ओर जगनिक, विष्णुदास, गोरे लाल, ईसुरी और हरिराम व्यास जैसे महान् काव्य प्रणेताओं ने शरीर धारण कर इस माटी का नाम सार्थक किया है । मध्यकाल में जब भक्ति की धारा समूचे हिन्दी प्रान्त में प्रवाहित हो रही थी, तब बुन्देलखण्ड के भक्तिकुंड में भी अनेक सन्त डुबकी लगाकर काव्य साधना के साथ लोक आदर्श के केन्द्र बिन्दु बने हुए थे । ऐसे ही लोकादर्श व भक्ति शिरोमणि ब्यास का जन्म वेत्रवती सरिता के किनारे अवस्थित ओरछा नगरी में समोखन शुक्ल व देविकारानी के घर संवत 1567 की मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष 5 को हुआ था । इस विलक्षण बालक को परिवार से पुराण की परम्परा व माधव सम्प्रदाय की भक्ति भावना विरासत में मिली । हरिराम ने अपने पिता से भरपूर गुणों को ग्रहण कर पुराणवक्ता के रूप में क्षेत्र में इतनी प्रसिद्धि पाई कि उन्हें लोग व्यासजी कहने लगे । यहीं से हरिराम शुक्ल, हरिराम व्यास हो गए । बालक हरिराम कुशाग्र बुद्धि के थे, इनकी प्रतिभा से क्षेत्र में लोग आश्चर्यचकित रह जाते थे । जब हरिराम व्यास लगभग बीस वर्ष की अवस्था के थे तभी बुन्देला राजाओं ने गुढ़कुड़ार के स्थान पर ओरछा को राजधानी बनाने का निर्णय लिया जिससे नगर का चतुर्दिक विकास होने लगा । इधर राजधानी होने से राजदरबार मंे विद्वान आने लगे । आए दिन व्यासजी का विद्वानों से शास्त्रार्थ होने लगा जिसमें उन्हें विजयश्री सदैव मिलती रही । इसी क्रम में हरिराम व्यास ने काशी पहुंचकर अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ किया । काशी में उन्हें यह अनुभव हुआ कि शास्त्रार्थ और मात्र तर्क से जीवन सफल नहीं किया जा सकता है । जीवन मंे भक्ति के लिए प्रेम, सहजता, भाव प्रवणता तथा मन की एकाग्रता आवश्यक है । वहां से लौटकर वे ओरछा आए तथा बाद मंे वृन्दावन गए । उन्होंने तीर्थांटन किया, इस दौरान वे भक्त कवियत्री मीराबाई से भी मिले । वे जीवन में ओरछा व वृन्दावन आते-जाते रहे और उन्हेांने जीवन के अन्तिम क्षण वृन्दावन में ही बिताए ।
मधुरोपासक हरिराम व्यासजी द्वारा हिन्दी में रचित रागमाला, व्यासजू की बानी, रस-सिद्धान्त के पद, व्यासजू की बानी सिद्धान्त की, व्यासजी के रस के पद, व्यासजी के साधारण पद, व्यासजी की पदावली, रास पंचाध्यायी, व्यासजी की साखी तथा व्यास जी की चौरासी नामक दस ग्रन्थ मिलते हैं । इनके ग्रंथों में भारतीय संगीतशास्त्र, ज्ञान परम्परा, भक्ति साधना तथा जीवन दर्शन के विविध पक्ष गहनता से प्रकट हुए हैं । प्रेम और समर्पण के साथ सख्य भाव भक्ति के विवध रूप तथा अराध्य राधाकृष्ण की छवियांँ प्रमुखता से देखने को मिलती हैं । इनके काव्य में तत्कालीन समाज में व्याप्त तमाम विसंगतियों पर प्रहार भी दृष्टव्य है । वे जीवन में जितने सरल, निश्छल, और प्रेमी थे, उतने ही परम्पराभंजक भी थे । व्यासजी भक्त को भक्त मानते थे, वह चाहे किसी भी जाति या वर्ण का हो । जब वर्ण-व्यवस्था के तहत छुआछूत चरम पर थी तब व्यास जी इस भेद को नकारते हैं । इनसे जुड़ी एक कथा बुन्देलखण्ड में प्रचलित है जिसके अनुसार व्यास जी कुलीन और विद्वान भक्त की तुलना में अछूत भक्त का अधिक सम्मान करते थे । इस भावना से समाज के कुछ लोग उनसे चिढ़ते थे तथा कहा करते थे कि ये मात्र दिखावा करते हैं । इस भाव की परीक्षा लेने हेतु उन्होंने योजना बनाई कि व्यासजी को भंगिन के हाथ से जूठा प्रसाद सार्वजनिक रूप से खिलाया जाए । किसी मंदिर से साधु भोजन के उपरान्त एक भंगिन जूठी बची हुई सामग्री ला रहीं थी । समाज के उन चिढ़ने वाले लोगों ने उस भंगिन से व्यास जी को प्रसाद देने की बात कही । व्यास जी को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई और उन्होंने सहजता से उस भंगिन द्वारा जूठन में से दी गई प्रसाद की पकौड़ी को आदरपूर्वक लेकर ग्रहण किया, जिसे देखकर वे चिढ़ने वाले लोग भी दंग रह गए । ऐसे लोगों के आचरण को हरिराम व्यासजी ने उद्घाटित किया है, जो ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर दूसरे को ठगने के लिए वेद-पुराणों का सहारा लेते हैं । जिन्हें भक्ति भाव का भान नहीं होता, वे सत्य से दूर मिथ्या को अपनाने वाले होते हैं, जो नरकगामी होते हैं । व्यासजी लिखते हैं -
बाम्हन के मन भक्ति न आवै ।
भूलै आप, सबनि समुझावै ।।
औरनि ठगि-ठगि अपुन ठगावै ।
आपुन सोवै, सबनि जगावै ।।
बेद-पुरान बेंचि धन ल्यावै ।
सत्या तजि हत्याहिं मिलावै ।।
हरि-हरिदास न देख्यौ भावै ।
भूत, पितर, देवता पुजावै ।
अपुन नरक परि कुलहिं बुलावै।।
(हरिराम व्यास,सं, वासुदेव गोस्वामी पृ. 90)
व्यासजी अपने आचरण में संत सेवा तथा भक्त सेवा को सर्वाेच्च स्थान देते रहे हैं । एक दिन की बात है कि व्यासजी के यहाँ एक साधु मंडली प्रसाद पा रही थी । व्यासजी भी उसी पंक्ति मंे बैठे भोजन कर रहे थे और उनकी पत्नी गोपी जी परोस रहीं थीं । व्यासजी को दूध परोसते समय उनके पात्र में संयोगवश ऊपर की सब मलाई जा गिरी । इस पर व्यासजी ने अपनी पत्नी पर पंक्ति-भेद का दोषारोपण कर उन्हें साधु सेवा से अलग कर दिया । गोपी जी वास्तव में निर्दोष थी, फिर भी व्यास जी उनकी अनेक अनुनय-विनय पर ध्यान नहीं दे रहे थे । इस पर गोपी जी ने व्यासजी से पूंछा कि आखिर उन्हंे किस प्रकार से यह विश्वास हो सकता है कि किसी भेदभाव के कारण उन्हें ही मलाई नहीं परोसी गई थी ? इस प्रश्न के उत्तर में व्यास जी ने कुछ सोचकर गोपी जी से कहा कि यदि तुम अपने समस्त आभूषणों को बेचकर साधुओं का भंडारा करों तो मुझे प्रतीति हो जायेगी । गोपी जी ने इस शर्त को स्वीकार किया । उन्होंने अपने समस्त आभूषणों को बेंचकर साधुओं का एक वृहत भंडारा किया । व्यासजी को अपनी पत्नी के इस आदर्श कार्य से बड़ी प्रसन्नता हुई ।
उन्हें साधुओं की सेवा करने में बड़ी रुचि थी । एक बार संतों की एक मंडली व्यासजी की अतिथि हुई । जब सब प्रकार से आग्रह करने पर भी वह मंडली एक दिन और रुकने के लिए राजी नहीं हुई तो व्यास जी ने, उनके ठाकुर जी उठा लिये और उनके स्थान पर चुपचाप एक पक्षी बन्द कर दिया । साधु जब चलने लगे तो व्यासजी ने उनसे कहा कि आप लोग हमारी अनुमति के बिना जा रहे हैं । देखिये आपके ठाकुर जी आपको पुनः यहाँ लौटा लायेगे । इस कथन पर बिना ध्यान दिये साधुमंडली वहां से चली । तीन मील चल कर सरिता में साधुओं ने स्नान करने के उपरांत ज्यों ही अपने ठाकुरजी की सेवा करने के लिये संपुट खोला तो उसमें से एक पक्षी निकल कर वृन्दावन की ओर को उड़ गया । साधुओं को व्यास जी की वह याद आई जो उन्होंने चलते समय कही थी । वे पुनः वापस आये । व्यास जी प्रसन्न हुये । उनके ठाकुर देकर उन्होंने उस मंडली का पूर्ववत् आदर सत्कार करना प्रारम्भ किया । जब भक्तों के प्रति व्यासजी की आदर भावना और निष्ठा की चर्चा चारों ओर प्राप्त हुई तो उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से एक महन्त उनके पास आये और अपने को बहुत भूखा बताते हुए भोजन मांगने लगे । उस समय व्यास जी के आराध्य देव युगल किशोरजी को भोग नहीं लगा था । अतः व्यासजी ने उन महन्तजी को थोड़ा देर ठहरने के लिए कहा इस पर महन्त जी इन्हें गालियां देने लगे । व्यासजी ने विनम्र भाव से यह दोहा पढ़ा -
’व्यास’ बड़ाई और की, मेरे मन धिक्कार ।
संतन की गारी भली, यह मेरी श्रृंगार ।।
इसे सुनकर महन्त जी को चुप हो जाना पड़ा । थोड़ी ही देर में ठाकुरजी को भोग लग जाने पर एक पत्तल परोस कर व्यासजी उन महन्त जी के लिए ले आये । उसमें से थोड़ा सा ही खा कर महन्त जी ने पेट के दर्द का बहाना करते हुए वह प्रसाद जूठा कर वहीं छोड़ दिया । व्यासजी ने उस उच्छिष्ट प्रसाद को मस्तक से लगाया और खाने लगे । सन्त-सेवा और प्रसाद के प्रति इतनी श्रद्धा देखकर परीक्षक महन्त गद्गद हो गये और उनके नेत्रों में आंसू भर आये ।
व्यासजी पूर्ण समर्पण भाव से राधा कृष्ण की भक्ति करते थे । इनके सम्बन्ध में लोक में अनेक किंवदंतियों लोकमुख में जीवित हैं । जिनका उल्लेख वासुदेव गोस्वामी जी ने अपनी पुस्तक हरिराम व्यास में किया है जिनमें व्यासजी के जीवन की सबसे प्रसिद्ध घटना है उनके जनेऊ तोड़कर नूपुर बांधने की । लगभग सभी भक्त चरित्रों में जहां व्यासजी का उल्लेख किया गया है, इस घटना का वर्णन हुआ है । एक समय रास में नृत्य करती हुई राधिका जी के चरण के नूपुर की डोरी टूट गई । रास लीला में विक्षेप पड़ने लगा । उपस्थित रसिक जन एक दूसरे का मंँुह ताकने लगे । परन्तु उपाय सूझा तो व्यासजी को । उन्होंने चट से अपना यज्ञोपवीत तोड़कर नूपुर बांँध दिया । यह देखकर उपस्थित लोगों ने व्यासजी से ताना देते हुए कहा कि ब्राह्मण होकर तुमने जनेऊ ही तोड़ा डाला? व्यासजी ने उन्हें यह उत्तर दिया कि मेरे यज्ञोपवीत का लक्ष्य ही श्री राधिका के चरणों की प्राप्ति करना ही तो था ।
वृन्दावन में व्यासजी ने श्री युगुलकिशोर जी का एक सुन्दर और विशाल मन्दिर निर्माण कराया था । इस मन्दिर का भग्नावशेष अब भी व्यास घेरे में वर्तमान हैं । श्री व्यास जी द्वारा पूजित श्री युगुलकिशोर जी आज कल पन्ना में विराजमान हैं, जहाँ उनका मन्दिर सम्वत 1833 वि. के पूर्व महाराजा हिन्दूपति के समय में बना था । श्री युगलकिशोरजी की सेवा के प्रसंग में भी व्यासजी से सम्बन्धित चमत्कारपूर्ण दो घटनाएँ मुख्यरूप से प्रचलित हैं, जिनका भक्त साहित्य में सदा से उल्लेख होता आया है । महाराजा मधुकरशाह ने स्वर्ण की एक वंशी श्री ठाकुरजी के धारण करने के लिये भेंट की । वह कुछ मोटी थी । इससे धारण करते समय उससे श्री विग्रह की उँगली कुछ ्िरछल गई और रक्त निकल आया । यह देख व्यासजी ने जल्दी से वंशी खींचकर फेंकी और उँगली में पनकपड़ा(पानी में भिंगोकर वस्त्र) लपेट दिया । व्यासजी के दुःख की सीमा न थी । उन्होंने भोजन भी त्याग दिया । पश्चाताप में ही सारा दिन बीता; किन्तु जब सायंकाल उन्होंने पट खोले, तो श्री युगलकिशोर जी को वंशीधारण किये हुए पाया । व्यास जी प्रसन्न हो गये । तब से ठाकुरजी की सेवा में उनकी उस अँगुली से गीली पट्टी बाँधने की प्रथा आज तक यथावत् चली आ रही है ।
इस प्रकार की दूसरी घटना कही जाती है कि किसी ने श्री ठाकुर जी की सेवा के लिए एक जरकसी पगड़ी चढ़ाई । व्यासजी ने उस पगड़ी को धारण करने का असफल प्रयत्न किया, क्योंकि उसके बांधने मंे वह पगड़ी ठाकुरजी के मस्तक से बार-बार खिसक पड़ती है । अन्त में परेशान होकर व्यासजी ने यह कहकर उसे वहीं छोड़ दी कि मेरी बंधी पसन्द नहीं आती, तो स्वयं बाध लो । थोड़ी देर के उपरान्त जब वे मन्दिर के भीतर गये तब उन्होंने अपने इष्टदेव को पगड़ी बांधे हुए पाया ।
इसी तरह हरिराम व्यास जी के संबंध में ओरछा के आसपास यह दंतकथा और प्रचलित है कि शरद-ऋतु की ज्योत्सना से युक्त एक रात वेतबा नदी के किनारे अपने आराध्य श्री ठाकुरजी की मूर्ति के समक्ष अपने प्रिय शिष्य महाराज मधुकर शाह के साथ रास रचाई । इस रास में प्रेमभाव से बेसुध होकर व्यास जी नृत्य करते रहे और उनके साथ महाराज मधुकर शाह ने भी नूपुर बंाधकर नृत्य किया । यह प्रेमभाव से युक्त नृत्य देखकर देवगण प्रसन्न हो गये थे और आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी थी । कहा जाता है कि आकाश से धरती पर गिरा प्रत्येक पुष्प सोने का हो गया था । इसीलिये इस बेतबा घाट का नाम ‘कंचनाघाट‘ पडा है ।
व्यासजी राधाकृष्ण के अनन्य भक्त थे । कहते हैं कि उन्होंने राधाकृष्ण के अतिरिक्त किसी की पूजा नहीं की । यहां तक कि अपनी पुत्री के विवाह के अवसर पर भी गणेश पूजन करने से इंकार कर दिया था । जिसके कारण परिजनों व समाज का विरोध उन्हें झेलना पड़ा था । व्यास जी ने अपने जीवन में एकनिष्ठ भक्तिभाव के मर्म को पहचान कर उपासना की विविध जड़ीभूत सच्चाइयों को अस्वीकार कर प्रेम के मूल्यों को नये ढ़ंग से परिभाषित किया ।
- एम.आई.जी. -7, न्यू हाउसिंग बोर्ड कालोनी
छतरपुर (म.प्र.)
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