बुन्देली काव्य में वृक्ष
- डॉ. बहादुर सिंह परमार
मानव का प्रकृति के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है । प्रकृति के साथ समन्वय से ही मानव कल्याण होता रहा है । जैसे ही मानव ने प्रकृति के साथ अत्याचार करना प्रारम्भ किया वैसे ही प्रकृति ने भी मानव को दुखद परिस्थितियों में डालना शुरू कर दिया । प्रकृति के तत्वों में वृक्ष, प्राणी, धरा, पर्वत तथा सागर आदि सभी आते है । वृक्षें का मानव जीवन मंे विशिष्ट महत्व है । वे प्राणवायु तो देते ही हैं साथ में फलों से मानव को खाद्य पदार्थ, औषधियाँ तथा अन्य सुविधायें प्रदत्त करते है । बुन्देलखण्ड क्षेत्र आरंभिक अवस्था से ही वन आच्छादित प्रांत रहा है । वृक्षों के साथ लोक जीवन का गहरा तदात्म्य रहा है । इसी कारण यहां के लोक कवि भी वृक्षों की उपादेयता को अपनी काव्य-सर्जना में अनदेखा नहीं कर सके बल्कि कहा जाये तो वृक्षों के संरक्षण व संवर्धन हेतु लोक मानस को जागृत करने का कार्य भी इन बुन्देली कवियों ने किया है । ईसुरी से लेकर आधुनिक पीढ़ी तक के कवि अपनी रचनाओं में प्रकृति व वृक्षों के महत्व को रेखांकित करते हैं ।लोक कवि जनजीवन का सजग चितेरा होता है और फिर ईसुरी तो लोक चेतना के महत्वपूर्ण कवि हैं । उन्होंने जहांँ एक ओर लोकजीवन में व्याप्त श्रृंगार, प्रेम और करूणा के चित्रों को अपनी फागों में उकेरा वहीं दूसरी ओर लोक जीवन से जुड़े अनेक महत्वपूर्ण पहलुओं को उठाया । तत्कालीन समाज में भी वृक्षों पर लोग कुल्हाड़ियों से प्रहार करने लगते है जिससे मानव के जीवन आधार वृक्षों की अंधाधुंध कटाई प्रारम्भ हो जाती है । लोक कवि लोक चेतना का दीपक भी होता है । ईसुरी का हृदय वृक्षों को काटता देख आक्रोश से भर उठता है और वे महुआ के पेड़ों को काटने वालों को फटकारते हुए यह चौकड़ियाँ लिखते है:-
इनपै लगे कुलरियाँ घालन, मउआ मानस पालन ।
इनें काटबो नईं चइयत ते, काट देत जे कालन ।
ऐसे रूख भूँख के लाने, लगवा दये नंद लालन ।
जो कर देत नई सी ’ईसुरी’ मरी मराई खालन ।1
अर्थात् ये महुआ के वृक्ष मनुष्य के जीवन को पालने वाले हैं जिन पर तुम कुल्हाड़ियों के प्रहार कर रहे हो । इनको काटना नहीं चाहिए था क्योंकि ये विपत्तिकाल को काटने में सहायक हैं । ऐसे वृक्षों को नन्दलाल ने भूख मिटाने हेतु लगवा दिया था जिनके फल व फूल खाकर मरे से लोग हष्ट पुष्ट हो जाते हैं । ईसुरी जहां एक ओर महुआ के वृक्षों के काटने वालों को फटकारते हैं वहीं नीम के पेड़ की छाया का महत्व एक अन्य फाग में समझाते हुए कहते है:-
सीतल एइ नीम की छइयाँ, घामों व्यापत नइयाँ ।
धरती नौं जे छू छू जावें, हैं लालौइँ डरइयाँ ।
फिर करबू आराम लौट कें, अपने जियरा खइयाँ ।
एसोइ हरौ बनो रय ’ईसुर, हमरे जियत गुसइयाँ ।2
अर्थात् इस नीम के वृक्ष की छाया अत्यधिक शीतल है जिससे धूप यहांँ नहीं व्यापती । इसकी हरी-भरी शाखाएंँ हवा के बहाव से करती का स्पर्श करती हैं । अपने मन की शांति हेतु लौट कर यहीं विश्राम करेंगे । हे ! भगवान् यह वृक्ष हमारे जीवन में ऐसा ही हरा -भरा बना रहे । ईसुरी की भांति आज के बुन्देली कवि भी वृक्षांे और वनो के महत्व को समझते हुए आम जनता को अपनी रचनाओं द्वारा समझाते हैं । श्री लल्लूमल चौरसिया अपने बुन्देलखण्ड अँंचल की वन सम्पदा के बारे में बताते हुए लिखते है:-
नौनो अपनो देश गुड़ानों, वन में भरो खजानो ।
हर्र बहेरौ और आँवरो, मूर सजीवन जानो ।
पीपर नीम प्राण वायु के, प्रथम देवता मानो ।
दूध बरा को संग बतासा, धात रोग में छानों ।3
अर्थात् अपने प्रिय बुन्देलखण्ड प्रान्त में वन सम्पदा का कोष भरा पड़ा है । इसमें हर्र, बहेरा और आँवला के वृक्षों से उनके फल प्राप्त होते हैं , जो संजीवनी बूटी के समान है । पीपल व नीम के वृक्ष प्राण वायु ऑक्सीजन प्रदान करते हैं, इसीलिए इन्हें देवता माना जाता है । धात रोग को समाप्त करने हेतु बट वृक्ष का दूध बतासा के साथ खाना चाहिए । इस तरह कवि वन सम्पदा के उपयोग को पाठकों के समक्ष रखता है । महुआ के वृक्षों से प्राप्त फूल व फल से बुन्देलखण्ड का गरीब आदमी अपना भरण पोषण करता था किन्तु लोक कवि ईसुरी की सीख को अनदेखा कर महुआ के पेड़ों को काट दिया गया जिससे बुन्देलखण्ड में विकट स्थिति उत्पन्न हो गई है । इस पर लोक कवि श्री लल्लूमल चौरसिया की एक चौकड़िया देखिये -
महुआ खाकें पेट भरत ते, अपनी गुजर करत ते ।
कैसउ परै अकाल कबहुँ कोउ, भूँखन नई मरत ते ।
मुरका लटा और डुबरी के, लाले नई परत ते ।
उनकी खुद मिटा दई जिनसें, दीन अधीन पलत ते ।4
अर्थात् बुन्देलखण्ड के ग्रामवासी महुआ खाकर अपना पेट भरकर गुजर-बसर करते थे । कितना ही भयंकर अकाल क्यों न पड़े, कोई भूखों नहीं मरता था ं मुरका, लटा और डुबरी (जो महुआ से बनते हैं ) के लाले नहीं पड़ते थे किन्तु दीनों-हीनों को पालने वाले ऐसे महुआ के वृक्षों को काटकर खत्म कर दिया जिससे दुखद स्थिति बन गई है ।
श्री जगदीश रावत ’जगदीश्वर’ अपनी बुन्देली रचनाओं में वृक्षों के महत्व को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि पर्यावरण संतुलन हेतु वृक्ष बहुत महत्वपूर्ण है । वे लिखते हैं -
नौने पर्यावरन के लाने, पेड़े हमें लगानें,
नास मिटा दई रूख डाँग की, अब नईं और नसानें ।
ऐसी टीका टीक दुपरिया, बिरछन में बिलमाने ।
चेतौ भैया ’जगीदश्वर’ जो, अपने प्रान बचाने ।5
पर्यावरण संतुलन हेतु पेड़ों की न केवल रक्षा करना है, बल्कि और पेड़ लगाने की जरूरत है । जंगलों को काटकर अब और नष्ट नहीं होने देना है । भीषण गर्मी की तपती दुपहरी में वृक्षों की छाया ही शीतलता प्रदान करती है । इसलिए वृक्षों को काटने से रोकते हुए श्री जगदीश्वर कहते हैं:-
हरे -भरे बिरछा न काटो रे भैया लगहैगों अभिशाप, मोरे लाल ।
प्रान- पियारे हैं पेड़ हमारे जीवन दो चुपचाप, मोरे लाल ।
पेड़ लगाओ, लो पुण्य कमाओं, अच्छौ लगै अपने आप, मोरे लाल ।
रूख बनाओं न ठंूठ रमैंया, कुदरत बन जै साँप, मोरे लाल । पंछी पखेरन कौ रैन -रैन बसैरा, बिरछा तो हैं, माई बाप, मोरे लाल ।
’जगदीश्वर- जब जंगल कटहैं धरती जैहैं काँप, मोरे लाल ।6
अतः हरे भरे वृक्षों को न काटने की सलाह देते हुए कवि कहता है कि वृक्षों के काटने से अभिशाप लगेगा । प्राणों से प्रिय इन वृक्षों को चुपचाप अपनी गति से बढ़ने दिया जाये । इसके साथ हमें अब और वृक्ष लगाने की आवश्यकता है क्योंकि वृक्षों के बिना प्रकृति हम सबके लिए काल बन जायेगी । एक वृक्ष लगाना दस पुत्र पालने जितना पुण्य देते है, अतः धरती न डोले इसके लिए जंगलों की कटाई रोकिये । वृक्षों की अन्धाधुंध कटाई से कहीं पर सूखा पड़ता है, तो कहीं पर बाढ़ आती है । इसी पर्यावरण असंतुलन से भूकम्प जैसे प्राकृतिक आपदायें मानव जीवन को त्रस्त करती हैं । वृक्षों की कमी से वायु शुद्ध नहीं मिल पा रही है जिससे अनगिनत असाध्य रोग मानव काया को ग्रसित कर रहे हैं । इन सभी भावों को बुन्देली के कवि श्री कल्याण दास साहू ’पोषक’ ने इस तरह व्यक्त किया हे ।
कितऊँ-कितऊँ तौ परतइ सूखा, कितऊँ आउतई बाढें ।
भीषण आंँधी तूफानन में, संकट खूबई बाड़ें ।
धरती डिगन लगी है अब तौ, हानि होय धन-जन की ।
रोको अन्धाधुन्ध कटाई, हरे भरे बिरछन की । 7
इतना ही नहीं कवि गुस्सा की भाषा में इसी कविता में आगे कहता है कि जो प्रकृति प्रदत्त वन संसाधन हैं, उन्हें आप नष्ट कर देगे तो भविष्य में सिर पकड़ कर मात्र पछताना शेष रहेगा और धरा मरुस्थल में परिवर्तित हो जाएगी इसीलिए इस स्थिति को रोकना है । वे लिखते हैं -
जो कछु है सो चाट लेव, फिर बैठे रइयों हींडत ।
करम पकर कैं बैठे रइयो, हाँत, आँख सिर मींड़त ।
भ्याँने सबै छानने पर है, खूब खाक गलियन की ।
रोको अन्धाधुन्ध कटाई, हरे-भरे बिरछन की । 8
हम सभी लोग यदि अपनी भलाई चाहते हैं तो खूब मन लगाकर वृक्षों की सेवा करें और खाली पड़ी पड़त भूमि में वृक्ष लगाकर धरा का श्रृंगार करें । वृक्ष जहां एक ओर पर्यावरण को शुद्ध बनाते है ं वहीं हमारे आर्थिक संबल भी बनते हैं । श्री नवलकिशोर सोनी ’मायूस’ अपनी एक बुन्देली रचना में वृक्षों के महत्व को बताते हुए लिखते है:-
पैल लगाए हते जे बिरछा अब फल दैन लगे हैं ।
वृक्षारोपण संे ओ भइया अपने भाग जगे हैं ।
खेतन की मेंड़न के ऐंगर जांँगा कछू डरी ती ।
उतईं लगाए हते जे बिरवा मेंहनत ऐंन करी ती ।
खाद और पानी सें इनके सब दुख दूर भगे हैं ।
तनक-तनक से रए जे जबलौं तबलौं इनैं समारो ।
दिन्नाँ रात तकै रए इनखाँ तनकउ दओं नईं टारो ।
ऐसें राखौ प्रैम इनन सें जैसे भाई सगे हैं ।
दो जोड़ी जामुन के पेड़े आठ लगे आमन के ।
इनके फल बेचें सें घर में ढेर लगे दामन के ।9
इस तरह बुन्देली काव्य में वृक्षों का आर्थिक महत्व नवल किशोर सोनी मायूस द्वारा बताया गया है । बुन्देलखण्ड धारा विभिन्न प्रजाति के वृक्षों से आपूरित है जिससे उसके प्राकृतिक सौन्दर्य अनुपम है । इस छवि का वर्णन करते हुए बुन्देली कवि डॉ. अवध किशोर जड़िया ने लिखा है -
कानन की छवि कौन कहै -
जहँ बेर मकोर की झेलम झेल है ।
तेंदू तहांँ बनराज तहैं-
यह कोनउँ खंड सौं नहीं पछेल है ।
गंध करौंद मधूक की है-
मदकारिनी मेखला पै नहिं मेल है ।
चारु अचार मिलें चहुँ ओर-
बिचार कहों यह भूमि बुंदेल है ।10
अतः हम पाते है कि बुन्देलखण्ड के महत्वपूर्ण वृक्ष महुआ, नीम, अचार, बेर, मकोर, निबुआ, जामुन आदि बुन्देली कवियांे की रचनाओं में न केवल आए हैं बल्कि उनके महत्व को भी बुन्देली कवियों ने पहचान कर लोक के समक्ष उनकी रक्षा का आव्हान भी किया है । अन्त में राई की धुन लिखी में जगदीश रावत की इन पंक्तियों में किए गए आव्हान से अपनी बात पूरी करते है -
बिरछा लगाव पेड़-पौदा लगाव, अपनो जौ जंगल न काटियो ।
इनखों न सताव हरियाली बढ़ाव, अपनौ जौ जंगल न काटियो ।
ई जंगल सें मिलत है, जीवै कौ वरदान ।
प्रानवायु औषद मिलै, वन है देव समान ।
देव के समान, वन देव के समान ।
अपनौ जौ जंगल न काटियों ।11
एम.आई.जी.-7 न्यू हाउसिंग
बोर्ड कॉलोनी, छतरपुर
1. ईसुरी की प्रामाणिक फागें, सं. डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त पृ.51, 2. ईसुरी की फागें, सं.घनश्याम कश्यम पृष्ठ 104,
3व4 लेखक के निजी संग्रह से 5 अक्षर अलख जगाये - जगदीश रावत पृष्ठ 50, 6. अक्षर अलख जगाये - जगदीश रावत पृष्ठ 50
7. पेाषक चेतना-कल्याण दास साहू ’पोषक’ पृष्ठ 29, 8. पेाषक चेतना-कल्याण दास साहू ’पोषक’ पृष्ठ 30,
9. रैवे इतेै देवता तरसें, नवलकिशोर सोनी ’मायूस’ पृष्ठ 23, 10 बन्दनीय बुन्देलखण्ड-डॉ.ए.के.जड़िया ’किशोर’ पृष्ठ 10
11. अक्षर अलख जगाये- जगदीश रावत पृष्ठ 61
डॉ.बहादुर
सिंह परमार
सहायक
प्राध्यापक (हिन्दी विभाग)
शास.महाराजा
स्नातकोत्तर स्वशासी
महाविद्यालय
छतरपुर म.प्र. 471001
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