बुन्देलखण्ड में स्वाधीनता की अग्नि शिखाए
-डॉ. बहादुर सिंह परमार
बुन्देलखण्ड अंचल में स्वाधीनता का भाव कूट-कूट कर भरा है इसीलिए यह भू भाग विदेशियों के अधीन लम्बे समय तक नहीं रहा । यहाँ की जनता ने स्थानीय देशी राजाओं को तो स्वीकारा किन्तु फिरंगी चाहे वे अंग्रेज हों या मुगल उन्हें स्वीकार नहीं किया । इस कारण मुगल काल में शासकों ने देशी राजाओं को मोहरा बनाकर ही इस भू भाग पर मनमानी करने का प्रयास किया जिसका विरोध समय-समय पर अनेक जन नायकों ने किया जिनमें छत्रसाल का नाम सर्वोपरि आता है । छत्रसाल के स्वर्गवासी होने पर उनके उत्तराधिकारियों की अक्षमता से यह अंचल छोटी-छोटी राजनैतिक इकाइयों में बंटा कालान्तर में अंग्रेजोें ने भी इसे अपने प्रभाव में लेने का प्रयत्न किया जिसका उन्हें मुंहतोड़ उत्तर दिया गया । यह बात अलग है कि अंग्रेजों की शक्ति के सामने यहाँ का जन संघर्ष सफलता के चरण नहीं चूम सका लेकिन अन्याय का प्रतिकार कर स्वाधीनता भाव के लिए यहाँ की जनता ने विदेशियों की पुरजोर खिलाफत कर अपनी भावनायें अंकित कराईं । दीवान बहादुर गोपाल सिंह का संघर्ष:-
श्री गोपाल सिंह शाहगढ़ जिला सागर के निवासी थे । वे प्रारम्भ में जसों के राजा छत्रसाल क पौत्र दुर्जन सिंह व हरी सिंह की सेना में महत्वपूर्ण पदों पर रहे । उनकी शक्ति 1790 ई. के बाद तब काफी बढ़ गई जब उन्होेंने अली बहादुर से परगना कोटरा छीन कर उस पर अधिकार कर लिया । इसी कोटरा के उत्तराधिकार को लेकर राजा बखत सिंह से उनका विवाद चल रहा था जिसमंे अंग्रेजी शासन बखत सिंह का पक्ष ले रही थी जिससे गोपाल सिंह ने अंग्रेजों के खिलाफ खुला संघर्ष किया । वे अनेक वर्षों तक अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध लड़ते रहे और अंग्रेज अधिकारी व सेना उनका बाल भी बांका नहीं कर सके । ब्रिटिश सैनिक अधिकारी कर्नल मार्टिन्डेल, मेजर कैलिम, कैप्टन बिल्सन, मेजर डेलामेन, मेजर मॉर्गन, कर्नल ब्राउन, मेजर लेसली तथा कर्नल वाटसन आदि ने गोपाल सिंह को परास्त कर पकड़ने की कोशिश की किन्तु वे सफल नहीं हुए । अंग्रेज लेखक एडविन टी.एडकिन्स ने अपनी कृति ’स्टेटस्टिकल डिस्क्रिप्टिव एण्ड हिस्टोरिकल एकाउण्ट और दि नार्थ प्राविन्सेज औफ इंडिया’ (प्रकाशक -गवर्नमेन्ट प्रेस, इलाहाबाद 1874) के पृष्ठ 48 पर श्री गोपाल सिंह के शौर्य व पराक्रम का वर्णन करते हुए उनके लिए ’कुशल, युद्धप्रिय एवं अनुभवी प्रमुख’ जैसे विशेषणों का प्रयोग किया है । गोपाल सिंह को पराजित करने के लिए अंग्रेजों ने 3 बटालियन इन्फेन्ट्री, रेजीडेन्ट कैवेलरी कमाण्डर विन्च के नेतृत्व में करबी के समीप तरावन में रखी । इस सैन्य केन्द्र को गोपाल सिंह ने नष्ट कर जला दिया था जिसके जले हुए खण्डहर अभी भी मौजूद हैं । इसी कमाण्डर विन्च तथा गोपाल सिंह के मध्य पिपरिया में घनघोर युद्ध हुआ था जिसमें कमाण्डर विन्च तथा उसकी सेना को गोपाल सिंह ने बुरी तरह पराजित किया था । यद्यपि गोपाल सिंह के पास सैन्य शक्ति अपेक्षाकृत काफी कम थी परन्तु उन्होंने अपने साहस, सूझबूझ एवं रण कौशल से पहले तो अपने को व अपनी सेना को सामने से सुरक्षित निकाला और बाद में फिर उनका पीछा करने वाली फौज पर जबर्दस्त आक्रमण कर दिया जिससे विन्च को मुंह की खानी पड़ी । इसके बाद गोपाल सिंह ने तरावन की फौजी छावनी में आग लगा दी । यहाँ पर एक बात और ध्यातव्य है कि गोपाल सिंह बहादुर होने के साथ बड़े धार्मिक प्रवृत्ति के थे । इसीलिए एक बार का किस्सा है कि गोपाल सिंह को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने उनकी घेराबन्दी की । अंग्रेजों को बताया गया था कि गोपाल सिंह कभी भी गायों पर गोली वर्षा न होने देंगे, इसलिए गायों को आगे करके उन पर हमले का प्रयास किया गया किन्तु चतुरता से गोपाल ंिसंह ने गायों के निकल जाने पर पेड़ो से अंग्रेजो पर हमला कर दिया जिससे अंग्रेजों के मंसूबे असफल हो गये । गोपाल सिंह ने बुन्देलखण्ड में सबसे पहले अंग्रेजों के विरुद्ध लम्बा संघर्ष उस समय किया जब एक के बाद एक सभी राजे महाराजे अपने-अपने राज्य एवं पद की सुरक्षा हेतु अंग्रेजों की गुलामी स्वीकारते जा रहे थे । कहीं से भी कोई सहायता अंग्रेजों के विरुद्ध मिलना दुर्लभ हो गया था ऐसे कठिन समय में इन्हेांने अदम्य साहस व शौर्य का परिचय देकर अंग्रेजों को मजबूर कर दिया था कि वे उन्हीं की शर्तों पर सनद दें । अंग्रेजों ने विवश होकर बाद में गोपाल सिंह से संधि कर ली थी और उनकी 18 गांव की जागीर गर्रोली को मान्यता दी थी ।
जैतपुर महाराज पारीछत व महारानी राजो की शौर्य गाथा-
सन् 1802-03 में बेसिन संधि के बाद अंग्रेजों ने बुन्देलखण्ड के अनेक राजा महाराजाओं पर दबाव डालकर संधियां की । अंग्रेजों ने 1812 तक खास कूटनीति के तहत बुन्देलखण्ड के बड़े बड़े राज्यों ओरछा, पन्ना, दतिया आदि से संधियाँं कर तथा छोटे राज्यों सरीला, जिगनी, ढुरबई, बिजना, चिरगाँव, समथर गौरिहार तथा अजयगढ़ को सनदें देकर अपने लिए दक्षिण जाने का सुरक्षित रास्ता ले लिया था । अंग्रेजों की सेनाओं तथा कारिन्दों द्वारा लगातार बुन्देलखण्ड में दक्षिण जाते समय तथा अन्य साधारण समय में जनता के साथ मारपीट, किसानों के खेतों को फसलांे को चराने तथा महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएँ की जातीं थीं जिससे यहाँ की प्रजा तथा राजा अंग्रेजों से लगातार परेशान रहते थे । ऐसी ही परिस्थितियों में बनारस में होने वाले बुढ़वा मंगल की तर्ज पर चरखारी मंे संवत् 1893 में बुढ़वा मंगल का आयोजन किया गया जिसमें प्रस्ताव पारित किया गया कि अंग्रेजों को पहले बुन्देलखण्ड से तथा बाद में भारत से खदेड़ा जाय, इसके लिए शपथे ली गई किन्तु कहा जाता है कि चरखारी के राजा रतन सिंह ने छाती में लवा (पक्षी) छिपाकर कसम खाकर विश्वासघात करने की ठान ली थी । इस बुढ़वा मंगल के बाद जैतपुर के महाराज पारीछत ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष हेतु तीन चार वर्षों तक गुपचुप तैयारी की । सेना में भर्तियाँ की गढ़ी और किले में मोर्चे बनवाये, हथियार और यन्त्र ढलवाये । हर बोलों के माध्यम से समाज में अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण तैयार किया गया । अंग्रेजों के गुप्तचरों को जैतपुर के महाराज पारीछत की तैयारी की सूचना देर से प्राप्त हुई लेकिन जैसे ही सूचना प्राप्त हुई तुरन्त ही अंग्रेजों द्वारा राठ के पास वर्मा नदी के किनारे कैंथा गांव में छावनी बनाई गई और उसके बाद मेजर स्लीमैन ने जैतपुर महाराज पारीछत के सामने सहायक संधि करने का प्रस्ताव रखा जिसके अनुसार राज्य की रक्षा का भार अंग्रेजों पर होता था और उसके बदले अंग्रेज सेना का व्यय राज्य को चुकाना पड़ता था । इस गुलामी को क्रांति का स्वप्न देखने वाला वीर कैसे स्वीकरता ? अतः उन्होंने इन्कार किया । इन्कार करते ही अंग्रेजों ने पनवाड़ी पर आक्रमण कर दिया जिस पर जैतपुर की सेनाओं ने अंग्रेजों को परास्त कर दिया जिस पर मेजर स्लीमैन तिलमिला गया और उसने इलाहाबाद से सेना बुलाकर कैथा से स्वयं सेना लेकर जैतपुर को रवाना हुआ । इसी के साथ लाहौर को जाती सेना को नौगांव छावनी में रोककर उसे पूर्व की तरफ से जैतपुर पर हमला करने का आदेश दिया । महाराज पारीछत ने सभी राजाओं को संदेश भेजकर बिलगांव में मोर्चा जमाया ताकि उन सबके आने पर क्रांति का बिगुल बजाया जा सके । तब तक स्लीमैन को रोकना जरूरी था । वर्मा नदी के किनारे बिलगांव का मैदान रण हेतु चुना और वहांँ पर उत्तर की ओर मार करने के लिए रूई भरी गांँठों की दीवारें खड़ी गईं, दूसरी कतार में रेत भरे बोरे रखे गये । पुरैनी, बिलगांव, सिवनी, मुस्करा और आसपास के गांव जवान एकत्र हो गए और यहाँ पर अंग्रेजी सेना को मुंह की खानी पड़ी किन्तु इस युद्ध में बुन्देलखण्ड के अन्य देशी राजाओं का अपेक्षित सहयोग राजा पारीछत को नहीं मिला । बिलगाँव युद्ध में भी जीत का जश्न चल ही रहा था कि इस बीच मेजर स्लीमैन वेश बदलकर रियासत के दीवान से मिला और उसे जागीर का प्रलोभन देकर उसे खरीद लिया, इसी परिप्रेक्ष्य में उसने शब्दवेधी गोलंदाज को स्वर्णमाला की पहली किश्त देकर अपनी ओर मिला लिया।इन दोनो दोगलांे के अंग्रेजांे से मिलते ही जैतपुर पर खतरे के बादल मंडराने लगे। इधर देशी राजाओं से अपेक्षित सहयोग मिलते न देख महाराज पारीक्षित स्वयं चरखारी नरेश से मिलने जाते है और उधर दीवान भेद लेकर स्लीमैन के पास जाता है। चरखारी नरेश भी दोगला आचरण करके पारीक्षत के साथ करते रहे । इसके बाद अंग्रेजों ने जैतपुर पर हमला कर दिया इसी बीच महाराज पारीक्षित चरखारी से वापस लौटे तो उन्होंने अंग्रेजो से संघर्ष कर उन्हें भागने पर विवश कर दिया किन्तु उन्हें इस बात का अहसास हो गया था कि हमारे दीवान तथा अन्य अधिकारी धोखेबाज हो गये है तो उन्होनें सुबह होने के पूर्व किले से जाने की तैयारी कर बगौरा की डांग की ओर गए दूसरी तरफ रनिवास को सेना के घेरे मे भेजा गया। इसके बाद खाली किले पर स्लीमैन ने कब्जा किया तथा दीवान व गोलंदाग को जागीर के बदले मौत का इनाम दिया । राजा पारीक्षत के पीछे अंग्रेजी सेना को दौड़ाया । अंग्रेजों से पारीक्षित की महारानी राजों का संघर्ष ज्योराहा के पास बुकरा खेरे मे हुआ जहॉँ महारानी राजो के साथ रानी के पिता बहादुर सिंह टटम भी लडे । इस युद्ध में अंगेज सेना पराजित होकर वापस जैतपुर लौट आई। इसके बाद दूसरी लडाई बारीगढ में हुई यहा भी अंग्रेज हारे। तीसरी लड़ाई झोमर में हुई जहाँॅ महारानी के पिता बहादुर सिह को वीर गति प्राप्त हुई ओैर रानी जंगल की ओर भागने को विवश हुई इधर बगौरा के जंगल में पारीछत ने युद्ध की तैयारी की और उधर से अंग्रेज भी फोैज लेकर आ गये। उनके बीच कई युद्ध हुए क्यांेकि महाराज पारीछत गुरिल्ला या छापामार युद्ध का सहारा ले रहे थे। लाहौर जाने वाली फौज भी नौगांव से चलकर जंगल मे आ चुकी थी । इस बीच राजा कई बार जीते, कई बार हारे । कहॉँ तक अकेले जूझते तो साथियांे सहित अदृश्य हो गये। यह आजादी का परिन्दा गुलामी के पिंजड़ांे मेंेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेे रहना कैसे पसन्द करता, उसने पहाड़ों और जंगलांे की खाक छानना बेहतर समझा। राजा और रानी दोनोें खानाबदोशों की तरह एक जगह से दूसरी जगह फिरते रहे स्लीमैन ने घोषणा कर दी थी कि जहाँ पारीछत मिलेंगे उस राज्य को अंग्रेजी राज्य में शामिल कर लिया जायेगा । इस वजह से सभी रियासतों में भय व्याप्त था, पर प्रजा ने निर्भय होकर राजा परीछत और रानी राजो की भरपूर सहायता की । राजा और रानी को बमीठा में मिलवा दिया तथा राजगढ़ के किले में रहने का प्रबंध कर दिया । इस बीच गर्रोली के राजा पारीछत ने जैतपुर महाराज की काफी सहायता की ।
महाराज पारीछत ने अपने भतीजे चरखारी नरेश से भी मदद की अपेक्षा की किन्तु वे अंग्रेजों से भयग्रस्त थे और उन्होंने भी इस आजादी के दीवाने को धोखा ही दिया । इसके बाद अलीपुरा के पास जोरन गाँव में स्थित एक जंगली गढ़ी में राजा और रानी रहने लगे । अंग्रेजों को जासूसों से यह खबर भी मिल गई कि ये दोनों जोरन में रह रहे हैं तो स्लीमैन वहाँ पहुंच गया और मशीनगनों से घेर लिया । जब स्लीमैन आया तब राजा पूजा कर रहे थे तो महारानी राजो ने बारूद के कमरे में आग लगा दी जिससे भारी विस्फोट हुआ जिसमें रानी राजो शहीद हो गई और पारीछत व स्लीमैन बच गए । इसके बाद पारीछत को गिरफ्तार किया गया किन्तु उनकी मृत्यु को लेकर विभिन्न मत व्याप्त हैं । एक जनश्रुति है कि पारीछत अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो गए और बमीठा के पास उनकी मृत्यु हुई जबकि दूसरी जनश्रुति है कि बंदी पारीछत कानपुर के हाता सवाई सिंह में नजर कैद रखे गऐ और वहीं सन् 1853 ई. में स्वर्गवासी हुए । तीसरी जनश्रुति कानपुर में फांसी देने के सम्बन्ध में है । महाराज पारीछत की यह शौर्य गाथा बुन्देलखण्ड में लोक कण्ठ का हार है । महाराज पारीछत के युद्ध कौशल का वर्णन इस लोकगीत में दृष्टव्य है:-
’’पारीछत बड़े महाराज, किले के लानें जोर भंजाई राजानें ।
चरखारी मंगल रची, सब राजा लये बुलाय ।
पारीछत मुजरा करें, राजा रये मुख जोर ।।
गुर्जन-गुर्जन कोई पुतरिया, गजमाला कोई सवास ।
ठाँड़ी बिसूरे मानिक चौक में, कोई नइयाँ पीठ रनवास ।।
किले पार खाई खुदी, दौरें हते मसान ।
भैंसासुर छिड़ियां थपे, दरवाजें पवन हनुमान ।।
कै सूरज गाहन परे, कै नगर मचाई हूल ।
कोउ ऐसो दानो पत्रो, सूरज भये अलोप ।।
पैली न्याँव धँधवा भई, दूरी री कछारन माँह ।
तीजी मानिक चौक में, जँह जंग नची तलवार ।।
अरे बावनी में जोर भँजा लई राजा ने ।”
अंग्रेजों के विरुद्ध सन् 1842 का विद्रोह:-
बुन्देलखण्ड में सन् 1842 में ब्रिटिश कर्नल ओसले द्वारा घोषित राजस्व नीति के परिणाम स्वरूप यहाँ के जमींदार, जागीरदार और राजा-महाराजा तो शोषण के शिकार हो ही रहे थे, साथ ही इसका प्रभाव आम जनता पर पड़ रहा था । ओसले की इस राजस्व नीति के तहत अनेक भू-स्वामियों की भूमि छीन ली गईं तथा अनेक भू-स्वामियों की जमीनें कुर्क कर ली गई । इसके अतिरिक्त अनेक जागीरदारों की जागीरें एंव अनेक राजाओं की रियासतें छीन ली जिससे बुन्देला वीरों का खून खौल उठा और देशभक्त बुन्देली वीर अंग्रेजों के विरुद्ध उठ खड़े हुए । विद्रोह व संघर्ष की शुरूआत नारहार के वीर बुन्देला मधुकर शाह तथा इनके भाई गणेश जू एवं चंद्रपुर के मालगुजार जवाहर सिंह द्वारा की गई । 8 अप्रैल 1842 को मधुकरशाह, गनेश जू तथा जवाहर सिंह ने अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया । इसी के साथ बुन्देलखण्ड में संघर्ष की लहर चारों ओर फैल गई । मधुकर शाह आदि ने मालथौन पर हमला करके उसे अपने कब्जे में ले लिया जिससे नाराज होकर अंग्रेज अधिकारी एम.सी. ओमेनी ने मधुकरशाह व गनेश जू के बूढ़े पिता राव विजय बहादुर सिंह को गिरफ्तार कर लिय तथा मधुकरशाह व गणेश की गिरफ्तारी हेतु उनके बगीचे में सैनिकों का पड़ाव डाल दिया जिस पर मधुकर शाह, गणेश जू जवाहिर संिह विक्रमजीत सिंह, दीवान हीरा ंिसह, राजधर एवं क्षमाधर अग्निहोत्री आदि ने अंग्रेजी सेना पर हमा कर वहां से उन्हें मार भगाया जिसमें अनेक अंग्रेज सिपाही मारे गए । इसके बाद सभी क्रांतिकारी खिमलासा गए और वहां अंग्रेजों को परास्त कर मौत के घाट उतार कर लूटपाट की । तदुपरान्त सभी क्रांतिकारियों का दल बड़ा डोंगरा पहुंचा जिसमें क्षेत्र के अनेक लोग और शामिल हो गए । इस क्षेत्र में अंग्रेजों व अंग्रेजपरस्त लोगों की नींद हराम कर दी गई । इसी बीच 15 अप्रैल 1842 को क्षमाधर अग्निहोत्री व उनके साथियों की हत्या कर दी गई जिससे जन अक्रोश और भड़क गए 30 अप्रैल 1842 को ओमिनी ने अपनी दमनकारी नीति के तहत् मधुकर शाह, गणेशजू, जवाहर सिंह आदि को बागी घोषित कराकर इनको जिन्दा या मुर्दा पकड़ने पर इनाम घोषित करा दिया । इसी बीच रमझरा में सभी क्रांतिकारी एकत्र हुए जिसमें ठाकुर इन्द्रजीत सिंह दतिया था राव विजय सिंह सहित लगभग दो सौ क्रांतिकारी इकट्ठे हुए । इसके बाद इसी दल में नारहार के तीन सौ लोग और शामिल हो गए । इस समय जवाहर सिंह चन्द्रपुर में उपस्थित थे । चन्द्रपुर से जवाहर सिंह का संदेश मिलने पर मधुकर शाह सभी साथियों सहित चन्द्रपुर की ओर बढ़े । वहाँ से मशालचियों को शामिल कर यह क्रांतिकारी टुकड़ी पथरिया होते हुए ईसुरवारा पहुंची वहां 7 मर्इ्र 1842 के बीना नदी के पास अंग्रेजों से इसकी मुठभेड़ हो गई । इसमे लगभग पचास क्रांतिकारी शहीद हुए तथा कुछ घायल हुए किन्तु मुखिया कोई नहीं पकड़े जा सके । इसके बाद कैप्टन मैकिन्टोष के नेतृत्व में नाराहर से 8मील की दूरी पर गोना गांव अंग्रेज पहुंचे वह जिसे क्रांतिकारी ने लूट लिया था । तदुपरान्त लगातार क्रंातिकारी अंग्रेजी शासन को छकाते रहे फिर अंग्रेजी शासन ने एक नीति के तहत इन्हें हाजिर कराने की रणनीति बनाई जिसके तहत मधुकर शाह व गणेशजू के पिता राव विजय बहादुर सिंह को 25 मई 1842 को रिहा कर दिया । किन्तु इससे क्रांतिकारियों पर कोई असर नहीं पड़ा तथा वे अपनी गतिवधियों में लगातार संलग्न रहे जिसके परिणाम स्वरूप 19 जून 1842 को अंग्रेज अफसर मेकिनटोस के नेतृत्व वाली फिरंगी सेना से पंचमनगर मे हो गई जिसमें कई अंग्रेज सैनिक मारे गऐ तथा 15-20 क्रांतिकारी भी शहीद हुए ।
क्रांतिकारी लगातार संघर्ष करते रहे उन्होने जून 1842 में चन्द्रपुर तथा खुरई पर आक्रमण किया क्योंकि ये अंग्रेजी सत्ता के केन्द्र थे । ग्राम देवरी में जवाहर सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों पर हमला किया गया जिसमें कई अंग्रेज सैनिक मारे गऐ । बेसरा गाँव के थाने में क्रांतिकारियों ने आग लगादी । 16 जुलाई 1842 को इन्हीं क्रंातिकारियों ने अंग्रेजों के अभेद्य दुर्ग धामौनी पर हमला कर उसे जीत लिया जिसमें 5 अरबी घोड़ा, 7780 रुपये तथा काफी अस्त्र शस्त्र क्रांतिकारियों को मिले । इसी के बाद शाहगढ़ के राजा बखतवली शाह तथा वानपुर के राजा मर्दन सिंह भी इन क्रांतिकारियों के साथ हो लिए । उनको जैतपुर के अपदस्थ राजा पारीछत का भी खुला सहयोग मिल रहा था । ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध बुन्देलाओं के विद्रोह के समय ही हीरापुर के लोधी राजा हिरदेशाह ने भी अंग्रेजों की खिलाफत करने हेतु बहरौल में मलखान सिंह मुखिया के नेतृत्व मंे बैठक बुलाकर निर्णय लिया कि वे ब्रिटिश हुकूमत की अन्यायपूर्ण नीतियों का विरोध करेंगे । इस बैठक में करीब ढाई-तीन सौ क्रांतिकारी शामिल हुए थे । बैठक में मदनपुर के गौंड़ राजा डेलनशाह दिलावर के गौड़ माल गुजार दिलावर सिंह और नरबर सिंह भी शामिल थे । इस बैठक की खबर अंग्रेजों को लगी तो लेफ्टिनेंट हरबर्ट तथा लेफ्टीनेंस राइकेश को बहरौल में अंग्रेज दाखिल हुए । इस लड़ाई में 15 क्रांतिकारी शहीद हुए । इन क्रांतिकारियों ने सक्रिय होकर सागर तथा नरसिंहपुर जिले में अनेक स्थलों पर अपनी सजा कायम की । इन्होंने महाराजपुर तथा सुआतला पर अपना कब्जा जमा लिया । सुआतल के बुन्देला ठाकुर रन्जोर सिंह भी क्रांतिकारियों से मिल गऐ । क्रांतिकारियों ने नर्मदा के घाटों पर अपनी सैनिक टुकड़ियां तैनात कर दी तथा अनेक स्थानों को अंग्रेजों से छीनकर अपने पटवारी तथा नाजिर नियुक्त कर दिय । नर्मदा घाटों पर कब्जा के बाद तेंदूखेड़ा पर क्रांतिकारियों ने बिना संघर्ष के अपना अधिकार कर लिया । इन्हीं क्रांतिकारियों ने होशंगाबाद जिले के दिलवार पर भी कब्ज जमा लिया । इन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी सेना के छक्के छुड़ा दिये थे जिससे जनरल टॉमस ने कार्नल वॉटसन को तेजगढ़ को भेजा वहां अनेक अंग्रेज सिपाही मारे गए तथा क्रांतिकारियों ने तेजगढ़, अभाना तथा बालाकोट स्थानों पर आधिपत्य जमा लिया । इस तरह इन स्वतंत्रता के दीवानों ने नरसिंहपुर, जबलपुर, दमोह तथा नर्मदा पार के बड़े भू-भाग पर अपना कब्जा जमाकर उसे अंग्रेजी भय से मुक्त करा दिया । अब अंग्रेजों ने आमने सामने न लड़कर कूटनीति का सहारा लेकर जबलपुर जिले में हर 10 मील पर निगरानी केन्द्र खोले गये तथा सीमावर्ती जिलांे में पुलिस बल बढ़ाया गया । ब्राउन ने हीरापुर के पास ग्राम सांँकल में 42 मद्रास रेजीमेंट की दो टुकड़ियां तैनात की जिससे हिरदेशाह पर कड़ी निगरानी रखी गई । राजा हिरदेशाह जब तेजगढ़ पहंुचे तो उनकी मुठभेड़ अंग्रेज सैनिकों से हो गई जिससे अनेक क्रांतिकारी शहीद हुए । दिसम्बर 1842 तक लगातार क्रांतिकारी गतिविधियां जारी रहीं अंग्रजों ने इन क्रांतिकारियों की गिरफ्तारी पर इनाम बढ़ा दी । लेकिन सभी क्रांतिकारी अपने अपने इलाकों में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे कि फरवरी 1843 में मधुकर शाह अस्वस्थ हो गए । जिससे वे अपना इलाज नाराहर में घर पर करा रहे थे । इसकी खबर जैसे ही कैप्टन हैमिल्टन को मिली उसने बीमार हालत में ही मधुकर शाह को घर से गिरफ्तार करना उचित समझा तथा नाराहर आकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया । यह खबर पाकर राजा हिरदेशाह जैतपुर से सागर के लिए रवाना हुए वे वहाँ पहुंचते इसके पहले ही मधुकरशाह को सागर में अंग्रेजों ने फाँसी दे दी । राजा हिरदेशाह को सागर जाते समय शाहगढ़ के समीप गिरफ्तार कर लिया गया । उनके साथ मेहरबार सिंह ईसरी सिंह, राव अमान सिंह सहित अनेक क्रांतिकारी पकड़े गए । मधुकर शाह की फांसी से तथा हिरदेशाह की गिरफ्तारी से क्रांति असफल हो गए किन्तु बुन्देलखण्ड ने इन वीरों ने आजादी की अलख जगाते हुए अंग्रेेजों से लड़ने का हौसला दिया तथा सैकड़ों वीर शहीद हुए ।
शाहगढ़ के राजा बखतबली का विद्रोह:-
बानपुर के शासक राजा मर्दन सिंह के सहयोग और सागर जिले के जागीरदारों, उबारीदारों के अंग्रेज विरोधी रूख के कारण शाहगढ़ के राजा बखतबली का साहस बढ़ा और उन्होंने चंदेरी के डिप्टी कमिश्नर कैप्टन गार्डन को बुलाकर कहा कि ब्रिटिश शासन उनका पुराना गढ़ाकोटा का इलाका लौटा दें किन्तु ऐसा नहीं हुआ परिणामतः राजा बखतवली ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ झंडा बुलन्द कर दिया । 3 जुलाई 1857 की रात को बखतबली के सिपाहियों ने अंग्रेजों के पंचमनगर थाने पर हमला कर उसे जीत लिया इसके बाद खुरई के किले पर
अधिकार कर लिया जबकि वहाँ पर एक हजार सिपाही तथा दो तोपें तैनात थीं । तदुपरान्त शाहगढ़ के राजा बखतबली की ओर से खुमान सिंह ने विनायका पर अधिकार जमाया । लै. हैमिल्टन तथा ब्रिग्रेडियर सेज ने कड़े संघर्ष के बाद विनायका थाना मुक्त कराया । इसके बाद अगले दिन क्षेत्र की जनता और अंग्रेजों के मध्य काफी संघर्ष हुआ । 14 जुलाई 1857 को बखतबली का राज्य कायम हो गया किन्तु उसे अंग्रेजी शासन ने मान्यता नहीं । बखतबली ने इसके बाद चतुर दौआ के नेत्त्व में रहली का किला फतह किया तथा उसे वहाँ किलेदार नियुक्त कर दिया । सौंरई गांव में सभी क्रांतिकारी एकत्र होकर रणनीति तैयार कर रहे थे कि इस बात की भनक अंग्रेजों को लग गई तो उन्होंने वहां सेना भेज दी जिससे वहाँ संघर्ष हुआ । इस बीच बखतबली का संपर्क देश के अनेक क्रांतिकारियों से हो चुका था जिनमें बाँदा के नबाब अली बहादुर, तात्याटोपे आदि प्रमुख थे । 10 फरवरी 1858 गढ़ाकोटा पर अंग्रेजी सेना ने हमला बोल दिया तथा 7 मार्च को उसे जीतकर शाहगढ़ रियासत को जब्त कर लिया । इसके बाद राजा बखतबली अपने सैनिकों तथा विश्वस्त लोगों के साथ 13 मार्च को महोबा पहुंचकर तात्याटोपे से मिलते हैं और फिर मऊरानीपुर में डट जाते हैं उधर तात्याटोपे चरखारी को जीतकर 27 मार्च को मऊरानीपुर आते है । ये सब क्रांतिकारी मिलकर आगे बढ़ते हैं कि बरूवासागर के निकट बेतवा किनारे अंग्रेजी सेना से भीषण मुकाबला होता है । यहाँ क्रांतिकारियों को काफी नुकसान उठाना पड़ता है फिर बखतबली कोंच पहुंचकर रानी लक्ष्मीबाई का सहयोग करते हैं । ब्रिटिश सरकार के लगातार दमन व दबाब से 5 जुलाई 1858 को बखतबली थारेन्टन के सामने आत्मसमर्पण करते हैं, इसके बाद उन्हें लाहौर जेल भ्ेाजा जाता है किन्तु अन्तिम समय में उनकी इच्छानुसार 1873 में वृन्दाावन लाया जाता है, ओर 29 सितम्बर 1873 को वे वहीं अन्तिम साँस लेते हैं ।
नौगांव छावनी, आग की लपटों में:-
सन् 1857 की क्रांति के समय नौगांँव छावनी में बारहवीं पल्टन का एक अंग और चौदहवीं असंयोजित घुड़सवारों की एक टुकड़ी तैनात थी, जिनमें बन्दूकची- चार सौ, घुड़सवार- 219, तोपखाने की नवीं बटालियन की चौथी कंपनी के 40 तोपची के अलावा पैदल सिपाही भी थे । इस फौज का कमाण्डर मेजर किरके तथा स्टाफ ऑफीसर केप्टन पी.जी. स्पाट था । नौगाँव छावनी में विद्रोह की सुगबुगाहट तो पहले से ही थी किन्तु मेरठ में विद्रोह होने के पूर्व ही नौगांव छावनी के सिपाहियों ने विद्रोह की आग भड़क उठी थी । 23 अप्रैल 1857 को भी छावनी में कुछ गोलियांँ दागी गयीं थीं । इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी सुरक्षा के वास्ते दो तोपें छावनी के पीछे वाले रास्ते पर तैनात कर दीं थीं । इसके बाद सिपाहियों में लगातार असंतोष पनपता रहा । 30 मई की शाम को वेतन हवलदार के माध्यम से अंग्रेज अफसरों को खबर मिली कि कुछ सैनिक विद्रोह का षडयंत्र रच रहे हैं । तो इस पर सूबेदार बैजनाथ, पंडित हवलदार, सरदार खाँ, तथा सीताराम को डराया धमकाया गया तथा वे नहीं माने तो उन्हें बर्खास्त कर दिया गया । 10 जून केा नौगाँव छावनी में क्रांति हो गई । इसकी खबर पाते ही अंग्रेज अधिकारी टाउनशैण्ड, ईबार्ट तथा स्कॉर्ट लाइन में आये तो देखा कि सिपाहियों ने तोपों पर कब्जा कर लिया है । ईबार्ट ने कुछ आदमियों के सहयोग से तोपें छीनने का प्रयास किया किन्तु उसकी एक न चली । स्कॉर्ट ने तुरन्त बिगुल बादक को बिगुल बजाने का निर्देश दिया, उसने बिगुल बजाने से मना कर दिया । इस बीच आजादी के दीवाने सिपाहियों ने तोपों से फायरिंग शुरू कर दी । इस पर स्वयं स्कॉर्ट ने खतरे का बिगुल बजाया किन्तु कोई सैनिक उपस्थित नहीं हुआ । ईबार्ट तथा स्कॉर्ट ने आगे बढ़ने की कोशिश की किन्तु सिपाहियों ने उन्हें रोक दिया । इसके बाद मैस भवन, शस्त्रागार, आदि पर सिपाहियों ने कब्जकर बैरकों के घुड़सवारों को बचाते हुए क्लब में रखे कीमती बिलयर्ड में आग लगा दी । छावनी के खजाने को लूट लिया, इसमे 1,21,094 /- रुपये क्रांतिकारियों के हाथ लगे । कार्यालय के रिकार्ड को चला दिया गया । अंग्रेज अधिकारियों ने देखा कि छावनी लूटने के बाद बाजार लूटने के लिए क्रांतिकारी बढ़ रहे हैं । अंग्रेजी अधिकारियों ने किसी तरह से छुप छुपाकर अपनी जान बचायी और वे वहाँ से भाग गये ।
झींझन के दिमान देशपत बुन्देला की सौर्य गाथा:-
दिमान देशपत बुन्देला, छतरपुर की रानी के भाई के पुत्र और महाराजा छत्रसाल के वंशज थे । वे गाँव झींझन में रहते थे । वे अंग्रेजों की नाक में दम करने वाले ऐसे योद्धा थे कि जिनको अंग्रेज आमने-सामने की लड़ाई में कभी न पकड़ सके । उन्हें छल पूर्वक मारा गया दिमान देशपत अंग्रेज अत्याचार का खुला विरोध करने वाले थे । 10 जून 1957 को नौगांव छावनी के बागी सैनिक भी दिमान देशपत से आ मिले थे । इस छावनी में क्रांति की चिनगारी डालने का काम भी दिमान देशपत का हाथ था । इन्होंने जैतपुर के महाराज व महारानी को आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण सहयोग देने के साथ तात्याटोपे व वीरांगना लक्ष्मीबाई मदद की । जनरल बिटलॉक को पॉलिटिकल एजेन्ट नौगांव ने खबर दी कि दिमान देशपत ने अपने गांव में 2000 विद्रोहियों को एकत्र कर सैनिक जमाव किया तो मेजर बिटलॉक तत्काल झींझन गांव गया । वहाँ क्रांतकारियों से उसका भीषण संघर्ष हुआ । इसमें 97 क्रांतिकारी शहीद हुए तथा 39 गिरफ्तार हुए थे ।’ जिनमें से एक को उसी शाम फाँसी पर लटका दिया गया था । बिटलॉक ने गुस्से में पूरे गांव को तहस-नहस कर डाला तथा देशपत के पूर्वजों द्वारा बनायी गयी गद्दी को ध्वस्त कर दिया जिससे क्रांतिकारी इसमें शरण न ले सकें । इसके बाद दिमान देशपत ने पुनः सैनिक एकत्र कर दिये तथा आलीपुरा के राव बखत सिंह के आदेश व सहयोग से धसान नदी के कोटरा घाट पर डट गऐ थे जिससे अंग्रेजी सेना उधर न बढ़ सके । दिमान देशपत का तात्याटोपे तथा झांसी की रानी से सीधा सम्पर्क था । वे उनकी लगातार सहायता करके अंग्रेजो को छकाते रहे । 9 अक्टूबर 1858 को देशपत के साथियों ने कनेर थाने को घेरकर उसपर कब्ज कर लिया । द हिन्दू पेट्रियाट, कलकत्ता ने 30 दिसम्बर 1858 ई. को लिखा कि ’’बुन्देलखण्ड में विद्रोह की लहर बहुत दिनों तक स्थानीय विद्रोहियों द्वारा बनी रही । देशपत ने तो जैतपुर तथा आसपास के जंगली क्षेत्रों पर कब्जा जमा लिया उसको हटाने में बड़ी कठिनाई थी । जब उसके पास आम माफी का संदेश लेकर 7 व्यक्ति भेजे गये, तो उसने उनमें से 6 व्यक्तियों का वहीं मार डाला।’’ देशपत से सारे अंग्रेज दहशत में थे । पश्चिमोत्तर प्रान्त सरकार के असिस्टेंट सेक्रेट्री के चीफ ऑफ स्टॉफ को 9 मार्च 1859 को एक पत्र लिखा है जिसमें कहा गया है कि ’’यह स्पष्ट है कि यदि विद्रोहियों के इस दल ’देशपत’ को पूरी ताकत लगाकर हम उनका बराबर पीछा करके भी अन्त नहीं कर सके, तो आगे चलकर एक भयानक राजनीतिक संकट उत्पन्न हो सकता है। इस प्रदेश की रियाया में बड़ी शक्ति है और शत्रुओं की संख्या इतनी अधिक है कि मिलिट्री, पुलिस तथा रीवा राज्य की फौज स्वतः उनके बराबर भी नहीं है, जो देशपत को हटा सके । दूसरी ओर इस प्रदेश का जंगल इतना घना है तथा शत्रुओं की गतिशीलता इतनी बढ़ी-चढ़ी है कि प्रशिक्षित तथा सुसज्जित हमारी फौज शायद ही उनसे मुठभेड़ कर सके । ’’
दिमान देशपत ने लगातार संघर्ष करते रहे जून 1859 में वे गुरसरायें इलाके मे ंरहे । वहाँ कब्जा कर मऊरानीपुर होते हुए आलीपुरा को बढ़े तो कप्तान डायर्स और मेजर डेविस की फौजों ने उन्हें घेर लिया जिसमें उनके 12 साथी शहीद हुए किन्तु देशपत, बजोर सिंह व छतर सिंह बच गये । 16 सितम्बर 1859 को बमनौरा में अंग्रेजों से इनका मुकाबला हुआ जिसमें देशपत सुरक्षित रहे । सितम्बर 1859 मंे अंग्रेजी सरकार ने छतरपुर राज्य की महारानी पर देशपत का प्रश्रय न देने का दबाब डाला तथा इसी प्रकार का दबाव गर्रौली स्टेट पर पड़ा तथा अतिरिक्त सैन्यबल मंगाकर जैतपुर थाना स्थापित किया गया इससे अनेक विद्रोही मारे गये किन्तु देशपत लगातार संघर्षरत रहे । 6 अक्टूबर 1859 केा किशनगढ़ इलाके में लैफ्टीनेंट प्राइमरोज की सेना से देसपत का युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजों को हारना पड़ा । 23 अक्टूबर 1859 को प्राइमरोज ने फिर देसपत को घेरा जिसमें आठ क्रांतिकारी पकड़े गये लेकिन देसपत सुरक्षित रहे । इसी बीच ब्रिटिश सरकार ने देसपत को पकड़वाने वाले को 5000/- रुपये का इनाम घोषित कर रखा था और रीजेंट रानी छतरपुर ने पांच सौ रुपये व एक गांव भी पकड़वाने वाले को देने की घोषणा कर रखी थी । तथा पश्चिमोत्तर प्रान्त की सरकार ने भी देशपत को पकड़ने के लिए 1000/- रुपये का इनाम देने की घोषणा कर रखी थी । इन्हीं दिनों इग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया ने विद्रोहियों को समर्पण करने हेतु ’आम माफी’ की घोषणा की ।इस धोषणा पत्र को कई भाषा में अनुवाद कराकर क्रांतिकारियांे के शिविरों तक पहुॅचाया गया। ऐसा ही धोषणा पत्रदेशपत के पास पहुचाया गया बाम्बे स्टण्डर्ड नामक पत्र लिखता है कि जब देशपत अपने श्रीनगर (जैतपुर) के मुकाम पर ठहरा हुआ था तभी उसके पास घोषणा-पत्र पहंुचाया गया ्उस समय वह हुक्का पी रहा था। उसने उस घोषणा पत्र को अपनी चिलम में रखा और हुक्के को गुड़गुड़ाने लगा । चिलम से ज्वाला उठी और घोषणा पत्र चिलम की अग्नि मे स्वाहा हो गया ।’’ किन्तु इस वीर का अन्त धोखा से हुआ । चतुर्भुज जमादार तथा साथी फरजंद अली जमादार की सूचना पर 3 दिसम्बर 1862 को नौंगांव के पास मातौल गांव में मार दिया गया किन्तु किवदन्ती है कि दिमान देसपत के रसोइया को खरीद कर उनके भोजन में जहर मिलवाया गया था जिससे उनकी मौत हुई । दिमान देसपत की मौत का कारण कुछ भी बना हो लेकिन एक स्वाधीनता के दीवाने की शौर्य गाथा का अन्त हो गया जो बुन्देलखण्ड में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष को प्रेेरित कर गया ।
झांसी बना स्वतंत्रता संग्राम का अखाड़ा:-
प्रथम स्वातंत्र्य महायज्ञ में झांसी का उल्लेख तो राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है क्योंकि झांसी की भूमि ही तो स्वतंत्रता वीरों की रणभूमि में परिवर्तित हो गई थी । यहाँ अंग्रेजी शासन की दोगली व अपमानजनक नीति के कारण झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में आम जनता व सैनिकों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये थे । झॉंसी मंे मरहठा राज्य की समाप्ति के साथ ही राज्य के सैनिक व सिविल अधिकारी व कर्मचारियों को सेवानिवृत्त कर दिया गया था । उनमें से कुछ ने अंग्रेजों की सेवा ली थी । कैप्टन गार्डन बन्दोवस्त अधिकारी द्वारा राज्य में भूमि व्यवस्था जारी की गयी । इस व्यवस्था के आधार पर कई ठिकानेदारों को अपदस्थ किये जाने से करैरा क्षेत्र के उदगवॉ, नौनेर क्षेेत्र मेें विद्रोह भड़क उठा था जिसे तत्काल शान्त तो कर दिया गया परन्तु परिणिति 1857 की क्रांति एवं अंग्रेजों के कत्लेआम में फलित हुई थी । इसी बीच फिरोजशाह शहजादा (मुहम्मद शाह जफर का भतीजा) झॉसी के प्रवास पर आया वह झॉसी के प्रधान सेनापति दीवान जवाहर सिंह के भाई मझले शव की जंगल में स्थित गढ़ी जो सामारिक महत्व व सैन्य संचालन का केन्द्र थी, में कुछ दिनों रूका था । शहजादा ने अपने प्रवास के दौरान मुसलमानों को विद्रोह में मुसलमानों ने बढ़-चढ़कर भागीदारी की थी । समय जाने देर न लगी कि जून 1857 में विद्रोह हो गया । झॉसी में अंग्रेजों भयंकर कत्लेआम हुआ और अंग्रेजी सत्ता का अन्त हो गया । झॉसी पर मराठा राज्य की पुनर्स्थापना हो गई जो ओरछा राज्य को बर्दाश्त न हुई अैर 3 सितम्बर 1857 को झॉंसी पर सेनानायक नत्थे खॉं ने आक्रमण कर दिया जिसमें नत्थे खॉं को हार का सामना करना पड़ा तथा वह भागकर अंग्रेजो की शरण में जा पहुॅंचा । अंग्रेजी सेना ने सर हयूरोज सेनानायक के नायकत्व में झॉंसी पर पुनः आक्रमण कर दिया । जिस पर किले के गोलन्दाज गौश खान ने भयंकर गोले अंग्रेजी सेना के ऊपर बरसायें किन्तु देशद्रोही दूल्हा जू द्वारा किले का गुप्त द्वारा खोल दिए जाने से अंग्रेजी सेना का किले में प्रवेश हो गया और झॉंसी की रानी अपने सेनानायकों एवं अंगरक्षकों सहित दत्तक दामोदर की पीठ पर बॉधकर दोनो हाथों से अंग्रेजी सेना के सिर काटती हुई मार्ग बनाती कालपी की ओर घोड़े से निकल गई । वीर तात्या टोपे, वानपुर के राजा मर्दन सिंह ने रानी का साथ दिया । रानी भाण्डेर, कोंच होते हुई कालपी पहुॅची । यहॉ पेशवा की सेना ने रानी का साथ दिया । रानी इसके बाद ग्वालियर की ओर बढ़ी और अंग्रेजी से भिड़त हो गई जिसमें एक अंग्रेज सैनिक की पिस्तौल की गोली रानी की जॉघ में लगी, जब तक रानी संभलती दूसरे अंग्रेज सैनिक ने रानी के सिर का दाहिना भाग तलवार से काट दिया । रानी ने अंतिम सौस गंगादास की कुटिया में लेते हुए सेनानायक जवाहर सिंह को अपने गले का हार देकर संघर्ष जारी रखने को कहा । रानी की चिता की रक्षा रघुनाथ सिंह परमार तथा गौश खॉं ने फकीर के वेश में की । रामचंद्र देशमुख दत्तक दामोंदर को अज्ञात दिशा में ले गए । अंग्रेज सैनिक आते हुए जानकर रघुनाथ सिंह परमार साथियों की बंदूकें समेटकर उसी दिशा में अकेले मोर्चा लगा बैठा और यह अहसास कराया कि बुन्देलखण्ड के बहुत से सैनिक लड़ रहे हैं । इसी वीर बांकुरे ने वहीं अंतिम सांस ली । अंग्रेजी सेना ने कटीली उदगवॉ में वीरवर सेनानायक जवाहर सिंह की गढ़ी तोपों से उड़ा दी । रघुनाथ सिंह की गढ़ी खण्डहर कर दी । झडू यादव दतिया में रहे और जवाहर सिंह को सिकन्दरा नाके के पास नये निवास पर मोर्चा लगाकर अंग्रेजों ने गोली से उड़ा दिया । झॉसी, करैरा, सीपरी में अंग्रेजों ने छावनियॉ कायम कर दी और बुन्देलखण्ड को अंग्रेजी सेना ने रौंद डाला लेकिन बुन्देलखण्ड के वीर बॉंकुरो ने अंतिम सांस तक अपने शरीर के रक्त की एक-एक बूॅंद से स्वतंत्रता की बलिवेदी में आहुतियॉं देकर स्वतंत्रता की ज्वाला धधकांये रखी जिसका सुफल 15 अगस्त 1947 को हमें मिला ।
संदर्भ ग्रन्थ -
1. बुन्देलखण्ड का स्वतंत्रता संग्राम, सं.-दशरथ जैन
प्रकाशक-बुन्देलखण्ड केशरी छत्रसाल स्मारक पब्लिक ट्रस्ट,छतरपुर
2. मध्यप्रदेश के रण बॉंकुरे- डॉ सुरेश मिश्र व भगवान दास श्रीवास्तव
प्रकाश-स्वरल संस्थान संचालनालय, भोपाल
3. 1857 के पहले बुंदेलखण्ड में अंग्रेजो से संघर्ष- पं. हरगोविन्द तिवारी
प्रकाशक-राजकीय संग्रहालय, झॉंसी (उ.प्र.)
4. झॉंसी में क्रांति (1857-86) लेखक-वीर सिंह परमार
प्रकाशक-शाश्वत शिक्षा शोध संस्थान, रक्सा जिला झॉसी (उ.प्र.)
5. बुन्देली बसंत-सं.- डॉं. बहादुर सिंह परमार
प्रकाशक-बुन्देेली विकास संस्थान, बसारी, जिला-छतरपुर (म.प्र.)
एम.आई.जी.-7, न्यू हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी
जिला -छतरपुर म.प्र.-471001
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