बेजुबानों की जुबान हैं ग्रामीण जी
-डॉ. बहादुर सिंह परमार,ठेठ गँवईं अन्दाज और वेशभूषा मंे रहने वाले हमारे प्यारे देवीशरण ग्रामीण पचहत्तर वर्ष के होने जा रहे हैं । यह हम सब के लिए प्रसन्नता का विषय है । प्रसन्नता इस बात की है कि आम आदमी का सच्चा सिपाही व कलमकार बनकर ग्रामीणजी ने हम सबकों रास्ता दिखाया है । उनका सादगी भरा निश्छल जीवन गंगा के पानी जैसा पवित्र है । उनके सम्पर्क में जो आता है उन्हीं का हो जाता है । मैंने प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से कई विभूतियों और रचनाकारों का स्नेह प्राप्त किया है, उनमें अनेक राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के लेख कवि हैं किन्तु देवीशरण ग्रामीण जैसा स्नेह शायद ही किसी से मिला हो । उनके आचरण में वाणी का एक-एक शब्द साकार होता है । कहीं कोई झोल नहीं, कोई बनावटीपन नहीं । ऐसे अनमोल व्यक्तित्व के धनी ग्रामीणजी ने कविता, कहानी, लेख तथा समसामयिक टिप्पणियों के माध्यम से समाज के उन तमाम दबे-कुचले-बेजुबान लोगांे की आवाज उठाई है जो अपने पेट की क्षुधा बुझाने के चक्कर में कुछ नहीं कह पाते हैं । इनकी रचनाओं का मूल स्वर आम आदमी की बेहतरी, शोषकों के षड़यंत्रों को उजागर करना तथा जनतंत्रीय पद्धति से अन्याय को खत्म करना है । वे पूर्णतः वैज्ञानिक सोच के पक्षधर हैं, उनके प्रगतिशील जीवन मूल्य प्रत्येक रचना में दिखाई देते हैं ।
ग्रामीणजी ने देशबंधु सतना के लिए ’’गाँवा नामा’ लिखकर पूरे विंध्य क्षेत्र में हलचल मचा दी थी । कई पाठक केवल ’गाँवनामा’ को पढ़ने के लिए देशबंधु का इंतजार करते थे । बाबूजी यानि मायाराम सुरजन का एक स्पष्ट सोच था जनपक्षधरता का । उसी से प्रेरित होकर वे आँचलिक लेखकों से इस तरह के कालम लिखवाकर छापते थे और उनकी भावनाओं को समझते हुए समर्पित लेखक भी पूरी ईमानदारी से लिखते थे । अब ऐसे पत्रकारों व लेखकों की संख्या लगातार घट रही है । कालचक्र और भौतिकवादी सोच के प्रभाव से ’देशबंधु सतना का प्रभाव क्षरित हुआ है और अनेक जन चेतना से आपूरित लेखन करने वाले रचनाकारों को स्थान मिलना कठिन हो गया । आज तो पूँजीवाद व बाजारवाद को पुष्ट करने तथा मनोरंजन के नाम पर भौड़ा लिखने वालों को प्रोत्साहित किया जा रहा है । देशबंधु में प्रकाशित आलेखों केा संकलित करके ’गाँवनामा’ पुस्तक के रूप में गरिमा प्रकाशन इलाहाबाद ने मुद्रित किया है, जो देवीशरण ग्रामीण की रचनात्मक को केन्द्रीय रूप से प्रतिबिम्बित करते हैं । हिन्दी के शीर्षस्थ कवि श्री दूधनाथ सिंह ने ’गाँवनामा’ के बारे में लिखा है कि ’’ग्रामीण जी ने विंध्य क्षेत्र के गांँवों में प्रचलित कहावतों व मुहावरों का शीर्षक देकर आज के भारतीय ग्रामीण समाज में होने वाले परिवर्तनों और अन्तर्विरोधों का विकास, प्रगति-अगति, अवनति इत्यादि का अत्यन्त मार्मिक यथार्थपरक और सजीच चित्रण अपने इन निबंधों में किया है लेकिन उन्होंने अपनी प्रगतिशील दृष्टि को कहीं भी धूमिल नहीं होने दिया है ।”
’गाँवनामा’ के प्रत्येक निबंध में जनचेतना के स्वर तथा लोक की जनपक्षधरता में आस्था कूट-कूट भरी पड़ी है । वे इन आलेखों में जहाँ चौपालों की चर्चा को उठाते हैं वहीं अपनी बात इतनी चतुराई से कहते हैं कि पाठक प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है । ’आपन लिहेन दिहेन-चल दिहेन’ आलेख में ’गांँव को केन्द्र में रखकर बनाई जा रही योजनाओं की पोल खोलते हुए तथाकथित विकास की व्यवस्था के अंतर्विरोधों को उजागर करते हैं । वे इसी आलेख में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के शोषण भरी दूर दृष्टि को पहचान कर सचेत करते हुए कहते हैं कि “देखिए संसार की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी अब गांँवों की खोज में निकल पड़ी है, गाँव-गाँव में वे अपने कारखाने डलवाना चाहते हैं । गाँव के खेत-खेत को वे अपना बना लेना चाहती हैं । गाँव-गाँव के बच्चे-बच्चे को वे अपना धर्म सिखाना चाहती हैं, गाँवों मेें उनके प्रचारक अपने भिन्न भिन्न रूपों में पहुंच रहे हैं । अपनी सुधार-सेवाओं की दुहाई दे रहे है ।” ग्रामीण जी लोक की नब्ज को सूक्ष्मता से टटोलकर उसमें प्रगतिशील मूल्यों को रेखांकित करते है । वे गांव में निवास करते रहे हैं और उनका मन भी गांवों में ही रमता है वे इसीलिए अपना तखल्लुस ’ग्रामीण’ लिखने में गर्व का अनुभव करते हैं । वे नागरिक या शहरयार नहीं बनना चाहते हैं वे ठेठ गंवार कहलाने में अपने को गौरवान्वित महसूस करते हैं क्योंकि संस्कृति की तरल व सरल धारा तो गाँवों के जीवन में ही प्रवाहित होती है । शहरों का नगरों में तो सभ्यता की चमक, रुपये की दमक तथा चेहरों की गमक से पहचान होती है । देवी शरण जी ने गाँवों के खान-पान, तीज-त्योहार तथा रोजमर्रा की जिन्दगी के पलों में से उन चीजों को पकड़ा हौ जो शोषकीय व्यवस्था को पोषित करती हैं । वे एक निबंध में लिखते हैं कि होली पर्व पर दलितों व वंचितों के मोहल्लों में उच्च वर्ण के लोग कुण्ठाओं को तृप्त करने जाते हैं । वे कहते हैं कि ’’ गाँवों में लोग गरीबों के घरों पर होली मनाने जाते भी हैं तो वहाँ भी अपनी मनमानी कुण्ठाओं की तृप्ति ही करना चाहते है ।” जबकि गरीब त्यौहार पर बराबरी का दर्जा पाने की ललक में रहता है । इसी निबंध में वे निर्णय देते हुए अपना मत देते हैं कि ’’मनुष्य जाति के दिल में यदि मनुष्य होते हुए दूसरे मनुष्य के लिए समानता का स्थान नहीं है तो वहाँ आजादी या लोकतंत्र नहीं हे और न वहाँ का वह मानवीय समाज लोकतंत्रीय समाज माना जा सकता है।” समकालीन परिवेश में उपभोक्तावादी सोन ने बहुआयामी विस्तार पाया है । इससे समाज में नया संकट पैदा हो गया है । गांव के श्रमिकों व शोषितों को टेलीविजन के माध्यम से चमक दमक दिखाकर उनके भीतर लालच पैदा की जाती है, जिससे उनमें जुनून पैदा होता है, और यह जुनून पूँजीवाद को पुष्ट करता है । ग्रामीण जी ने स्थानीय कहावतों का बहुत खूबसूरती से प्रयोग करके उनके अर्थों को नए आयाम दिए हैं । वे पौराणिक व अन्य लोक कथाओं का सहारा लेकर लोगों की शोषकीय वृत्ति को प्रस्तुत करते हैं । “फुटहा चौरा फोड़ैं मा मजा भला केही नहीं आई” आलेख के माध्यम ग्रामीणजी ने राम से सम्बन्धित लोक कथा का उदाहरण देते हुए समाज की इस प्रवृत्ति पर चोट की है जिससे समाज बिगड़े को और बिगाड़ता है तथा बने को बनाता है । इस संस्कार को कुप्रवृत्ति कहकर इसे बदलने का आव्हान करते हुए लिखते हैं कि “वे बिगड़े को बिगाड़तें और सुधरे को ही सुधारते हैं । इनको सुधारने के लिए यद्यपि मनुष्य को ही ऐसे संस्कारों को पहले बदलना व सुधारना होगा, जिनसे मानवीय प्रवृत्ति बने कि बिगड़ी हालातों के प्रति उसमें दया, करुणा व सृजन की अनुरक्ति पैदा हो जाए ।”
भारतीय समाज में व्याप्त पाखंड, कुरीतियों तथा अंधविश्वासी प्रवृत्तियों पर ग्रामीणजी ने प्रहार किया है । ’जियत न परसे माँड मरे परोसे खाँड’ के माध्यम से क्वाँर महीने की पितृ पक्षों में पूर्वजों की श्राद्ध करने के नाम पर चलने वाले भोजों पर व्यंग्यात्मक शैली में समाज के दोहरेपन को उजागर किया है कि किस तरह से वृद्धों का जीवित रहने पर परिवारों में असम्मान किया जाता है ? जब वही वृद्ध मर जाते है’ तो समाज में अपनी इज्जत बढ़ाने की लिए लोग किस तरह से भोज आयोजित कर ब्राह्मणों को दान देते हैं । इसको बदलने आव्हान करते हुए वे कहते है। कि “इस सामाजिक परिपाटी को बदलना ही होगा वरना इससे कोई, एक दो लोग नहीं बिगड़ते सारा समाज ही अन्ध विश्वास के गड्ढों में गिरता रहेगा । ”वे समाज को जगाने का दायित्व बखूबी निभाते हैं । वे कर्म से शिक्षक रहे । उन्होंने शिक्षक के रूप में, रचनाकार के रूप मंे और सचेत नागरिक के रूप मंे समाज को जगाने का प्रयास किया है और लगातार कर रहे हैं । शिक्षकों को सही आचरण व मर्यादित जीवन जीने की वे सलाह देते हैं । वे छात्रों को मानवीय मूल्यों से आपूरित करने की शिक्षा देने के पक्षधर है, वे पैसों को छापने की मशीन युवाओं को नही बनाना चाहते है। लेकिन वर्तमान में शिक्षा व धर्म का गठजोड़ पहले लोक में रातोरात बड़ा आदमी बनने और उसके बाद परलोक सुधारने के नाम पर ढकोसला करने की प्रेरणा दे रहा है । पूँजीवादी समाज को पुष्ट करने के लिए बदल रहे जीवन व्यवहारों को ’गाँवनामा’ के अनेक आलेखों में जिक्र आया है । ग्रामीणजी पूँजीवाद की शक्ति को नष्ट करने की लिए मार्क्सवाद का अंधानुकरण करने की सलाह नहीं देते हैं । वे इसे लोकतंत्रीय पद्धति से जनचेतना के माध्यम से भारतीय तरीकों से लाने का मशविरा देते हैं । वे आम आदमी को उसके हकों के लिए जगाने की बात कहते हैं, वे दलितों और महिलाओं को बराबरी का हक देने की बात कहते है। उनका स्पष्ट मानना है कि जब तक वंचितों में अपने हक के लिए एकता का भाव नहीं होगा वे पराजित होते रहेंगे । ’सदभाव का संकट’ आलेख में ग्रामीणजी ने प्रतीकात्मक रूप से जंगल के प्राणियों के माध्यम से शेर, खरगोश, साँप तथा चींटियों की एकता की चर्चा की है । इनके आलेखों की भाषा सरल, सहज तथा लोक स्वभाव व व्यवहार से संपृक्त है जिससे न केवल प्रभावी है बल्कि पाठक को अन्दर तक झकझोरने में सक्षम है।
ग्रामीणजी द्वारा रचित ’गाँवनामा’ में जीवन की समस्याओं के साथ संघर्ष व द्वन्द्व को बड़े ही अच्छे अन्दाज में उठाया गया है । इनकी चिन्ता का विषय शोषित वर्ग ही है- इनमें किसान, स्त्रियाँ व दलित सर्वोपरि हैं । इन वर्गों की तथाकथित अंधभक्ति, पाखण्डी प्रवृत्ति तथा दोहरेपन की आदत की दुखतीरग को ग्रामीणजी ने छेड़ा है । इनके ये आलेख आम आदमी को जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करते हैं । ग्रामीण जी लम्बे समय तक अपनी लेखनी तथा करनी से समाज से अन्याय व शोषण की समाप्ति के लिए क्रियाशील रहें । हम सब उनके अनुचर बनकर कुछ करने का प्रयत्न करते रहेंगे । मेरी ओर से उन्हें जीवन के पचहत्तर वर्ष पूर्ण करने पर साधुवाद ।
सादर !
डॉ. बहादुर सिंह परमार
अध्यक्ष, प्रगतिशील लेखक संघ
छतरपुर (म.प्र.)
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