आज के संघर्ष में मददगार है- निराला साहित्य
- डॉ. बहादुरसिंह परमार
आज समाज में
जातिवाद, भ्रष्टाचार,
स्वार्थपरता,
अर्थलोलुपता तथा आपसी
ईर्ष्या द्वेष से गलाकाट वातावरण दृष्टव्य है । आज खानपान से लेकर बोलचाल तक हम पश्चिम
की अन्धी नकल करने में संलग्न हैं । इसका प्रमुख कारण आर्थिक उदारीकरण तथा भूमण्डलीकरण
को माना जा रहा है । उदारीकरण के नाम पर विदेशी पैसा ऋण के रूप में देश में आ रहा है
जिससे अमीर-गरीब के बीच की खाई और अधिक चौड़ी होती जा रही है । आज मानव मानव के बीच दूरी बढ़ती जा रहीं हैं । मानव
ही मानव शोषक बनकर सामने खड़ा है । इन विकट परिस्थितियों से संघर्ष करके मानवीयता को
बनाये रखना समस्त मानव समाज का कर्त्तव्य है । संतुलित संघर्ष मनुष्य को व्यक्तित्व
देता है । संतुलित संघर्ष हेतु साहित्य की श्रेष्ठ रचनायें अभिप्रेरित करती हैं । साहित्य
ही मनुष्य को भीतर से सुसंस्कृत करता है । साहित्यिक क्षेत्र में बड़ा रचनाकार वह माना
जाता है जिसकी रचनायें अपने समय को अतिक्रमित करके भविष्य में मनुष्य को मनुष्य बनाये
रखने में सहायक होती है । इस दृष्टि से तुलसी, कबीर तथा निराला हिन्दी के बडे़ रचनाकार
हैं । इनकी रचनाओं में सामाजिक यथार्थ तथा कल्पना के माध्यम से नए मूल्य-संसारों को
गढ़ा गया है । निराला की रचनायें आज की सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों
में पूर्णतः हमें दिशा प्रदान करतीं हैं ।
भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था
का महत्वपूर्ण स्थान रहा है परन्तु उसमें कालान्तर
मे जो विकृतियां आयीं उससे सामाजिक ढांचा चरमरा -सा गया है । आज वर्ण व्यस्था कर्म
आधारित न रहकर जन्म आधारित हो गई है । फलतः जातिगत ऊँच नीच भाव जन्मा । आज के जातीय
संघर्षों को विराम देने में निराला के ’प्रबन्ध प्रतिमा’ में व्यक्त किये गये यह विचार महत्वपूर्ण
हो सकते हैं । वह लिखते हैं-“अधिकार भोग पर मनुष्य मात्र का बराबर दावा है जो यह समझता है,
हम बड़े हैं,
हम छोटे न होंगे,
उसे मनुष्य कहलाने
में बड़ी देर है । जो यह समझता है बड़ा छोटा और छोटा बड़ा हो सकता है उसे यह मानने में
भी कोई आपत्ति न होगी कि शूद्र भी कर्मानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बन सकते हैं ।”1 वर्णाश्रम धर्म की वर्तमान
स्थिति पर निराला ने गहरा विचार मंथन करके अनेक बार जोर देकर कहा कि “भारत वर्ष की तमाम सामाजिक
शक्तियों का यह “एकीकरण -काल” शूद्रों और अन्त्यजों के उठने का प्रभात काल है । ...भारत वर्ष का यह युग शूद्र
शक्ति के उत्थान का युग है और देश का पुनरुद्धार उन्हीं के जागरण की प्रतीक्षा कर रहा
है ।“2 निराला “ब्राह्मण और क्षत्रियों की वर्णोच्चता
को सिर्फ ढोंग, मात्र रूढ़ि भारतीयता के अंधेरे में प्रकाश देखने की कोशिश से कुछ अधिक नहीं समझते
थे ।”3 उनके
अनुसार तो “हर मनुष्य में ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र भाव हैं, मात्रानुसार यहांँ तक कि आसुरी और
दिव्य भाव भी ” पर ये तर्क की बाते हैं । वास्तव में “शिक्षित-से-शिक्षित ब्राह्मण और कायस्थ दूध और पानी की
तरह नहीं मिल सकते । ब्राह्मण बनने का जादू सब पर चला हुआ है, यद्यपि पराधीन देश में तत्वतः
एक भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य नहीं- सब शूद्रों में ही इतर विशेष हैं ।”4 इस प्रकार निराला वर्ण को
कर्म आधारित स्थापित करने के पक्षधर है । वह मानते हैं कि श्रम विभाजन पर आधारित सामाजिक व्यवस्था का कोई रूढ़िगत अर्थ नहीं होना
चाहिए इसलिए उनका ’बिल्लेसुर बकरिहा’ का ब्राह्मण कलकत्ता जाकर छोटे-छोटे कार्य करता है और फिर गांव
वापस आकर वणिककर्म करके अच्छा गृहस्थ बन जाता है ।5 निराला ने न केवल रचनाओं में वर्ण
व्यवस्था को कर्म आधारित बनाने पर जोर दिया है अपने जीवन मंे भी उसे अपनाया । “जनेऊ हो जाने के बाद पतुरिया
के लड़कों के हाथ का पानी पीना जातिच्युत होने के लिए एक बड़ा सबूत था किन्तु निराला जी ने बिना किसी भय के खुले आम पानी
पीकर जातिगत रूढ़ि को तोड़ा और उसमें वीरता का अनुभव किया ।”6 अतः इस प्रकार निराला जी ने स्पष्टतः
जातिवादी वर्ण व्यवस्था का खण्डन करते हुए
इससे मुक्त होने का संदेश दिया है । समकालीन समाज में हिन्दू और मुस्लिम के बीच भेद
उत्पन्न करने की वोटों की गणितीय राजनीति की जा रही है, जिससे इन दोनों सम्प्रदायों के अनुयाइयों
में दिली दरारंे उत्पन्न हो रही हैं । “आजकल राजनैतिक अवसरवाद से प्रेरित हिन्दुत्व की एक व्याख्या
और भी की जाती है जो एक धर्म को दूसरे धर्म के विरोध में प्रस्तावित करती है,
जिसका कठमुल्लापन मनुष्य
को मनुष्य के विरुद्ध खड़ा करता है, आस्था के मामले में वर्ग भेद पैदा करता है, विवेक और तर्क की नहीं भावोद्वेलन की भाषा बोलता है और इस तरह भीड़ के मनोविज्ञान
का उपयोग करते हुए अंध श्रद्धालुओं के सोच पर हावी होकर उन्हें अपनी गिरफ्त मंे ले
लेता है और फिर इस समूह का राजनीतिक स्वार्थों और उपलब्धियों के लिए अपने पक्ष में
उपयोग करता है ।”7 इस तरह का मॉडल निराला का नहीं है । उन्होंने 1930 में ’हिन्दू’ या ’हिन्दवी’ शीर्षक से एक सम्पादकीय में लिखा
था । इसमंे उन्होंने ’हिन्दू’ शब्द के अतीत की ओर संकेत करते हुए स्पष्ट किया था कि यह शब्द “प्राचीन अनेक संस्कारो,
अनेक ऐतिहासिक,
राजनीतिक घृणाओं और
आपत्तियों से मिला हुआ दूसरों का दिया हुआ जातीय शब्द है ।”8 निरालाजी हिन्दुओं और मुसलमानों
को भाई-भाई भारत देश का निवासी मानते थे । वे ’सुधा’ जनवरी -33 की संपादकीय में लिखते है-”
हिन्दुओं की संकीर्णता
के कारण ही मुसलमान इस देश में संकीर्ण हो रहे है । यदि फारस में वे बढ़े-चढ़े विचारों
के हैं, रूस
में उनका चोला बदल गया है, टर्की में उनका कुछ और ही रूप हो रहा है , तो कोई कारण नहीं कि यहांँ
के मुसलमान भी हिन्दुओं के बढ़ते हुए विचारों और समाज-सुधारों को देखकर अपना सुधार न
करें ।” वे
मानते थे कि “हिन्दू और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों
के उत्कर्ष का पूर्ण रीति से ज्ञान कराया जाए । परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों
शरीक हों, दोनों एक दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें ।”9 इससे ही दोनों सम्प्रदायों के लोगों
में सौहार्द्र उत्पन्न किया जा सकता है । निराला की शिक्षा का यह सार तत्व है कि “समाज में ऊँच-नीच का भेद
मिटाकर, अंधविश्वास
और रूढ़ियों से मुक्त होकर व्यापक मानवतावाद की भूमि पर हिन्दू और मुसलमान अपनी राष्ट्रीय
एकता दृढ़ कर सकते हैं ।”10
जातिवाद और सम्प्रदायवाद
के अलावा आज देश में भाषावाद के नाम पर भी बड़ी समस्यायें खड़ी की जा रही हैं । संचार
माध्यमों के विस्तार से पश्चिमी प्रभाव अपने पैर फैला रहा है । अँंग्रेजी भाषा के बाहुल्य
के साथ अँग्रेजी मानसिकता बढ़ रही है । जिसे
नया भाषाई सामंतवाद कहा जा सकता है । निराला राष्ट्रीय एकता के लिए भाषा की एकता का
होना आवश्यक मानते थे । “निराला जवानी का एक ऐसा कवि है, जो राजनीति के लिए नहीं हिन्दी भाषा
के लिए हिन्दी के अभिमान के लिए , कर्म के आत्म-सम्मान के लिए, हिन्दी के आत्म-सम्मान के लिए अपने
समय के महान् व्यक्तियों से भिड़ते रहे ।”ं11 वह हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए गांधीजी से भिड़े नेहरूजी
से भिड़े । उनका राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को अपनाने का संघर्ष वास्तव में अंग्रेजी
के विरुद्ध समस्त भारतीय भाषाओं की अधिकार-प्राप्ति का संघर्ष था ।”12 आज हमें आजाद हुए पचास वर्ष
हो गये परन्तु भारतीय भाषाओं को अपना अधिकार हासिल नहीं हो पाया है । हमें अपने सांस्कृतिक
राष्ट्रीय विकास के लिए निराला के भाषाई संघर्ष को आत्मसात करने की परम आवश्यकता है
। आज वैयक्तिक स्वार्थों के कारण हम राष्ट्रीय व सामाजिक मुद्दों पर चुप्पी सी साधे
बैठे हैं । हमें निराला की तरह सत्य के लिए, राष्ट्रभाषा के लिए साहित्य के लिए
ईमानदारी के साथ विद्रोह करने भिड़ने और लड़ने की महत् आवश्यकता अपने व्यक्तिगत स्वार्थ,
व्यक्तिगत कल्याण,
व्यक्तिगत हित को तहे-ताक
रखकर है ।
आज उदारीकरण और वैश्वीकरण
के नाम से देश में पूँजीवाद को नंगानाच करने की छूट मिल रही है । इससे समाज में वर्ग-वैषम्य,
गरीबी, पीड़ा, घुटन, निराशा आदि प्रवृत्तियां
लगातार बढ़ रहीं हैं । पूँजीपतियों के निरन्तर शोषण के कारण समाज का शोषित वर्ग दुख,
स्वार्थ और छल का शिकार
हो रहा है । इस पूँजीवाद के विकट रूप से निराला ने वर्षों पहले आगाह करते हुए लिखा
था कि “पूँजीवाद
के सिंहासन पर शासक रावण जितने ही ऊँचे उठेंगे, दैन्य की लंगूर पूँछ की कुंडली पर
अंगद की तरह उतने ऊँचे पहुंचेगें ।”13 आज पूँजीवादी व्यवस्था के कारण ही अर्थलिप्सु मानव दोषों
का आगार बन बैठा है । अर्थ प्राप्ति की अन्ध भावना के कारण आज मनुष्य अन्धा बन गया
है ।
ंइससे मनुष्य के तन और मन में, उसकी कथनी और करनी में महान अन्तर आ गया है, जीवन में कृत्रिमता आ गई
है और मनुष्य बर्बर हो गया है । इस स्थिति
को निराला ने अंधकारपूर्ण स्थिति माना है -
“गहन है यह अंधकारा,
स्वार्थ के अवगुंठनों से
हुआ है लुष्ठन हमारा ।”14
इस अंधकारपूर्ण स्थिति से बचने के लिए हमें सजगता के
साथ बढ़ना होगा । आपाधापी भरी जिन्दगी से निजात के लिए ’प्रेम’ ही ऐसा भाव है, जो मानव मन को शांतिप्रदायक
हो सकता है । प्रेम की यह विशेषता है कि वह अपने रस से हमें सिक्त कर देता हैं,
और हम प्रेम-सागर में
डूबकर अपने को भूल जाते हैं । निराला नयनों के नयनों से खिंचन को सौभाग्य और प्रेम
की संज्ञा देते हैं । प्रेम की चरम परिणति के रूप में कवि कामना करता है -
“सकल चेतना मेरी होये लुप्त
और जग जाये पहली चाह।
लखूँ तुझे ही चकित-चतुर्दिक्
अपनापन मैं भूलँू ।”15
निराला प्रेम को आनन्ददायक अनुभूति और आत्मा का प्रकाश
मानते हैं । इन के साहित्य में प्रेम तुल्यानुराग की भूमि से प्रस्फुटित होता प्रतीत
होता है ।”16 तथापि इनके मन-मानस में प्रेमालम्बन के प्रति पूज्य भाव17 सदैव विद्यमान रहा । “निराला साहित्य में व्यक्ति
के मुक्त प्रेम की अभिव्यक्ति, उनकी कविताओं में ही नहीं वरन् उनकी कहानी और उपन्यास तक में
सामान्य रूप से मिलती है । उनके प्रारम्भिक दो उपन्यासों- ’अलक और ’अप्सरा’ में प्रेम की सुधारवादी प्रवृत्तियाँ
व्यक्त हुई है ।”18 इसी तरह के सुधारवादी, त्यागमय, पवित्र प्रेम की आज आवश्यकता है, जिससे मानव मन का चैन वापस आ सकता
है ।
आज राजनैतिक रूप से हम प्रजातंत्र में रहते हैं परन्तु
हमारे रहनुमाओं द्वारा वहीं अंँग्रेजों वाली ’फूट डालो राज करो’ तथा बरगलाकर शासन करने की
नीति अपनाई जा रही है । आज के राजनेता अपना मतलब गांँठकर तत्काल आँखें फेर लेते हैं
। “लेकिन फिर
भी उनका जाल ऐसा है कि लोग उसमें फंसते हैं । स्वार्थ के वशीभूत होने के कारण ही ऐसा
होता है । अतः ऐसे लोगों की वास्तविकता -चाटुकार वृत्ति और टुकड़खोर प्रवृत्ति भी जनता
को साफ-साफ समझनी चाहिए । ”19 निराला ने “राजे ने अपनी रखवाली की” में ऐसे चापलूसों और खुशामदियों को
सहीं चित्र खींचा है -
कितने ब्राह्मण आये
पोथियों में जनता को बांधे हुए
कवियों ने उसकी (राजाकी ) बहादुरी के गीत गाये
लेखकों ने लेख लिखे
ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे
नाट्य कलाकारों ने कितने नाटक रचे
रंगमंच पर खेले ।20
क्या आज कमोवेश यह स्थिति निर्मित नहीं हो गई है ?
हमें आज ऐसे चाटुकारों
और छद्म बुद्धि जीवियों को बेनकाब करने की प्रेरणा निराला से मिलती है । आज जनता को
राजनीति के कलंकित चेहरे से रूबरू कराने की आवश्यकता है ।
निराला की तरह नवीनता की स्थापना में आज अदम्य साहस अपेक्षित
है । परम्परा और रूढ़ि को तोड़ना नई सामाजिक संरचना के लिए अति आवश्यक है ।21 निराला जी ने सदैव साहस
और कर्त्तव्य शीलता का परिचय दिया है । उन्होंने सदैव जड़ता का विरोध और नूतनता का स्वागत
किया है । नई सामाजिक संरचना हेतु जीवन के सभी अंगों में व्याप्त पुरातनता की कारा
को तोड़ने नवीन आदर्शों से मण्डित पवित्र गंगा-जल धारा को प्रवाहित करने का निराला जी
का संदेश सदैव मानव जगत में ध्वनित होता रहेगा -
“तोड़ो, तोड़ो, तोड़ों कारा
पत्थर की, निकालो फिर
गंगा जल धारा ।”22
निष्कर्षतः निराला जी के साहित्य का आधार समानता का सिद्धान्त
है । समाज में वे मूल रूप से मानव की स्वतंत्रता, समानता और मौलिक चेतना के संस्थापक
थे । हम उनके साहित्य से आज क संघर्ष भरे माहौल में लगातार आगे संघर्ष करते रहने की
प्रेरणा पाते हैं । अतः आज के संघर्ष में मददगार है निराला का साहित्य ।
डॉ.बहादुर
सिंह परमार
सहायक
प्राध्यापक (हिन्दी विभाग)
शास.महाराजा
स्नातकोत्तर स्वशासी
महाविद्यालय
छतरपुर म.प्र. 471001
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