हिन्दी साहित्य में बुन्देली का योगदान
-डॉ. बहादुर सिंह परमार,
विन्ध्य पर्वत श्रृंखला से घिरा हुआ क्षेत्र प्राचीन युग में चेदि कहलाता था । महात्मा बुद्ध के समय में उत्तर भारत के सोलह जनपदों में चेदि की भी गणना थी । परवर्ती वैदिक काल में यह जनपद इन्द्र एवं अग्नि की पूजा का क्षेत्र था । महाभारत काल में चेदिराज शिशुपाल ने अच्छी प्रसिद्धि पाई थी । दस नदियों के जल प्रवाह के कारण यह क्षेत्र दशार्ण के नाम भी प्रसिद्ध हुआ । इसके पश्चात् यह भू-भाग जुझौति, जैजाक भुक्ति, जाजाहोति आदि नामों से प्रसिद्ध हुआ । जैजाक भुक्ति में चन्देलों का राज्य था । चंदेल वंश की स्थापना नवीं शताब्दी में नन्नुक ने बुन्देलखण्ड में की थी । उस समय उनकी राजधानी खजुराहो थी । नन्नुक के पौत्र जयशक्ति (जैजा) और विजय शक्ति महान् विजेता थे । इनके नाम पर ही इस प्रदेश का नाम जैजाक भुक्ति पड़ा ।1 चीनी यात्री ह्वेनसांग ने इस प्रदेश का नाम चिचिन्टो (जिंझौति) दिया है । अलबरूनी ने ’’जाजाहोति’’ नाम का उल्लेख किया है। ’जिझौति’, ’जुझौति’, ’जाजाहोति’ आदि नाम जैजाक भुक्ति के ही रूप हैं । इसका बुन्देलखण्ड नामकरण अपेक्षाकृत आधुनिक है । निश्चित रूप से यह नाम बुन्देलों की सत्ता स्थापित होने के बाद पड़ा । बुन्देलखण्ड नाम विन्ध्येल खण्ड का बिगड़ा हुआ रूप है । विंध्यवासिनी देवी की आराधना करने वाले गहरवार क्षत्रिय पंचम ने विन्ध्य श्रेणियों से घिरे हुए इस प्रदेश में राजसत्ता स्थापित करते हुए ’विन्ध्येला’ उपाधि धारण की । विंध्येला शब्द से ही ’बुन्देला’ नाम प्रचलित हुआ और वह क्षेत्र जहाँ बुन्देलों का शासन रहा बुन्देलखण्ड कहलाया । यमुदा, नर्मदा, चम्बल और टौंस नदियों से घिरा क्षेत्र ’बुन्देलखण्ड’ के नाम से जाना जाता है । इस अंँचल में बोली जाने वाली भाषा’बुन्देली’ कही जाती है । इसके क्षेत्र के सम्बन्ध में डॉ. श्यामसुन्दर दास लिखते हैं कि ’’यह बुन्देलखण्ड की भाषा है और बृजभाषा के क्षेत्र के दक्षिण में बोली जाती है । शुद्ध रूप में यह झांँसी, जालौन, हमीरपुर, ग्वालियर, भोपाल, ओरछा, सागर, नरसिंहपुर, सिवनी तथा होशंगाबाद में बोली जाती है । इसके कई मिश्रित रूप दतिया, पन्ना, चरखारी, दमोह, बालाघाट तथा छिन्दवाड़ा के कुछ भागों में पाये जाते है ।“2 इस तरह हम पाते हैं कि मध्य भारत में स्थित बुन्देलखण्ड अँचल में बोली जाने वाली भाषा बुन्देली का क्षेत्र काफी विस्तृत है । हिन्दी भाषा बोलियों व आँचलिक भाषाओं का एक समुच्चय है । हिन्दी के विकास मंें क्षेत्रीय भाषाओं का महत्वपूर्ण योगदान है । इसके विकास में जहाँ अवधी, ब्रज, मैथिली, भोजपुरी, राजस्थानी, गढ़वाली, बाँगरू आदि भाषाओं रचनाकारों ने योग किया है वहीं मालवी, बघेली, छत्तीसगढ़ी तथा बुन्देली के साहित्यकारों का भी महत्वपूर्ण अवदान है । बुन्देली में आदि काल से ही साहित्यिक रचनाओं का प्रणयन किया जाता रहा है हम सबसे पहले प्रारम्भिक काल को देखने पर पाते है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा अभिहित वीरगाथा काल में जगनिक बुन्देलखण्ड व बुन्देली का कवि है । इसके द्वारा ’आल्हा’ रचा गया है जिसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे जिन्होंने महोबे के दो देश प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल के वीर चरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था ।3 जिसकी प्रामणिकता पर प्रश्न चिन्ह उठे किन्तु विद्वानों ने इसका पाठालोचन करके प्रामाणिक सिद्ध किया है । डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त ने इस गाथा का प्रामाणिक पाठ प्रकाशित कराया है । वे उसकी प्रस्तावना में एक स्थान पर लिखते हैं कि “आल्हा गाथा की भाषा से बनाफरी उप बोली की सीमाओं के भीतरी स्थान का निवासी सिद्ध होता है । इतना निश्चित है कि जगनिक बारहवी शती के उत्तरार्द्ध में महोबा में निवास करता रहा है ।4 ’आल्हा’ को जगनिक कृत परमाल रासो का एक हिस्सा माना जाता है । बुन्देलखण्ड में रासो काव्य लिखने की एक सतत् परम्परा देखने को मिलती है । ’दलपत राव रासो (संवत् 1764 वि) रचनाकार जोगीदास भाण्डेरी में दतिया के राव शुभकरण व उनके पुत्रों के युद्धों का वर्णन है । ’शत्रुजीत रासो (सं. 1858 वि) रचनाकार किशुनेश भाट भी महत्वपूर्ण रचना है । श्रीधर कवि ने पारीछत रासो तथा आनन्द सिंह कुड़रा ने बाघट रासो की रचना की है । कल्याण सिंह कुड़रा ने ’झाँसी कौ रासो’ एवं कवि मदनेश का लक्ष्मीबाई रासो हिन्दी साहित्य की अमूल्य राष्ट्रीय भावधारा निधियां हैं ।
कवि विष्णुदास गोस्वामी (सन् 1435 ई) द्वारा रचित ग्रंथ-रुक्मिणी मंगल, महाभारत कथा, रामायनी कथा, स्वर्गारोहण कथा तथा मकरध्वज कथा महत्वपूर्ण हैं । इनका काल कबीरदास से पूर्व ठहरता है । मध्यकाल में ओरछा महत्वपूर्ण कला केन्द्र के रूप मे विकसित हो चुका था । यहाँ महाकवि केशव के पितामह कृष्ण दत्त मिश्र स्वयं एक अच्छे कवि थे । महाराज मधुकर शाह महान भक्त कवि व योद्धा के रूप में ख्यात रहे इनके समकालीन कवि हरिराम जी व्यास हुए हैं । इन्होंने रास पंचाध्यायी तथा साखी पद लिखे हैं । ये मानवतावादी विचारधारा के मानने वाले प्रगतिशील कवि थे । कवि केशवदास तो हिन्दी साहित्य में आचार्य व पंाडित्य परम्परा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं ही । इन्होंने रसिक प्रिया, कवि प्रिया, रामचन्द्रिका, रतन बाबनी, विज्ञान गीता, जहाँगीर जस चन्द्रिका तथा वीरसिंह चरित जैसी रचनाओं का प्रणयन किया है । केशव काल के अन्य कवियों में बलभद्र मिश्र, गोविन्द स्वामी, हरीराम शुक्ल, आसकरन दास, महाराजा इन्द्रजीत सिंह, कल्याण मिश्र, गदाधर भट्ट, सुन्दर, खेमदास, रतनेश, प्रवीणराय, केशव पुत्रवधु आदि हैं ।5 इनके साथ मनसा राम सिद्ध, गुलाब, खेमराज, कृपाराम, रामशाह, पतिराम, परमेश, सुबंश राय तथा बलभद्र कायस्थ के नाम भी उल्लेखनीय है । पन्ना दरबार के कवियों में प्राणनाथ ऐसे कवि हैं जिनकी ख्याति प्रणामी सम्प्रदाय के स्थापक के रूप में अधिक हैं । उन्होंने 14 ग्रन्थों का प्रणयन किया जिनमें कीर्तन, कयामतनामा, पदावली, प्रगटवाणी, ब्रह्मवाणी, राजविनोद आदि प्रमुख है । इनके अतिरिक्त मण्डन मिश्र, रामजू तथा मेघराज प्रधान का बुन्देली साहित्य में अविस्मरणीय योगदान हैं ।
महाराज छत्रसाल बुन्देलखण्ड के ही नहीं मध्यकाल में पूरे उत्तरभारत के महानायक के रूप में उभरे जिन्होंने विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध संघर्ष करके लोगों को प्रेरित किया । वे स्वयं में अच्छे कवि भी थे । उनके आश्रय के कविकुल समूह संरक्षण पाता था । इनमें गोरेलाल का नाम उल्लेखनीय है, जो लाल कवि के नाम से विख्यात हैं । लालकवि के प्रमुख ग्रन्थों में छत्रप्रकाश, छत्र प्रशस्ति, छत्रछाया, छत्रकीर्ति, छत्रछंद, छत्रसाल-शतक, विष्णु विलास तथा राजविनोद आदि प्रमुख हैं । इनके समकालीन अन्य कवियों में देवीदास (प्रेेमरत्नाकर, राजनीति, दामोदर लीला) अक्षर अनन्य (अनन्य प्रकाश योग, ज्ञान पचासा), सुखदेव (अध्यात्म प्रकाश), कोविद मिश्र (भाषा हितोपदेस, राजभूषण), हरि सेवक मिश्र (कामरूप कला महाकाव्य), वंशीधर, चरणदास, श्रीपति, नेवाज, कृष्ण कवि, कारे कवि, शिवनाथ, गुमान मिश्र तथा विक्रमाजीत सिंह आदि प्रमुख हैं । इसी काल में बोधा कवि भी हुए हैं जिन्होंने ’विरहवारीश’ की रचना की हैं जिन्होंने मेहराज चरित्र, विरह विलास, सनेह सगार, श्रीकृष्ण जू की पाती, गेंदलीला, बनजारे, बारहमासा तथा तेरामासी जैसी रचनायें रचकर हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया । बुन्देलखण्ड अँचल के चरखारी में जन्मे प्रताप साहि का योगदान हिन्दी को महत्वपूर्ण है । इन्होंने व्यंग्यार्थ कौमुदी, काव्य विलास, श्रृंगार मंजरी, काव्य विनोद, श्रृंगार शिरोमणि, रत्नचन्द्रिका, जुगल नखशिख जैसी रचनाओं को लिखा।6
कवि पद्माकर का नाता बुन्देलखण्ड से सीधा रहा है । वे सागर में रहे और वहीं साहित्य सर्जना की । उन्होंने जगत विनोद, प्रबोध प्रचासा, राम रसायन, हिम्मत बहादुर विरुदावली तथा पद्माभरण जैसे काव्य ग्रंथ रचे । इनके समकालीन अन्य कवियों में खुमान ककिव (सं. 1830 विक्रम कृतियां हनुमान पंचक, हनुमान पचीसी) ठाकुर, 1823 वि.ओरछा, (कृतियां ठाकुर ठसक एवं स्फुट रचनायें ) कालीराम कवि (सं.1856 वि.स्फुट रचनायें ) बैताल कवि (1834) मान कवि (सं. 1840 कृतियां-रामचन्द्रिका, नृसिंह चरित्र) दामोदर देव (सं.1840 कृतियां-रस सरोज, बलभद्र शतक, बलभद्र शतक, बलभद्र पचीसी, ध्यान मंजूषा आदि ) नवल सिंह कायस्थ झांसी, (सं. 1850, कृतियां रास पंचाध्यायी, रामायण कोश, आल्हा रामायण, आल्हा भारत आदि प्रमुख ) नरेश, ओरछा (सं.1860, कृतियां झांसी की बाई ) अम्बाप्रसाद अम्बुज (सं.1860, कृतियां छंद मंजरी, अलंकार चन्द्रोदय) गिरिधर, पजनेस (पन्ना दरबार में सं.1872, पजनेस प्रकाश कृति अधिक प्रसिद्ध है।) गदाधर भट्ट (पùाकर जी के पौत्र थे, सं. 1857, कृतियाँ- अलंकार चन्द्रोदय, गदाधर भट्ट की वानी, कैसर सभा विनोद आदि ) हृदेश, सरदार कवि, नारायण कवि सं. 1890 कृतियाँ षट ऋतु वर्णन, नायिका-भेद, वर्णन, गंगाजी का वर्णन) मथुरादास लंकेश (सं. 1895, कालपी, कृतियांँ-रावण दिग्विजय, रावण वृन्दावन यात्रा, रावण शिव स्वरोदय, दोहावली ) गंगाधर-व्यास (सं.1899, छतरपुर, कृतियां नीति मंजरी, विश्वनाथ पताका, व्यंगपचासा गोमहात्म्य, भरथरी ) आदि ने इस काल को सुशोभित किया ।7
आधुनिक काल में भारतवर्ष पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया था और उन्होंने भारतीय समाज, साहित्य, संस्कृति और सभ्यता को नष्ट भ्रष्ट करने का लक्ष्य बना लिया था । जनसमाज में असन्तोष व्याप गया था परन्तु अभी तक नई चेतना का नेतृत्व ठीक तौर पर नहीं हो पाया । कतिपय कवियों ने अपनी पुरानी परम्परा को ही निभाया, अन्य जो राष्ट्र प्रेम और नई चेतना से समन्वित थे उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में सहायता दी । इस समय का अधिकांश साहित्य अनुपलब्ध है । लोक साहित्य अवश्य ही मौखिक परंपरा से हस्तांतरित होता रहा । इस काल के प्रमुख कवियों में भवानी प्रसाद रिछारिया (भक्ति-विषयक रचनायें) रसिकेश (पन्ना सं. 1901, कृतियां राम-रसायन, काव्य सुधाकर, इश्क अजायब, ऋतु तरंग, विरह दिवाकर आदि) हिरदेस (झांसी, कृतियाँ श्रृंगार नौ रस, सं. 1925 कविता काल ) नृसिंह दास ( छत्रपुर, कविता काल सं. 1926, कृतियां-संतनाम मुक्तवली ) नैसुक, राधालाल जी गोस्वामी, बलदेव प्रसाद (खटवारा, बाँदा, कृतियाँ-रामायण राम सागर, भरतकल्पदु्रम आदि सं. 1926 से 44 तक ) युगल प्रसाद, अड़कू लाल वैद्य गरीबदास गोस्वामी, मन्नू कवि पंचम, परमानन्द (माधव विलास के रचयिता) डॉक्टर भवानी प्रसाद (भगवन्त प्रेमावली, गंगा मनोहारी आदि ग्रन्थ, सं.1946) जनकेस, कान्ह, दुरगाप्रसाद, चतुरेस (सँ. 1968 कविता काल ) लाख, ऐनानन्द (1920-40 कृति-सिद्धान्तसार) लाला भगवानदीन, मदन-मोहन द्विवेदी (लक्ष्मीबाई रासौ, सँ. 1950) महत्वपूर्ण हैं ।
लोक साहित्य में फाग साहित्य के रचयिताओं में गंगाधर व्यास, ख्याली राम और ईसुरी के बिना लोक साहित्य का मूल्यांकन अधूरा होगा । इनके सिवा परशुराम पटैरया, तांतीलाल देवपुरिया, लाला विन्द्रावन, खूबचन्द्र रमेश, पùसिंह मातादीन दीक्षित, महारानी रूप-कुंवर घनश्यामदास पांडेय (सं.1943-2010) मूलचन्द, नन्दीराम शर्मा रावत, श्री माहौर जी, लाला रामनाथ के नाम उल्लेखनीय है । अत्याधुनिक काल में पँ. गौरीशंकर शर्मा(गढ़ाकोटा) सुखराम चौबे गुणाकर, (रहली, गौरी शँकर पंडा(सागर) राम लाल बरोनिया, द्विजदीन (सागर) बालमुकुन्द कन्हैया द्विज (सागर) का कृतित्व बुन्देली के साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं । आज बुन्देली भाषा को माध्यम बनाकर गुणसागर सत्यार्थी, लोकन्द्र सिंह नागर, महेश कुमार मिश्र, अवधेश, दुर्गेश दीक्षित, माधव शुक्ल मनोज, हरगोविन्द त्रिपाठी ’पुष्प’, डॉ. अवधकिशोर जड़िया, कन्हैया लाल वर्मा ’बिन्दु’, कुंजीलाल पटेल ’मनोहर’ जगदीश रावत जैसे रचनाकार जन भावनाओं को काव्य में प्रकट कर हिन्दी साहित्य की सेवा कर रहे हैं ।
यहाँ पर उपर्युक्त विवेचन में संक्षिप्त रूप से हिन्दी साहित्य को बुन्देली योगदान की चर्चा की गई है । आज नये जीवन मूल्यों से आपूरित होकर पूरे आँचल में रचनाकर साहित्य साधना मंे लीन होकर समाज को दिशा दर्शन करा रहे हैं ।
संदर्भ संकेत-
1. हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास प्रथम भाग-राजबली पाण्डेय,
प्रकाशक- नागरी प्रचारिणी सभा काशी सं. 2014 वि.पृ.61
2. भाषा विज्ञान-डॉ. श्यामसुन्दर दास, नवम् संस्करण सं. 2034 वि. लीडर प्रेस प्रयाग, पृ. 91
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बत्तीसवाँ संस्करण,
नागरी प्रचारिणी सभा काशी, सं. 205 प्रति पृ. 29
4. चंदेलकालीन लोक महाकाव्य आल्हाः प्रामाणिक पाठ, डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त,
प्रकाशक- म.प्र.आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल 2001 ई. पृ.1
5. बुन्देली काव्य परम्परा (प्राचीन) डॉ. बलभद्र तिवारी,
प्रकाशक- बुन्देली पीठ, डॉ. हरीसिंहगौर विश्वविद्यालय सागर पृ. 149
6. हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बत्तीसवाँ संस्करण,
नागरी प्रचारिणी सभा काशी, सं. 205 प्रति पृ. 149
7. बुन्देली काव्य परम्परा (प्राचीन) डॉ. बलभद्र तिवारी,
प्रकाशक- बुन्देली पीठ, डॉ. हरीसिंहगौर विश्वविद्यालय सागर पृ. 159
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