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Saturday 8 June 2013

हिन्दी में दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र

हिन्दी में दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र 
- डॉ. बहादुर सिंह परमार
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था सैकड़ों वर्षों से कायम है । इससे जड़ता आई, विसंगतियाँ पैदा हुई और समाज के एक बहुत बड़े तबके को जाति के आधार पर शोषित बना लिया गया जबकि सच्चे अर्थों में यही वर्ग उत्पादक रहा है । समय बदला, शिक्षा के कारण नई चेतना आई लोगों में अपने हकों के प्रति जाग्रति आई और वे उन्हें पाने के लिए जद्दोजेहद करने लगे । वर्ण -व्यवस्था में जिन्हें ’शूद्र’ की संज्ञा दी गइ्र वे गाँधीयुग में ’हरिजन’ बने और अब नया शब्द ’दलित’ आया । दलित वर्ग के दुख दर्दो। को अभिव्यक्ति देने हेतु साहित्य में रचनाएंे आई जिन्हें ’दलित साहित्य’ की श्रेणी में रखा जाने लगा । दलित साहित्य की चर्चा विगत कुछ वर्षों में हिन्दी जगत में जोर शेर से हो रही है । इसके पहले मराठी में दलित साहित्य अपनी पहचान कायम कर अपने को स्थापित कर चुका है । यहां एक प्रश्न उठता है कि हिन्दी की तुलना में मराठी में दलित लेखन पहले क्यों आया ? इस सवाल का जबाब जब हम तलाशते हैं तो पाते हैं कि महाराष्ट्र की सामाजिक परिस्थितियाँ हिन्दी भाषी क्षेत्र की सामाजिक परिस्थितियों से भिन्न रहीं हैं । महाराष्ट्र में छुआछूत बहुत जबर्दस्त रूप से कायम रही तथा सवर्णों में श्रेष्टता का भाव कूट कूट कर भरा रहा जिसे वह प्रदर्शित भी करते रहे किन्तु भाषी क्षेत्र के अंचलों में उच्च वर्णीय लोगों ने दलित वर्ग के प्रति सहानुभूति रखी है । उदाहरण के लिए बुन्देलखण्ड अंचल के दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में अछूत जातियों (दलित वर्ग )के प्रति छुआछूत का भाव तो होता है किन्तु उन्हें ’ सबोधन के स्तर पर चाचा, चाची, भाई, बहिन आदि से संबोधित किया जाता है । दूसरा इनके रिश्तेदारों को भी गांव का मेहमान माना जाता है । इसमें हो सकता है कि यह छद्म सहानुभूति भी शोषण को कायम रखने के लिए हो। इसी के साथ दूसरा कारण हिन्दी क्षेत्र में शिक्षा का प्रसाद देर से होना तथा मराठी क्षेत्र में बाबा भीमराव अम्बेडकर का प्रादुर्भाव होना भी है । बाबा भीमराव ने मराठी क्षेत्र में दलित वर्ग मेें जो चेतना जगाई, वह अतुलनीय व वंदनीय है । हिन्दी भाषाी क्षेत्र में अशिक्षा के कारण भाग्यवादिता व समझौता परस्ती ज्यादा पाई जाती है जिससे वह मराठी की तुलना में दलित चेतना में पिछड़ गया । खैर हिन्दी क्षेत्र में दलित चेतना के स्वर नौवें दशक में सुनाई देते हैं जब 1980 में दया पॅवार को साहित्य अकादमी पुरस्कार आत्मकथा ’बलूत’ प्राप्त होता है । इसका हिन्दी में अनुवाद ’अछूत’ के नाम से छपता है । जिसके बाद 1981 में ग्वालियर में इस विषय पर केन्द्रित गोष्ठी का आयोजन होता है । तदन्तर दलित साहित्य पर चर्चा तो चलती रहती किन्तु 1992 के बाद इसका विस्तार तेजी से होता है अगस्त 1992 में ’हंस’ के तत्वावधान में दिल्ली में दलित साहित्य पर केन्द्रित गोष्ठी में मूल स्वर दलित साहित्य के प्रति आश्वस्ति का नहीं लेकिन उसमें एक बात स्पष्ट थी कि हिन्दी में दलित साहित्य का प्रवेश शुरू वहो गया है । जून 1993 में शिवपुरी में ’दलित कलम’ के नाम से दलित साहित्य पर केन्द्रित एक वृहद आयोजन मप्र प्रलेसं द्वारा होता है जिसमें मराठी के चोटी के दलित लेखक भागदीारी करते हैं । इस आयोजन में हिन्दी के सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने कहा था कि “शिवपुरी में यह दलित कलम रोपी जा रही है । हिन्दी के लिए शीघ्र ही महावृक्ष हो जायेगी ।1 और वास्तव में इस कलम से अच्छा वृक्ष विकसित हुआ । आज हिन्दी क्षेत्र में दलित साहित्य के लेखकों की अच्छी जमात हो गई है ।
हिन्दी क्षेत्र में यह काफी समय तक बहस होती रही कि दलित साहित्य किसे माना जाए । इसमें एक वर्ग वह था जो जोर देता था कि दलित के द्वारा लिखा गया है । साहित्य दलित साहित्य हो सकता है तथा दूसरा वर्ग मानता था कि नहीं गैर दलित द्वारा दलितों के हित में लिखा गया साहित्य भी दलित साहित्य हो सकता है । लम्बी बहसों के उपरान्त अब यह माना जाने लगा है कि दलित ही दलित की पीड़ा को भोगा हुआ आयातित अनुभूति से सहानुभूति भरा साहित्य ही लख सकता है । इसको परिभाषित करने हेतु कई विचारकों ने मत व्यक्त किए । डा. शरण कुमार लिम्बाले दलित के बारे में कहते है। कि ’’दलित केवल-हरिजन और नव बौद्ध नहीं । गांव की सीमा के बाहर रहने वाली सभी अछूत जातियाँ, आदिवासी, भूमिहीन खेत मजदूर, श्रमिक, कष्टकारी जनता और यायावर जातियां सभी की सभी ’दलित’ शब्द से व्याख्याथित होती है ।”2 इसी पर विचार करते हुए बाबूराव बागुल कहते हैं कि ’’दलित साहित्य वह लेखन है, जो वर्ण-व्यवस्था के विरोध में और उसके विपरीत मूल्यों के लिए संघर्षरत मनुष्य से प्रतिबद्ध है ।  वर्ण व्यवस्था अर्थात् द्वेष, शत्रुता, मत्सर, तिरस्कार की युद्ध भावना । इसके विपरीत मूल्य अर्थात प्रेम, बंधुत्व, समता, भ्रातृभावपूर्ण शांन्ति और समृद्धि । दलित शब्द से अनेक प्रकार का बोध होता है, जैसे -दुख बोध, अपमान-बोध, दैन्य-दासत्व बोध जाति-वर्ग बोध, विश्व बंधुत्व बोध, और क्रांति-बोध।”3 इस तरह कहा जा सकता है कि दलितों के  दुख दर्दों, परेशानियों, गुलामी, अधोगति तथा उपहास के साथ ही दरिद्रता का चित्रण करने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है । दलित साहित्य, समाज में अन्याय, शोषण, अत्याचार आदि से पिसते दलित वर्ग में एक नयी चेतना भरता है, उन्हंे उनके अधिकारों के प्रति संघर्ष   करने की प्रेरणा देता है । दलित साहित्य दलितों को यह याद कराने का प्रयास करता है कि उसने जो संघर्ष किया है, कर रहा है वह अपने पूरे वर्ग को शोषण, अत्याचार एवं अन्याय से मुक्ति का संघर्ष हैं ।4 दलित साहित्य को परिभाषित करते हुए  श्री एस.एल. विरदी कहते हैं कि “दलित साहित्य कला के लिए कला के विरुद्ध, सनातन रूढ़ियों के विरुद्ध तथा परम्परा व जातिवाद के विरुद्ध है ।”  जबकि ओमप्रकाश बाल्मीकि इसे समाज में फैले आर्थिक शोषण के विरुद्ध एवं सशक्त क्रांति मानते हैं । डॉ. धर्मवीर इसे “दलितों द्वारा, दलितों के लिए, दलितों का साहित्य ’’ स्वीकार करते हैं । इस तरह देखा जाए तो दलित साहित्य के बारे में अलग-अलग विद्वानों के अलग-अलग मत हैं किन्तु सभी के केन्द्र में वर्ण वाद व जातिवाद का विरोध, परम्परागत रूढ़ियों-आडम्बरों का प्रतिकार तथा मानव मूल्यों पर आधारित व्यवस्था को स्थापित करने का मूल भाव है ।
हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में दलित लेखन पर दृष्टि डालें तो स्पष्ट रूप से कबीर, रैदास के पहले नाथों व सिद्धों के साहित्य में वर्ण, जाति व्यवस्था पर प्रहार करने वाला साहित्य मिलता है किन्तु जिस शिद्दत के साथ कबीर ने समाज में व्याप्त पाखण्डों को उखाड़ा, वह बेमिसाल है । रैदास ने भी अपने ढंग से दलितों की पीड़ा को मुखरित किया है । नवजागरण काल में हिन्दी क्षेत्र में कई लेखक हुए हैं जिन्होंने दलितों के दुख दर्द को लिखा । उनमें राधा मोहन गोकुल जी का नाम महत्वपूर्ण है । उनका उस समय यह लिखना कि “गोस्वामी तुलसीदास अच्छे कवि होते हुए भी रामायण में जिस अंध विश्वास और पुरोहित कैतब को दृढ़ करना चाहते हैं, उसके लिए हम उनका साथ नहीं दे सकते । हमकों तो जरूर उनके विरुद्ध बगावत का ही झंडा उठाना चाहिए ।‘‘5  इनके अतिरिक्त रामनारायण यादवेन्दु आदि अनेक रचनाकार दलित चेतना से अपूरित रचनाएॅं लिख समाज का दिशा दर्शन करते रहे । इसके बाद विगत दो दशकों से हिन्दी क्षेत्र में दलित लेखकों का एक पूरा दस्ता से तैयार हो गया है । जिनमें बिहारीलाल हरित, मोहनदास नैमिशराय, कंवल भारती, डॉ.सोहन पाल सुमनाक्षर, डॉ. सुखबीर सिंह, डॉ.धर्मवीर, ओमप्रकाश बाल्मीकि, डॉ.एम.सिंह, डॉ.कुसुमलता मेघवाल, एन.आर.सागर, डॉ. पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी, लालचन्द्र राही, जयप्रकाश कर्दम, डॉ. दयानन्द बटोही, डॉ.श्यौराज सिंह ’बेचैन’, लक्ष्मी नारायण सुधाकर, डॉ. कुसुम वियोगी, विपिन बिहारी, सूरजपाल चौहान, हरिकिशन संतोषी व सुशीला टाकभौरे आदि के नाम आते हैं । उक्त सभी रचनाकार अपने नये तेवरों के साथ सतत् सर्जनत हैं ।
दलित साहित्य के सौन्दर्य शास्त्र पर जब हम चिन्तन करते हैं तो पाते हैं, यह साहित्य वेदना व नकार से जन्मा है । दलितों को हजारों वर्षों तक वर्णव्यवस्था के नाम पर दबाया जाता रहा है । उन्हे अशिक्षित रखा गया है । इसलिए दलित साहित्य में मुखरित अनुभव अभी तक किसी अन्य साहित्य में अभिव्यक्त नहीं हुए है। अतः दलितों ने जो भोगा उसे ही लिखा है । इस लेखन में अभाव, भेदभाव, पीड़ा, आक्रोश, तथा विरोध के स्वर स्पष्ट दिखाई देते हैं । इस साहित्य की समीक्षा भारतीय शास्त्रीय परम्परा के निकषों पर करना पूरी तरह बेईमानी होगा । दलितों की पीड़ा को वाणी देने वाले साहित्य को सौन्दर्यशास्त्र की नई दृष्टि से देखना होगा । सौन्दर्यशास्त्र की परिधि में मुख्यतः चार प्रमुख कला तत्वों का योगदान है - सौन्दर्य, कल्पना, बिम्ब तथा प्रतीक । दलित साहित्य की आलोचना नवीन सौन्दर्य दृष्टि से ही की जा सकती है । सौन्दर्य क्या है ? इस पर मार्टिन, बैलेण्टाइन तथा मिल्टन एच.वर्ड ने उल्लेखनीय विचार व्यक्त किए हैं । उनके विचारों के आधार पर कहा जा  सकता है कि सौन्दर्य का अपने आपमें कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता है । सौन्दर्य का सत्य, शिव और नैतिकता से कोई अनिवार्य अथवा ऋजु सम्बन्ध नहीं रहता है । यह भी जरूरी नहीं है कि सुन्दर सर्वदा सत्य हो, प्राकृतिक हो अथवा प्रकृति का अनुकरण हों । कोई भी रूप सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा निश्चितरूपेण ’सुन्दरतम’ नहीं कहा जा सकता, कारण यह आवश्यक नहीं है कि कोई एक वस्तु सबको सुन्दर प्रतीत हो । सन्तुलन सौन्दर्य का महत्वपूर्ण तत्व है किन्तु सौन्दर्य की सृष्टि सन्तुलन के बिना भी सम्भव है । संगति (हार्मनी) सौन्दर्य के लिए वांछनीय है, आवश्यक है किन्तु कौन सी वस्तु संगतिपूर्ण है यह निर्णय व्यक्तिगत रुचि की बात है।7 सुन्दर असुन्दर का निर्णय अथवा सौन्दर्य भावना व्यक्ति की अलग अलग हो सकती है । अतः जो दलितांे के लिए सुन्दर  है वह गैर दलितों का असुन्दर है क्योंकि दलित शोषित है और गैर दलित शोषक । इस दृष्टिकोंण से हम जब दलित साहित्य को विवेचित करें तो हमें दलित साहित्य में मनुष्यता की स्थापना को सौन्दर्य मानना होगा । जब दलित लेखक भेदभाव की नीति को उघाड़ता है तो समाज का वह तबका जो इस भेदभाव का पोषक रहा है, इसे साहित्य न मानने के कुचक्र को रचने हेतु शास्त्रीय तर्कों पर सत्यं, शिवं, सुन्दरं की व्याख्या लेकर बैठ जाते हैं । इस मामले में डॉ.शरण कुमार लिम्बाले से सहमत हुआ जा सकता है कि “सत्यं शिवं और सुन्दरं भेदभाव की कल्पनाएं हैं- जिसके आधार पर आम आदमी का शोषण हुआ है । दरअसल सत्यं, शिवं और सुन्दरम की धारणा तो सवर्ण समाज के स्वार्थ-साधना के लिए रची गई साजिश है । ..... विश्व में मनुष्य जैसी ’सत्य और सुन्दर’ दूसरी कोई चीज नहीं है । इसीलिए तो मनुष्य की समता, स्वतंत्रता, न्याय और बन्धुत्व की चर्चा होनी आवश्यक है ।8 इसी सौन्दर्य दृष्टि पर दलित साहित्य को परखा जाना चाहिए ।
जिस प्रकार कल्पना का धनी किन्तु बुद्धि का दरिद्र कलाकार प्रथम पंक्ति का अधिकारी नहीं हो सकता, उसी तरह बुद्धि का समृद्ध किन्तु कल्पना का अकिंचन भी प्रथम कोटि में गण्य नहीं बन सकता । इसीलिए जिस युग में कल्पना और बुद्धि का समन्वय रहता है, उसी में महान् कलाकार पैदा करने की क्षमता रहती है । कल्पना में अदृश्य को दृश्य बनाने की एक अद्भुत शक्ति रहती है । कला में कल्पना के विनियोग से अप्रस्तुतों तथा नूतन वस्तु व्यापार विधानों का निर्माण होता है । जॉन सी. इक्लेस की मान्यता है कि रचनात्मक कल्पना मानसिक अनुभूतियों की वह सर्वोपरि सतह है, जो ऐन्द्रिय अनुभूति, मानसिक बिम्ब, स्मृति और मनोविभ्रम की अनेक निम्नवर्त्तिनी सतहों पर निर्भर रहती है । अतः मस्तिष्क की  क्रिया से सम्बद्ध होने के कारण कल्पना का अनिवार्य सम्बन्ध प्रमस्तिष्क बाह्यक (सेरेब्रल कोर्टेक्स) के साथ रहता है।9 जिससे रचनाकार की कल्पना उसके अनुभवों से गंुफित ही बेहतर भविष्य की कल्पनाएं साहित्य में आती है । दलित साहित्य में जब हम कल्पना सम्बन्धी विचार करते हैं तो देखते है कि अधिकांश रचनाओं में वर्तमान भेदभाव पूर्ण सामाजिक व्यवहार को खत्म करके समतामूलक समाज की कल्पना केन्द्र में है । दलित साहित्य में बाबा अम्बेडकर से प्रेरणा लेकर जीवन संघर्ष करके उज्ज्वल भविष्य  की कल्पनाएं हैं । इस साहित्य में वर्तमान व्यवस्था के प्रति नकार तथा गुलामी के विरुद्ध चेतना है । दलित साहित्य में स्वतंत्रता के सभी रूपों और अंतरंगनांे का दर्शन होता है । इसमें स्वतंत्रता की कल्पना अथवा विचार के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और नैतिक पहलू के समान ही सौन्दर्य शास्त्रीय पहलू भी हैं । स्वातंत्र्य की भावना दलित साहित्य का प्राणतत्व है । समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व तीनों जीवन मूल्य दलित साहित्य के सौन्दर्य तत्व हैं ।10 इस साहित्य के लेखकों के अनुभवों का ब्यौरा, उनके द्वारा पारम्परिक मूल्यों के विरुद्ध किये गये आक्रोश, निषेध और विद्रोह तथा सामाजिक संदर्भों का ज्ञान हुए बिना दलित साहित्य की कल्पनाओं को सही ढंग से नहीं समझा जा सकता है ।
साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र में प्रतीकों का अपना अलग महत्व है, इनका विश्लेषण करते समय हमें सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि रखना चाहिए क्योंकि साहित्यिक प्रतीकों का निर्माण सामान्य जन के द्वारा नहीं साहित्यकार के द्वारा होता है । रचनाकार स्वानुभूति के जिन अंशों को सामान्य अभिव्यक्ति के प्रचलित सांचों में ढाल नहीं पाता है, उन अंशों की व्यंजना के लिए ही वह प्रतीकों को सहारा लेता है । इस तरह रचनाकार स्वानुभूति के अकथनीय अंशों को प्रतीक के द्वारा कथनीय और प्रेषणीय बनाता है । दलित लेखकों के प्रतीक परम्परागत प्रतीकों से भिन्न हैं और हों भी क्यों नहीं ? इस बारे डॉ. शरण कुमार लिम्बाले का यह कहना कि “संस्कृत को देववाणी मानकर, शूद्रों को संस्कृत पढ़ने से प्रतिबंधित किया गया । इसलिए बाबा साहब अम्बेडकर संस्कृत भाषा नहीं पढ़ सके, उन्हें संस्कृत की बजाय फारसी भाषा पढ़नी पड़ी । शंबूर का वध करने वाला, राम हमारा आदर्श नहीं हो सकता । जिस गीता में चातुर्वर्ण्य का समर्थन है ऐसा महाभारत हमें वंदनीय नहीं लगता है ।11 दलित लेखकों के आदर्श प्रतीकोें में एकलव्य, शम्बूक, बुद्ध, रैदास, बाबा भीमराव अम्बेडकर आदि है । आज इनके अतिरिक्त नए प्रतीकों को रच रहे हेै ।
दलित साहित्य के सौन्दर्य शास्त्र को लेकर हिन्दी जगत में अब काफी चर्चा हो रही है । रमणिका गुप्ता के द्वारा अनुवादित डॉ. शरण कुमार लिम्बाले की पुस्तक “दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र”  वाणी प्रकाशन नई दिल्ली ने प्रकाशित की है । इसके बाद ओम प्रकाश बाल्मीकि की पुस्तक भी “दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र” आई है जिसके द्वारा दलित साहित्य को समझने व परखने हेतु मार्ग प्रशस्त हुआ है । आज दलित साहित्य को समझने के लिए मार्क्सवाद का भी सहारा लिया जा रहा है । दलित साहित्य तथा अश्वेत साहित्य में समानताएं तथा असमानताएं ढूंँढ़ी जा रहीं है । दलित चेतना से आपूरित अब केवल आत्म कथाएं नहीं कविताएं, कहानियों, उपन्यास तथा नाटक आदि लिखे जा रहे हैं । शोध के क्षेत्र में दलित लेखन व चेतना सूत्र तलाशे जा रहे हैं । लोकांचलों में गुम दलित स्वरों को रेखांकित किया जा रहा है । इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दी क्षेत्र में दलित चेतना आ गई हैं । समाज के एक बहुत बड़े तबके को जो वर्षों से कटा था, साहित्य में स्वर मिल गया है  । हमें कवि सुरेश तनवर की इन पंक्तियों में भविष्य दिखाई देता है कि-
मैं-
विद्रोह करूंँगा
उन सारे शब्दों के खिलाफ
जिनसे गढ़ गए तुम्हारे धर्मशास्त्र और
झूठ भरे इतिहास ।
मैं विद्रोह करूँगा
चुप नहीं रहूँगा ।12

सहायक प्राध्यापक (हिन्दी विभाग)
शास.महाराजा स्नातकोत्तर स्वशासी
महाविद्यालय छतरुपर म.प्र. 471001




संदर्भ संकेत-
1. वसुधा - 58, जुलाई -सितम्बर 2003, पृष्ठ 14 2. डॉ. शरण कुमार लिम्बाले, दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, पृ.38
3. बाबूराव बागुल, वसुधा-58, जुलाई-सितम्बर 2003 पृ. 25, 4. गजेन्द्र नामदेव ’कुमार’ दलित साहित्य रचना और विचार पृ.65
5. राधामोहन गोकुल जी का दलित विमर्श लेख से - वसुधा 55 पृ.76, 6. जयप्रकाश कर्दम, उत्तरभारत में दलित साहित्य, दलित सा. रचना और विचार पृ.80, 7. डॉ. कुमार विमल, सौन्दर्य शास्त्र के तत्व, पृ.109, 8. जॉन सी इक्लेस, साइंस्टीफिक, अमेरिका, सितम्बर 1958 पृ.141, 10. डॉ. शरण कुमार लिम्बाले दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र पृ.116, 11 डॉ. शरण कुमार लिम्बाले  दलित
पृ.42, 12.सुरेश तनवर, चुप नहीं रहूंगा, वसुधा -58 पृष्ठ 38



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