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Saturday 8 June 2013

साकेत की सांस्कृतिक पीठिका

साकेत की सांस्कृतिक पीठिका
कु. भारतीय सिंह परमार
सांस्कृतिक पीठिका संस्कृति की एक वृहद परिकल्पना है । जीवन के अन्य सूक्ष्म एवं व्यापक सत्यों की भांति इसकी कोई निश्चित और सीमित परिभाषा करना कठिन है । संस्कृतिका संबंध जैसा कि शब्दों की व्युत्पत्ति से ही पता चलता है संस्कान से है । सुसंस्कृत अवस्था का नाम ही पता चलता है संस्कार से है । सुसंस्कृत अवस्था का नाम ही संस्कृति है अर्थात् संस्कृति मानव जीवन की वह अवस्था है जहां उसमें पहले से व्याप्त रागद्वेषांे का परिमार्जन हो जाता है । यह परिमार्जन, यह संस्कार उसे अपनी स्वाभावगत इच्छा आकांक्षाओं, प्रवृत्ति-निवृत्तियांें के उचित सामंजस्य द्वारा करना पड़ता है । दूसरे शब्दों में सामाजिक जीवन की आन्तरिक मूल प्रवृत्तियों का सम्मिलित रूप ही संस्कृति है । स्थूल आवरण के पीछे सूक्ष्म का जो सत्य शिव और सुंदर रूप छिपा हुआ है संस्कृति उसकों ही पहचानने का प्रयास करती है । जड़ता से चैतन्य, शरीर से आत्मा रूप से भाव की ओर बड़ना ही उसका ध्येय होता है । 
प्रत्येक देश की, प्रत्येक जाति की अपनी विशेष सामाजिक प्रेरणायंे अपनी आशा आकांक्षायें अपने विश्वास होते हैं । इसी प्रार उसकी अपनी विशेष संस्कृति होती है । जिस पर उसकी जलवायु, भौगोलिक स्थिति ऐतिहासिक परम्परायें पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक आदर्श, रीति-नीतियां आदि प्रभावकारी होते हैं । इसी प्रकार भारत की भी अपनी संस्कृति है । भारतीय संस्कृति विश्व की अत्यन्त प्राचीन संस्कृति है और कदाचित सबसे पूर्ण । साकेत मैथली शरण गुप्त का महान सांस्कृतिक प्रबन्ध काव्य है । श्री गुप्तजी भारत के राष्ट्रकवि हैं । उनमें भारतीयता कूट कूटकर भरी है । राष्ट्रीयता में उनका क्षेत्र संस्कृति है । अतः यह कहा जा सकता है कि वे भारतीय संस्कृति के कवि हैं । और यही उनकी सबसे बड़ी विशेषता है और गौरव भी गुप्तजी ने साकेत में जीवन के समग्र रूपों का चित्रण किया है । भगवान राम जो कि आर्य सस्कृति के प्रतिष्ठापक है । वे हीं उनके चरित नायक हैं । अतः स्वाभावतः उनका  सांस्कृतिक आधार अन्य ग्रन्थों की अपेक्षा साकेत मे अधिक स्पष्ट और पूर्णहै । साकेत में राम, रावण, भरत, सीता, लक्ष्मण, उर्मिला इत्यादि सभी चरित्र, व्यक्ति प्रधान न होकर समस्त भारतीय संस्कृति के द्योतक हैं । साकेत में राम की विजय को सिर्फ राम की पत्नि न मानकर समस्त भारत की कुलवधु के रूप में देखा जाता है । 
साकेत का जीवन आदर्श, दुखों पर विजय प्राप्त कर सुख का अर्जन एवं उपभोग करना ही नहीं बल्कि उसको त्यागने की शिक्षा देता है । इसी से नर को ईश्वरता प्राप्त होती है। और यह धरती स्वर्ग तुल्य बन जाती है । यही हमारे जीवन का आदर्श है, और यही साकेत का संदेश भी । 
साकेत के रचनाकार मैथलीशरण गुप्तजी चूंकि उदार वैष्णव भक्त है, इसलिए उन्होनें राम को बृह्म और सीता को महामाया का अवतार माना है । क्रियात्मक रूप से भी कवि आर्य धर्म के सभी अंगों में विश्वास करते हैं । वेद, यज्ञ, जप, तप, वृत, पूजा सभी उनकों मान्य है वेद आर्य संस्कृति का आधार है । यज्ञ उसका प्रमुख साधन है । तभी तो राम चाहते हैं कि 
उच्चारित होती चले वेद की वाणी
गूँजे गिरि कानन सिंधु पार कल्याणी
अम्बर में पावन होम धूम लहरायें 
मध्य युग में ज्ञान का आधार लुप्त हो जाने से यज्ञ में पशु बलि आदि का भी प्रसार हो चला था । वास्तव मंे यह विकृति ही थी । अतः साकेत में उसका विरोध है । लक्ष्मण मेघनाथ से कहते हैं -
कौन धर्म यह शत्रु खड़े हंुुकार रहे हैं 
तेरे आयुध वहाँ दीन पशुमार रहे हैं 
करता हूँ मैं बैरी विजय का ही यह साधन
तब है तेरा कपट मात्र यह देवाराधन 
साकेत में जिस सामाजिक जीवन का वर्णन है उसमें भारतीय संस्कृति कूट कूट कर भरी है । सामाजिक जीवन के लिये मर्यादा को विश्ेाष महत्व दिया गया है । तथा बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय की महत्ता को प्रतिपादित किया गया है । साकेत मंे वर्ण व्यवस्था अपने मूल रूप में मिलती है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी का अपना अपना स्थान है । दूसरी ओर शूद्रों का भी तिरष्कार नहीं है । सीता, किरात, भिल्ल बालाओं से सखी सदृश व्यवहार करते हैं ।  उधर दशरथ-आत्मग्लानि आश्रम धर्म का संदेश सुनाती है । 
ग्रह योग्य बने है तपस्पृही
वन योग्य याह हम बने ग्रही 
साकेत में उर्मिला माण्डवी आदि के चरित्र स्त्रियों के महत्व को स्वीकार करते हुए भी भारतीय जीवन में उनका अपना विशेष क्षेत्र है । वे ग्रहलक्ष्मी है वहां उनका साम्राज्य है । इससे बाहर क्षमता होने पर भी भारतीय ललना प्रायः नहीं जातीं । माण्डवी जैसे सुयोग्य स्त्री को भी राजनैतिक विषय वातालाप सुनने के लिए भरत की आज्ञा पूर्व लेनी ही पड़ती है । 
’’राजनीत बाधक न बने तो तनिक और ठहरूंँ इस ठौर’’
परिवार समाज का ही लघुरूप है । समाज का आदर्श परिवार सदृश बनना है और परिवार का आदर्श समाज सदृश् बनना है । साकेत में स्त्री पुरूष संबंध भाई-भाई संबंध, भाभी देवर, सास-बहू का संबंध सपत्नियों का पारस्परिक व्यवहार इत्यादिभारतीय परिवार के सभी संबंध   अपने आदर्श रूप में यहाँ मिलते है। साकेत के ग्रहस्थ चित्र भारतीय संस्कृति के परम उज्जवल स्वरूप हैं । हाँ लक्ष्मण शत्रुुघन का कैकेयी से वार्तालाप सर्वथा असंस्कृत है । भरत के शब्दों मंे भी असंयम है । दो एक स्थानों पर लक्ष्मण का उर्मिला का चरणांे में गिरना भी चित्रित किया गया है जो कि भारतीय संस्कृति संस्कृति के अनुरूप नहीं जान पड़ता । 
प्रत्येक देश की अपनी रीति नीतियां प्रथा में परम्परायें होती है । उनमें देश की संस्कृति निहित रहती है । वेैसे तो मूल नैतिक सिद्धान्त सभी देशांे और कालों में एक से ही है परन्तु फिर भी भिन्न भिन्न देशों में कुछ विशेषतायें होती है । भारतीय जीवन में आत्मा को परमात्मा से मिलाने के लिये कुछ वृत्तियों को खास महत्व दिया गया है उनमें से काम और मोह नामक वृत्तियां प्रमुख हैं लोभ का विग्रह अपरिग्रह है । राम और भरत की र्निलोभता सभी को चकित कर देती है । राज्य जैसी वस्तु भी भारतीयों के हृदय में कितना मूल्य रखती है इसकी साकेत मे स्पष्ट व्याख्या है ।
और किसलिये राज्य मिले 
जो हो तृण सा त्याज्य मिले
काम के निग्रह के लिए भारतीय नीतिशास्त्र में पुरूषों को एक पत्नी व्रत और स्त्रियों को पति व्रत धर्म का आदेश है । साकेत की कहानी पतिव्रत और एक पत्नि व्रत की ही कहानी है लक्ष्मण को सबसे बड़ा बल इसी बात का है कि-
यदि सीता ने एक राम को ही वर माना 
यदि मैंने निज बधू उर्मिला को ही जाना 
कु. भारतीय सिंह परमार

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