Search This Blog

Saturday 8 June 2013

संत परम्परा के कवि महामति प्राणनाथ

संत परम्परा के कवि महामति प्राणनाथ 
-डॉ. बहादुर सिंह परमार
भारतीय इतिहास में संतों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। सार्वकालिक एवं सार्वदेशिक मानवता की निष्कलुष तथा निर्विवाद प्रतिष्ठा के लिए संतों ने जिस विवेकशील सम्यक् दृष्टि, उदारता, त्याग-तपस्या, स्नेह और सहनशीलता से काम लिया वह समाज के अन्य किसी वर्ग द्वारा संभव नहीं था । स्वार्थी, धर्मान्ध और अहंकारी समाज-व्यवस्थापकों तथा शास्त्रज्ञों से जिस सत्यनिष्ठा, संकल्प और साहस से संत संघर्ष कर सके, उस अपराजेय चारित्रिकबल तथा आत्मशक्ति की कल्पना अन्यत्र नहीं की जा सकती थी । भारतीय साहित्य का
मध्यकाल संतों की इसी महती भूमिका का काल है । जब देश अलगाववादी जाति-पांति, छुआछूत, सम्प्रदाय भेद, बाह्यावतार, शास्त्रीय पांडित्य के अहंकार, राजनैतिक विद्वेष, दुराग्रह और सामाजिक विवेकहीन व्यवस्थाओं से ग्रस्त होकर एक-दूसरे के लिए पीड़ा-उत्पात, अत्याचार और धार्मिक प्रताड़नाओं का अखाड़ा बना हुआ था असमर्थों पर मनमानी कर रहे थे, कोई किसी की सुनने वाला नही था, हिन्दू-मुस्लिम दो संस्कृतियाँ आपस में टकराकर धर्म के नाम पर अधार्मिकताओं और षड़यन्त्रों के नये जान बुन रहीं थीं उस समय इन्हीं सन्तों में उदार समन्वय के शीतल जल से धधकती ज्वाला को शांतकर रक्तपात और उत्पीड़न से जनजीवन की रक्षा तथा सामाजिक सौमनस्य के वातावरण की रचना का प्रयास किया था । कबीर, नानक, नामदेव, तुलसी जैसे अनेक सन्तों ने अपने सद्भावी स्वरों से जहाँ एक ओर जनमानस को जगाने की चेष्टा की वहीं दूसरी ओर साहित्य को भी समृद्ध किया । सन्तों की इसी श्रृंखला में महामति प्राणनाथ का नाम भी बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है । इन्होंने   अपनी बाणी से जनचेतना को बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है । इन्होंने  अपनी बाणी स जनचेतना को जागृत करने के साथ हिन्दी के भाषिक संसार को नया आयाम प्रदान किया ।
महामति प्राणनाथ ने निराश, खंडित, दलित तथा विश्रृंखिलत समाज को समेटने तथा सर्वधर्म समन्वित लोक आस्थाओं को स्थापित करने  तथा टूटे, उदास हृदयों को जगाकर खड़ा करने का अभिनव प्रयास किया । उनके इन प्रयत्नों ने पूर्ववर्ती सन्तों द्वारा किए सद्प्रयासों को नया आयाम व विस्तार दिया । कबीर ने जातिगत भेदभाव से ऊपर  उठकर हिन्दुओं तथा मुसलमानों को एक सूत्र में पिरोने का समतावादी आह्वान किया था जिसमें शास्त्रीय ज्ञान के अहंकार से ग्रस्त उच्च वर्ग के प्रति गुस्सा का स्वर प्रमुख था दूसरी ओर गोस्वामी तुलसीदास ने शैव-वैष्णवों के लिए नया समन्यवयकारी स्वरूप प्रस्तुत कर सबको समान बनाने का पावन काम किया किन्तु इन एकता प्रयासों में कहीं न कहीे कुछ कमियाँ थीं परिणामस्वरूप कबीर और तुलसीदासं जैसे संतों की सैद्धातिक समरसता पूरी तरह स्थापित न हो सकी । स्वामी प्राणनाथ ने उस दुर्बलता को समझा और समस्या के तह में जाकर समाधान का प्रयत्न किया । उन्होंने इस तथ्य को अच्छी तरह से परख लिया था कि धर्म समाज की एकता में ही मानवीय कल्याण निहित है । यदि समाज को अलगाव, आतंक व विखंडन की अहंकारी रीति-नीतियों से नहीं बचाया गया तो मानवता का सर्वनाश निश्चित है इसीलिए उन्होंने देशी-विदेशी  सभी धर्मों को मिलाकर एकत्व की सदाशयी धवल पीठिका पर मानव धर्म को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया । उन्होंने मूल धर्मग्रंथों की विचारधाराओं और मूलभूत सिद्धांतों की ओर विचारकों का ध्यान खींचा । सभी अवतारी पुरुषों व संसार के धर्मग्रंथों की गुत्थियों को सुलझा कर कथानकों  की एकरूपता प्रतिपादित की ।
महामति प्राणनाथ के समय में औरंगजेब का शासन था जिसमें एक ओर तो उद्दंड क्रूर राज कर्मचारी धर्म की आड़ लेकर मनमाने अत्याचार कर रहे थे दूसरी ओर शोषित हिन्दू जन अपना ‘हिन्दू‘ नाम बचाने के लिए अपने ही में सिमटे जा रहे थे । ऐसे समय मंे प्राणनाथ जी ने हिन्दू, इस्लाम तथा ईसाई धर्म ग्रन्थों से उद्धरण देकर समझाया कि सभी धर्मों में मानवता, त्याग, प्रेम व करुणा ही मूल आधार है। वे कहते हैं-
जो कछु कहया कतेब ने, सोई कहया वेद।
दोऊ बंदे एक साहेब के, पर लड़त बिना पाये भेद ।
बोली जुदो सबन की, नाम जुदे धरे सबन ।
चलन जुदा कर लिया, ताथे समझ न परी किन ।। (खुलासा, 12-42, 43)
अर्थात् जो कुछ है कतेब ने कहा, वही वेदत कहता है । सभी तो एक ही स्वामी के बंदे हैं । केवल भाषा भेद के ही  कारण व्यर्थ के झगड़े हो रह हैं । सबकी बोलचाल की भाषा भी अलग-अलग है, भाषा के अनुसार लोगों ने अलग-अलग नाम भी रख लिए हैं । वातावरण के अनुसार के बने चलन को धर्म का आचरण मान लिया इसीलिए अब किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा है ।
महामति प्राणनाथ जी ने देखा कि न केवल हिन्दू-मुसलमान ही आपस में लड़ रहे है बल्कि हिन्दू-हिन्दू और मुसलमान-मुसलमानों में भी भेद है । यदि नहीं, सभी धर्म आपसी प्रतिद्वंदिता व स्वार्थपरता के कारण अपना मूल स्वरूप खो रहे हैं, तो उन्होंने कबीर की ही तरह दोनों धर्मो के जिम्मेदार कहलाने वाले लोगों को न केवल फटकार बल्कि उन्हें शाश्वत सत्य से परिचित कराते हुए रहा -
ब्राह्मण कहें हम उत्तम, मुसलमान कहें हम पाक।
दोऊ मुट्ठी एक ठौर की, एक राख दूजी खाक।। (सनंध 40/42)
ेे हिन्दू तुरक दोन ने गाये, तिन मिल के दोय पंथ चलाये।
खेंचा खेंच जगत में होई, एक अरथ मिलि कहत न कोई ।
इस परस्पर विग्रही दशा को देखकर तत्कालीन समाज अंर्तमुखी हो उदासीन हो गया था किन्तु इस उदसीन समाज को जनचेतना के सच्चे कवि प्राणनाथ ने न केवल वाणी से बल्कि अपने आचरण से झंकृत कर नई दिशा प्रदान की । उन्होंने पहले तो मुगल बादशाह  से मानवीय धर्म की सर्वकल्याणकारी राह पर चलने का आग्रह किया जो चाटुकार दरबारियों तथा अंहकारी मुल्ला-मौलवियों के कारण कारगर न हुआ । तत्पश्चात् देशाटन करके जनजीवन, धर्म तथा समाज की सुरक्षा के लिए पौरुषवान योद्धाआंे को अन्याय के प्रतिकार के लिए आगे आने का आवहान  किया -
राजा रे मलो रे राने रायतणां धरम जाता रे कोई दोड़ो।
ेजागो रे जोधा रे उठ खड़े रहो, नींद निगोड़ी रे छोड़ो ।।
परिणामस्वरूप अनेक सेठ-साहूकार, अनुयायी कार्यकर्ता और महाराज छत्रसाल जैसे योद्धाओं ने सामाजिक जीवन तथा राष्ट्रधर्म की रक्षा का संकल्प लिया । प्राणनाथ जी ने सबसे बड़ा व महत्वपूर्ण कााल किया जनसमुदाय को जागृत करने का, उनके भीतर चेतना झंकृत करने का जो काम सही मायने में एक कवि व समाजचेता संत का होता है। उन्होेंने जागनी के माध्यम से यह बताया कि सारे धर्म एक हैं और उनका उद्देश्य मानव कल्याण ही है। विश्व क मनुष्य एक हैं। उनमें भेदभाव नहीं किया जा सकता । भेदभाव वरना धर्म विरुद्ध है। संसार के सारे धर्मों में पूज्य ईश्वर नाम व वाणी से अलग प्रतीत होते हैं। वस्तुतः वे सब एक हैं। यही नहीं, सारे सच्चे धर्म ग्रंथ भी एक ही बात कहते हैं। उन्होंने जंबूर, तौरेत, इंजील, कुरानशरीफ, बेद-कतेब,रामकृष्ण, ईसा-मुहम्मद बुद्ध को एक ही सिद्धकर ब्रह्मएकता तथा मानव मात्र के लिए एक धर्म का सिद्धांत प्रतिपादित किया । वे कहते हैं कि-
कलाम अल्ला या हदीसें, सास्त्र पुरान या वेद।
एकसब सुख लेवें मोमिन, हक रसना के भेद।। (सिंधी, 16-19)
वेद आया देवन पे, असुरन पे कुरान।
मूल मायने उलटाय के, कोई जाहेरी किये तूफान।।(खुलासा, 13-9 )
उन्होंने बताया कि धर्म के मार्ग पर चलने वाला  चाहे हिन्दू हो या मुसलमान या कोई अन्य। वह कभी भी दूसरों को पीड़ित और दुःखी नहीं करेगा । हिंसा, रक्तपात,दुराचार,पाखंड धार्मिक लोगों के कार्य नहीें हैं। सच्चा धार्मिक वही है जिसकी आत्मा पवित्र है और आचरण शुद्ध है। वे कहते हैं-
हो भाई मेरे वैस्नव कहिए वाको, निर्मल जाकी आत्म।
नीच करम के निकट न जावे, जाए पेहेचान भाई या ब्रम्ह ।। (किरंतन, 911)
जो दुख देवे किनको, सो नाहीं मुसलमान।
नबिएं मुसलमान का, नाम धराया मेहरबान।। (सनंध 44/24)
इसी तरह प्राणनाथ जी ने मन की पवित्रता, दूसरों की सेवा, परोपकार तथा आपसी मानवीय प्रेम को सर्वोत्तम सिद्ध किया है। हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल से जो धारा मानवीय प्रेम तथा सामंजस्य की प्रवाहित हुई थी  उसी को और पवित्रता से प्रवाहित करने में प्राणनाथ जी का महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने सच्चे संत व कवि के रूप में अपने जीवन अनुभवों को समाज के समक्ष रखा है। उन्हांेने  किताबी तथ्यों को जीवानानुभवों की प्रयोगशाला में डालकर  परखा और उनकी अंतरात्मा को छू सका उसे स्वीकार कर जनचेतना हेतु संदेश के रूप में सम्प्रेषित किया।
स्वामी प्राणनाथ ने शब्दातीत ब्रम्ह की बड़ी गंभीर तार्किक और विस्तृत व्याख्या की हैै । उनके अनुसार शब्दातीत ब्रम्ह को समझना जरूरी है । यह यदि हमारे समझ में आ जाए तो हमारे व पथ प्रदर्शकों के भ्रम सहज ही में दूर हो  सकते हैं। यह तो स्वयंसिद्ध और स्वानुभूत सत्य है कि जिसका हमने अनुभव किया है अथवा देखा है उसका यथावत् वर्णन वाणी अथवा शब्दों से संभव नहीं है। बहुत कुछ छूट जाता है । हमारी अपनी आत्मा ही कहने लगती है कि यह ऐसा नहीं है, यह वैसा नहीं है। इस प्रकार परम धाम में चिन्मय स्वरूप परात्म को जो सुख मिलता है वह आत्मा को  नहीं। जो आत्मा को अनुभव होता है वह जीव को नहीं । जो जीव को अनुभव होता है वह अन्तःकरण को नहीें । जो अन्तःकरण को सुख मिलता है वही इन्द्रियों के माध्यम से मन तक पहुँचता है।  अतः मन को उतना भी मिलना संभव नहीं। मन के सुख का वर्णन जिह्वा करती है। परात्म का जो सुख इतने सोपानों से हो होता हुआ जिह्वा तक आया वह भला वही सुख वैसे हो सकता है, वहीं रूप कैसे हो सकता है ? वैसा ही वर्णन नहीं हो सकता इसीलिए वह शब्दातीत अथवा वर्णनांतीत है। तभी तो उसे नेति-नेति कहा गया है। वहाँ शब्द, मन, बुद्धि, का प्रवेश ही नहीे हो सकता । सारा वर्णन ब्रह्माण्ड और पिंड के बीच का है जो नश्वर है। इसलिए भ्रमवश   वर्णना अलग-अलग होते हैं। अहंकार और झूठी प्रतिष्ठा के लिए सम्प्रदायों के प्रमुख अपने-अपने को महान् सिद्ध करने में लग जाते हैं । और अन्ततः स्वयं को ब्रम्ह बताने लगते हैं जबकि सबके पार परमधाम निवासी अक्षरातीत ब्रह्म उन्होंने स्वयं देखा तक नहीं इसीलिए धर्म और धर्म स्थापनाएँ विकृत-दूषित हो गई। फलतः जो धर्म सर्वकल्याण की प्रेरणा से उद्भूत हुआ था वह आत्मकल्याण के घेरे में घिर गए इसीलिए  हिंसाएँ हुई, अनर्थ हुए । यही सब देखकर स्वामी प्राणनाथ कहते हैं कि जो धर्माचार्य अपने को ब्रम्ह बताते हैं उन्होने न ब्रम्ह को देखा और न समझा । उस द्वारा को खोलने वाले ही ब्रम्ह के ज्ञाता कैसे हो सकता है ? उस द्वार को खोले बिना अक्षरातीत सत्य की अखंडलीला को जाना ही नहीं जा सकता । अज्ञान के कारण ही विकारों का जन्म होता है जो दुराचरण के कारण बनते हैं । उनका कहना है कि प्रभु कृपा से मैंने उस परम धाम की अखंडलीला को देखा व समझा है जो श्रीमद्भागवत में वर्णित है । श्रीमद्भागवत का लीलाधारी कृष्ण परमब्रह्म है जो अपनी अखंडलीला से सबको सुख प्रदान करता है । यह लीला अविनाशी है, चिरन्तन व निरन्तर है । यही तारतमवाणी का सार है ।
स्वामी प्राणनाथ अपनी विचारधारा में न तो पूरी तरह कबीर थे और न तुलसीदास/कबीर की दृष्टि प्रखर प्रहारक थी । वे अपनी दृष्टि के विपरीत हर विसंगति पर तीखा प्रहार करते थे । वहाँ खण्डन व नकार का भाव अधिक है जबकि तुलसीदास में स्वीकृति भावना की प्रधानता है । वे सगुण रूप के प्रेमी संत थे । उन्होंने पुराणों व निगमागम के साथ जो सूझा उसे संघर्ष को बचाते हुए प्रस्तुत कर दिया । उन्हें किसी से बुराई नहीं है किसी से संघर्ष नहीं है । प्राणनाथ जी न तो कबीर की तरह सीधे प्रखर प्रहारक है और न खंडन व नकार के हिमायती । वे संघर्ष बचाकर सबको समेटने के भी पक्षधर नहीं थे । उन्होंने बीच का मार्ग अपनाया । यही कारण है कि एक ओर जहाँ दिल्ली के शासक को समझाकर सही रास्ते पर लाने का प्रयास करते है वहीं उसकी मनोवृत्ति व व्यवस्था की आलोचना भी करते हैं । वे एक ओर जहाँ स्पष्टवादी  थे वहीं उदारवादी भी । भारत भूमि को पवित्र और वैष्णव धर्म को सर्वश्रेष्ठ कहकर भी उसकी विसंगतियां उघाड़ते थे । वैष्णव समाज में जाति भेद पर कठोर प्रहार करते हुए कहते है:-
सब जातें नाम जुदे धरे, और सबका खाविंद एक ।
सबको बंदगी याही की, पीछे लड़े बिना पाए विवेक ।। (खुलासा, 12/22)
जात एक खसम की, और न कोई जात ।
एक खसम एक दुनिया, और उड़ गई दूजी बात ।। (सनंध ,33-17 )
इस तरह वे एक परब्रह्म की जाति स्वीकार करते हैं और किसी की नहीं ।वे अन्य धर्मों की अच्छाइयों को लेकर वेद कतेब की एकता का सबल प्रतिपादन करते हैं -
ए बेबरा वेद कतेब का, दोनों की हकीकत ।
इलम एकै बिध का, दोऊ की एक सरत । (खुलासा 12/03)
मुहम्मद और कृष्ण को जिन तर्कों और परम्पराओं से वे एकाकार करते हैं वह उनकी मौलिक और साहसिक सूझबूझ ही थी । वे अथर्ववेद को सबका सार और मूल बताकर सारे धर्मों और धर्माचार्यों की दुर्बलताओं पर सीधा तर्क-वितर्क करते हैं । उनकी तर्क दृष्टि और स्थापनाएँ उनके समर्थ प्रगतिशील व्यक्तित्व तथा गम्भीर, उदार किन्तु सजग व्यावहारिक दृष्टि की परिचायक है ।
स्वामी प्राणनाथ एक प्रगतिशील चिन्तक व समानता पर आधारित मानवीय समाज संरचना के समर्थक हैं । समाज को जाति  वर्ण के भेद को उन्होंने नकार कर निर्मल मन की पवित्रता पर जोर दिया है । वे तथाकथित ब्राह्मणों को फटकारते हैं जिन्हेांने वेश बनाकर धर्म को कर्मकांड का रूप दे दिया तथा आजीविका का साधन बना लिया वे कहते हैं कि-
विप्र वेष बाहेर दृष्टि, षट कर्म पाले वेद ।
स्याम खिन सुपने नहीं, जाने नहीं ब्रह्म भेद ।।
उदर कुटुंब कारने, उतमाई दिखावे अंग।
व्याकरण वाद विवाद के, अर्थ करें कई रंग ।। (सनंध, 16/21-22)
इसी तरह पाखंडों, कर्मकांडों, कुरीतियों और आडम्बरों पर प्राणनाथ जी ने प्रहार किये है। वे मानते है कि परब्रह्म स्वामी किसी से ठगे नहीं जा सकते । चाहे कोई कितने भी कपट करने का प्रयास करें, वे सब जानते हैं । प्रत्यक्ष में जो झूठे पाखंडों में उलझे रहते हैं वे गहनतम अंधकार मंे रहते हैं । जो बाह्य शुद्धता पर ध्यान देकर बार-बार स्नान करते है उन्हें कबीर की ही भांति समझाते हैं -
अंदर नाही निरमल, फेर फेर नहावें बाहेर ।
कर देखाई कोट बेर,  तोहे न मिलो करतार ।।
(किरन्तन 32-1)
इसी तरह कुछ लोक केश बढ़ा लेते हैं या केश मुॅंड़वा लेते हैं । इससे कुछ नहीं होता, जब तक आत्मा की पहचान नहीं होती तब तक प्रपंचपूर्ण वेशधारण करना मात्र पाखंड है । ऐसे लोगों को शास्त्र वचनों का अर्थ नही सूझता, वे तो मात्र अहंकार में डूबे रहते हैं -
सास्त्र शब्द को अर्थ न सूझे, मत लिए चलत अंहकार ।
आप न चीन्हें घर न सूझे, यों खेलत माँझ अंधार । । (किरन्तन, 7/11)
महामति प्राणनाथ जी इस तरह पाखंड पर प्रहार करके मुक्ति के लिए स्वयं को पहचानने का आव्हान करते हैं ।  उनका मानना है कि सतगुरू के अनुसार अपने अन्तः करण में ही पर ब्रह्म का वास है । अतः उस ब्रह्म को समझे बिना मुक्ति का कोई उपाय नहीं है ।
यामंे अंतर वासा ब्रह्म का, सो सतगुर दिया बताय ।
बिन समझे या ब्रह्म को, और न कोई उपाय ।।  (किरन्तन 35/23)
इस तरह हम पाते है कि स्वामी प्राणनाथ ने सभी मानव धर्मों को एकाकार कर विश्व बंधुत्व का भाव जगाने का सफल प्रयास किया । उन्होंने सम्पूर्ण मानव समाज को कष्टों से मुक्त कराने के लिए सतत् साधना की । उनकी साधना से जहाँ समाज को नई दिशा मिली वहीं हिन्दी साहित्य समृद्ध दिया उनके काव्य में सच्चे मानव मूल्यों की स्थापना के साथ नई जीवन दृष्टि परिलक्षित होती है । वे प्रगतिशील चिन्तक व संवेदनशील रचनाकार के साथ संत काव्य परम्परा के महत्वपूर्ण कड़ी हैं । इन्होंने हिन्दुस्तानी भाषा में लिखकर हिन्दी भाषा का शाब्दिक संसार भी बढ़ाया है । ये मूलतः गुजरात के निवासी थे जिससे गुजराती, उर्दू तथा हिन्दी के मेल से हिन्दुस्तानी भाषा में देवनागरी लिपि में आपने सरलतम ढंग से अपनी वाणी प्रस्तुत की है । इनकी रचनाओं में कुछ बुन्देली शब्द भी देखने को मिल जाते हैं क्योंकि उन्होंने बुन्देलखण्ड को अपनी कर्मभूमि चुना था । महामति प्राणनाथ का मानना था कि हिन्दी भाषा सरल व सुगम है इसलिए जनसामान्य तक इसी के माध्यम से पहुंचा जा सकता है ।
बिना हिसाबें बोलियां, मिने सकल जहान ।
सबकों सुगम जानके, कहूँ हिन्दुस्तान ।।
बड़ी भाषा ये ही भली, जो सबमंे जाहेर ।
करना पाक सबन को, अन्तर माहें बाहेर ।। (सनंध, 1/13-14)
इस तरह स्वामी प्राणनाथ ने आज से तीन सौ वर्ष पहले हिन्दी को अपनाकर उसको राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने का स्वप्न देखा था ।
डॉ.बहादुर सिंह परमार
सहायक प्राध्यापक (हिन्दी विभाग)
शास.महाराजा स्नातकोत्तर स्वशासी
महाविद्यालय छतरपुर म.प्र. 471001







1 comment:

  1. बहुत अच्छा लेख ।
    हार्दिक अभिनन्दन ।

    ReplyDelete